जाप
ब्रह्मज्ञानी (सूफी) के अनेकानेक कर्म और वचन, जिनमें याद, चेतना, और ज्ञान का संचार हो, जाप (ज़िक्र) के अंतर्गत आते है; जाप के समक्षणिक ध्यान जारी रहना चाहिए, केवल 'जाप' या कोरे-जाप से कोई लाभ नहीं होता. जाप करते समय जिस 'शब्द' का जाप करते हैं, उसके अर्थ का ध्यान रहना चाहिए और यह ध्यान भी करना चाहिए क़ि गुरुदेव सम्मुख बैठे हैं, आदि, आदि. जहां ऐसा न हो, उस कर्मकांड को 'जाप' की संज्ञा देना उचित नहीं. जाप और शब्द में विस्मृति और सुध (भूल और गफलत) का अभाव होता ही नहीं और न इसमें 'लक्ष्य-भृष्टता' (निसियाँ) ही की संभावना होती है. 'जाप' की अपनी एक विशेष ही शक्ति है, जिसे हम कह सकते हैं - यथार्थ और पूर्णवाक् द्वारा विचार में सत्य का अंतर्दर्शन. कहना तो यही उचित होगा क़ि साधना के चरम लक्ष्य (असल नतीज़ा) को पाने का मात्र यही एक उत्कृष्ट माध्यम है. ऐसा निश्चित मार्ग पा लेने पर, उस पर अग्रसर होना ही वास्तविक अर्थों में उपासना है, यह उपासना चाहे दैहिक अथवा शरीर-संबंधी हो, स्थूल या सूक्ष्म हो, नाम की हो या नामी की हो, अथवा इसके अतिरिक्त और कुछ भी हो, किन्तु इसके विपरीत जिस साधन से लक्ष्य की विस्मृति हो जाय, भूल जाय, उस साधन-पथ पर अग्रसर होना अथवा उस और आकृष्ट होना, 'पथ-भृष्टता' है, अनाचार है.
चूँकि मूल प्रकृति सब की अलग- अलग होती है. इस लिए जाप करनें वाले अभ्यासिओं की भिन्न विशेषताओं के कारण जाप की भी भिन्न अवस्थाएं द्रष्टिगोचर होतीं हैं. उदाहरण स्वरुप, कुछेक साधकों को शब्द के संचार का आभास कभी होता है, कभी नहीं होता; कुछ की स्थिति इसके विपरीत होती है. ऐसा भी देखने में आया है कि शब्द संचार की अनुभूति अंत तक नहीं हुयी, किन्तु अनायास ही अंत समय में ऐसा स्रोत फूटा, मानों स्वतः प्रवाहित ज्वाला का आवेग (भभूका) ही हो. इस सन्दर्भ में एक ही सत्य है कि अभ्यासियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जाप करने वाले (जाकिर) हैं और जाप करते रहते हैं. यह भी चेतना बनी रहे कि हमारे और उसके, जिसका कि हम ध्यान करते हैं; जाप आवश्यक है.
सबसे उत्तम श्रेणी का जाप यह है का नामो-निशान भी मिट जाय और जिसका कि जाप किया जा रहा है, मात्र वह ही द्रष्टिगत रहे. धीरे-धीरे बाद में जाप से उत्पन्न आनंद भी जाता रहे. और उसकी अनुभूति भी शेष न रहे.
वह क्या है, कहनें में नहीं आता. जो है, वह है, उससे अधिक कहा नहीं जाता और न कुछ कहा जा सकता है, क्यों कि वहाँ विचार नहीं जाता.
अनुशासन के अंतर्गत बीस नियम आते हैं-
- पांच, वे हैं वे हैं, जिनका पालन जाप प्रारम्भ करने से पूर्व करनें हैं.
- बारह नियम वे हैं जिनका ध्यान, जाप के मध्य (अंतराल) में रखना है.
- अंतिम तीन नियमों का निर्वाह, जाप की समाप्ति पर काना है.
जाप प्रारम्भ करने से पूर्व के नियम इस प्रकार हैं;
(०१) तौबा या पशाताप करना; अब तक जो किया सो किया, अब भविष्य के लिए, सदा और सर्वदा के लिए यह वादा (प्रतिश्रुति) निवेदन करना वे सभी कर्म और विकर्म जो धर्म-विरुद्ध हैं, अब न होंगे.
(०२) ह्रदय सभी द्वंद्वो से परे और शांत स्थिति में रखना.
(०३) पवित्रता; अर्थात शौच, नहा-धो कर स्वच्छ वस्त्र पहनना और स्वच्छ स्थान पर ही बैठना.
(०४) अपने गुरुदेव से सहायता लेना.
(०५) इस तथ्य का निरंतर बोध होना किगुरुदेव से सहायता लेना ठीक वैसा जैसा कि इष्ट देव से.
जाप के मध्य जिन नियमों का निर्वाह करना है, वे इस प्रकार हैं-
(०१) उपयुक्त आसन के साथ बैठना. "आसनेन रुजं हंति" (योग चूडामणि उपनिषद - १०९) हाथ-पैर आदि की स्थिर स्थिति का नाम 'आसन' है. आसन सिद्ध होने पर चित्त की एकाग्रता होती है. चित्त एकाग्र होने पर संसार का अस्तित्व शून्य हो जाता है. आसन रोगनाशक भी माने गए हैं. यह अपनी सुविधा की बात है कि 'दोजानू', जैसे नमाज़ में बैठते हैं, या किसी दूसरे आसन पर, किन्तु सबसे अच्छा सिद्धासन प्रतीत होता है. सिद्धासन गुदा तथा उपस्थ के बीच के स्थान पर लगाया जाता है. इस स्थान के नीचे बाएँ पैर की एड़ी लगाएं और सीधे पैर की एड़ी को उपस्थ के ऊपर रक्खें. इस स्थिति में दोनों पैर की एड़ियाँ नीचे-ऊपर हो जातें हैं. दोनों पैर के अंगूठे जंघाओं के बीच में आ जाते हैं. वक्षस्थल में ठोडी जमा कर मन को एकाग्र कर, द्रष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर करने पर सिद्धासन होता है. यह आसन मोक्ष-कपाट को खोलता है.
(०२) स्थान, जहां बैठना है उसको सुगन्धित करना. धूप और लोबान आदि सुलगा कर अथवा यज्य करके, सुगन्धित ताज़ा फूल रख लिया करें.
(०३) स्वच्छ वस्त्र धारण करना, और पूजा-गृह (जो आकार में एक छोटे प्रकोष्ठ या कोठरी से अधिक न हो) को अन्धेरा कर लें.
(०४) दोनों आँखों और दोनों कानों को बंद कर लेना. (हमारे यहाँ अँधेरे प्रकोष्ठ और कानों को बंद करने की अनिवार्यता नहीं है).
(०५) सदगुरुदेव की प्रतिष्ठा और सानिध्य को ह्रदय में विद्यमान रखना.
(०६) व्यक्त और अव्यक्त, सत्यनिष्ठा और निष्कपटता से आचरण करते हुए एकेश्वरवाद के मूल मन्त्र को स्वीकार (ज़ाहिर-बातिन सच्चाई और ख़ुलूस ... ... ... कल्मये तौहीद इख्तियार ) करना चाहिए.
[हमारे यहाँ जाप के मध्य इसकी आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया गया है. मात्र शब्द सुननें पर ध्यान देते हैं. यों गुरुदेव की छवि, उनकी प्रतिष्ठा और सानिध्य, ह्रदय में स्थापित करनें तथा एकेश्वर-वाद के मूल-मन्त्र के अर्थों को अंतःकरण में च्त्रित करने के प्रति आग्रह स्वीकरण का मुख्य कारण यह है की इनमें इच्छाओं की पूर्ती में पर्याप्त सहायता मिलती है.]
(०७) अपने चित्त, अंतःकरण में ऐसे संस्कार और प्रवृत्ति जगाएं कि अनेक सांसारिक भोग-विलास के सामान हमें अभोग्य और उनकी उपस्थिति व उपलब्धि अप्रिय लगे, घुटन जैसी हो.
(०८) जब जब अबोध मन संसार की किसी भी भोग-विलास की वस्तु की इच्छा करे, उन दृश्यों को चलचित्र की भाँति अवलोकन करना, एक-एक करके उन सभी पर विवेक-पूर्ण विश्लेषण करना और उन्हें अपनें कष्टों का कारण समझना. इसी बात को अपने चित्त में उतारते हुए पछतावा करना चाहिए.
(०९) जापक ज्यों ज्यों इस स्थिति में प्रवेश करेगा, उसका अन्तःकरण वैसे ही वैसे स्वच्छ और निर्मल होता जाएगा और जिन विभिन्न प्रकार के रजोगुणी संकल्प विकल्पों के लिए वोह बाध्य था, उसे उनसे धीरे-धीरे मुक्ति मिल जायेगी. यही स्थिति आगे जारी रहने पर उसे ऐसा भी लगेगा कि अब प्राण गये, अब प्राण गए इत्यादि. इस स्थिति के उत्पन्न होने पर साधक को चाहिए कि वोह उपासना के अनुकूल संकल्प करे; शास्त्रों में जिसे शिव-संकल्प की संज्ञा दी गयी है.
(१०) जापक को यह भी चाहिए कि अब तक पराभक्ति से जपनिष्ट रहते हुए प्रारब्ध-वश, देहाभिमान रूपी सागर की भीषणत़ा पर मालिक से इसके बंधन छूटने के लिए विनय, प्रार्थना करें और मोह, अहंकार आदि मानस-रोगों के आक्रमणों से बचने के लिए गिड़गिड़ाएँ.
(११) अपने प्रभु से गिडगिडाते समय जापक को चाहिए कि वोह उससे अति-सामीप्यता की उष्णता को अनुभव करे और अपने प्रभु की दिव्य-सेवा की मानसिक भावना करे. यह भी अनुभव करे कि अपने स्वामी की अंकपाश में स्थित इस दीन-हीन के ह्रदय में स्थित जो भी इच्छाएं हैं वे समूल नष्ट हो रहीं हैं और उनके स्थान पर प्रभु-प्रेम और दिव्य-प्रकाश भरता जा रहा है.
(१२) जापक को चाहिए कि धीरे-धीरे अपने प्रभु से अनुराग की स्थिति प्राप्त हो जाने पर सहज भाव से यह विचारे कि हे भगवान्! तू ही तू है! न मैं हूँ न यह संसार, केवल तो ही है. इसी विचार में अपने आप को विलीन करें.
इसी अनुक्रम में वे नियम, जिनका कि पालन जाप के उपरान्त करना है, इस प्रकार हैं -
(०१) जाप के उपरान्त कुछ समय तक उसी मुद्रा में शांत बैठे रहना चाहिए.
(०२) तृष्णा या प्यास को रोके रखना चाहिए. शीत हवा और शीत जल से ह्रदय की उष्णता जाती रहती है और त्वचा के छिद्र-मुख यकायक खुल जाने से 'सर्दी' हो जाने का भय रहता है.
(०३) यदि एकेश्वर-वाद के मूलमंत्र का जाप - "कल्मए-तौहीद" (जो कि परमपिता परमात्मा के श्री चरणों में अलौकिक प्रीति का परिचायक है) किया है और प्रभु से लगाव पैदा होने के संकेत द्रष्टिगोचर नहीं हुए, तो यह इस परिणाम का सूचक है कि जाप का अभ्यास विधि-विधान-पूर्वक नहीं किया गया है और मध्य में कहीं न कहीं कोई त्रुटि आ गयी है अतः उसे निर्दिष्ट विधि पूर्वक पुनः आरम्भ कर देना चाहिए.
जाप में कुछ नामों का प्रयोग करते हैं या कुछ नामों के सहारे जाप करते हैं. ये नाम सूफी सिलसिले में अरबी भाषा के शब्द होते हैं. हज़रत शाह हकीमुल्लाह साहेब जहानाबादी एक असाधारण संत हुए हैं उनका मत है कि जाप में प्रयोग करनें के लिए सभी को अरबी शब्द प्रस्तावित करना अनिवार्य नहीं है. उनके अनुसार, जो अभ्यासी हिन्दू हों, उन्हें हिंदी के नाम (ॐ, राम, शिव आदि) बतलावें. इसी प्रकार जो ईरानी हों उन्हें फारसी के,
जो बंगाली हों उन्हें बँगला के और जो अँगरेज़ हों उन्हें अंग्रेज़ी के शब्द बताने चाहिए.
नामी से नाम की पहचान हुआ करती है. नाम दो प्रकार के हैं - पहला साकार और दूसरा निराकार. साकार नाम में, नामी के गुण, बीज-रूप में सम्मिलित रहते हैं. निराकार नाम में नामी के गुण, शाख, टहनी और फल-फूल के सद्रश्य प्रत्यक्ष और प्रकट रूप में स्थिर रहते हैं. यहाँ पर थोड़ा रुक कार विषयगत संकल्पना को स्पष्ट कर लें कि नामी के बीज-रूप गुणों का ज्ञान किया जाता है और उसके सार-तत्व अथवा गूदे का साक्षात्कार करना होता है. दिव्य पवित्र और शुद्ध सारतत्व और गूदे का अनुशीलन से तात्पर्य है कि 'ॐ' नाम से संलग्नता स्थापित होते ही सर्जन करने वाला, पालन-करता और संघारक अर्थात उस परम सत्य के भंडारण में पुनः वापस ले जाने वाले की स्मृति आ जावे. इसी प्रकार शब्द 'अल्लाह' की संलग्नता स्थापित होते ही वैसी ही पुनरावृत्ति हो; मात्र भाषा का अंतर रहे - सृजक, पालक और संघारक के स्थान पर, 'खालिक', 'रब्ब' और 'मालिक-मौम्मिद्दीन' की स्मृति का मूल भी वही है.
हज़रत शेख सरफुद्दीन यहिमुनेरी (परमात्मा की उन पर दया हो) का कथन है की जाप की चार रूप-रेखाएं हैं -
(०१) ईश्वर के नाम का जाप, जिसके मूल और गूढ़ तत्व एवं सत के भण्डार विश्लेषण हैं, जिह्वा से तो होता है किन्तु हृदयंगमता की स्थिति नहीं हो पाती, ह्रदय बेसुध और असावधान रहता है.
(०२) जिह्वा जाप कर रही है, ह्रदय भी उसी में लगा है, उसके अनुकूल है किन्तु ह्रदय बीच-बीच में बेसुध और असावधान हो जाता है, यों तब भी जिह्वा का जाप चलता रहता है.
(०३) तीसरी स्थिति में जिह्वा ह्रदय के साथ और ह्रदय जिह्वा के साथ और दोनों एक-दुसरे के अनुकूल होते हैं किन्तु बीच-बीच में दोनों ही बेसुध और असावधान हो जाते हैं.
(०४) चतुर्थ स्थिति यह होती है कि जिह्वा बेसुध और क्रिया-हीन होती है किन्तु ह्रदय, उपस्थित, सावधान और जाप में निरंतर तल्लीन रहता है. यह उत्तम जाप की स्थिति का द्योतक है. इस समय करता की भूमिका का निर्वाह, विद्यमानता और चेतना करती है.
ह्रदय का निरंतर अपने कार्य पर उपस्थित व सावधान रहना और यह जानकारी रहना कि जाप चल रहा है, विद्यमानता (हुजूरी) कहलाता है. चेतना (आगाही), जानकारी और ज्ञान का दूसरा नाम है. यही जाप की सत्ता है. जाप करने वाले को इस अवस्थान (मुकाम) में भी यह प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है कि वोह अपनें ह्रदय के शब्द को सुनता है और जाप करने वाले के अतिरिक्त कोई दूसरा उस ध्वनि को नहीं सुन सकता.
जाप के अनेक वर्ग एवं प्रकार हैं. यों तो जाप करने के लिए कोई भी जाप किया जा सकता है, किन्तु अनुभव से यह स्पष्ट हुआ है कि एक प्रकार का जाप, दूसरे से अच्छा हो सकता है या अधिक लाभदायक फल का द्योतक हो सकता है. अनेक संतों ने जाप की क्रिया और उसके विधान को अपनें-अपनें ढंग से बताया है. इसी क्रम में एक अच्छा और प्रभावी विवरण, श्रीमन अबू अब्दुल रहमान (ईश्वर उन्हें चिरायु और अपनी कृपा दें) का द्रष्टिगत हुआ है. वह कहते हैं कि जाप अनेक प्रकार के हैं, उनमें एक जिह्वा का जाप है, जिसको सब जानते हैं. दूसरा जाप ह्रदय का है, जो मानसिक है. यह जाप निकृष्ट विचारों, दुविधा और भ्रमों को दूर करनें वाला है और इसके मालिक के नाम के जाप में हृदयगमता आती है.
इसके अतिरिक्त एक और प्रकार का जाप है, जिसे 'शेष-जाप' कहते हैं. इस जाप को करने से अंतःकरण में कुछ ऐसी भावना का संचार होता है कि यदि किसी कुविचार या भय के ह्रदय में आनें की संभावना भी हो तो कदाचित वह फलीभूत न हो सके. इससे स्पष्ट होता है कि 'शेष जाप' (ज़िक्रे-सिर्र) ह्रदय के जाप का प्रतिफल है. 'शेष' (सिर्र) एक चक्र या अवस्थान का नाम है, जो ह्रदय-चक्र के ठीक ऊपर स्थित है. स्थिरता व द्रढ़ता, इसी 'शेष-चक्र' के कारण आती है. एकटक चैत्य सत्ता की आवेग-मई स्थिति (तवज्जो: का लग जाना) हो जाना और उस एक चरम लक्ष्य के अतिरिक्त, कोई आकर्षण शेष न रह जाना, सारे भाव और विचारों का मिट जाना, इसी 'शेष चक्र' की विशेष उपलब्धि है. जब तक यह चक्र पूर्ण-रूप से नहीं खुलता, उस समय तक ऐसी स्थिति नहीं आती कि स्वम को ऐसे भूल जायं कि कुछ याद न रहे, सिवाय इसके कि उस चरम लक्ष्य की ओर द्रष्टि लगाए बैठे हैं.
ह्रदय चक्र पर किये जाप में निरंतर और हर समय उलट-फेर और चक्कर लगा रहता है जिसका कारण यह है कि इसमें स्थिरता व दृडता (हुज़ूरे दायमी) नहीं हो पाती.
एक और चौथे प्रकार का जाप है, जिसको आत्मा का जाप (ज़िक्रे रूह) कहते हैं. इस जाप में जाप करने वाले की अपनी लाक्षणिकता (सिफत) मिट जाती है, तात्पर्य यह है कि जाप करने वाले का यह भाव मिट जाता है कि जाप का करना मेरा कार्य है अथवा मैं जाप कर रहा हूँ, क्योंकि जब उसके सामने सिवाय एक लक्ष्य, जिसको कि ईश्वर कहते हैं शेष सभी वस्तुएं द्रष्टि से हट जाती हैं, और अन्य कुछ शेष नहीं रहा, तो जाप करने वाले का यह ध्यान बंध जाता है कि परमात्मा स्वम ही जाप कर रहा है. जब ऐसी मनोदशा हो जाती है, तो जाप करने वाले का न जाप शेष रह जाता है, न अवस्था न विवरण, न उसका गुण और न उसकी कैफियत ही शेष रह जाती है.
यह मनोंदशा, सत्संग में प्रायः हो जाया करती है कि सत्संग प्रारम्भ करते समय तो ह्रदय जाप करता हुआ मालूम होता है किन्तु कुछ समय पश्चात, शब्द इत्यादि की अनुभूति नहीं होती जिसकी शिकायत प्रायः लोग अपनी अनिभिज्ञता के कारण किया करते हैं और इसको दोष या हानि की संज्ञा भी देते हैं.
जिह्वा-जाप, अर्थात जो जाप जिह्वा से किये जाते हैं ये निःस्वर भी होते हैं और ऊंचे स्वर से भी. इसको स्वर-मूलक जाप (ज़िक्र लिसानी) कहते हैं. ये जाप, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त और प्रगट, अर्थात प्रत्येक चक्र पर किये जा सकते हैं और शब्द के माध्यम से संपन्न होते हैं. इसमें अक्षरों को मूर्त रूप दिया जाता है और यह भी होता है कि कभी एक अक्षर के पहले उच्चारण करते हैं और कभी उसी अक्षर के बाद में. इसे अतीत और अनागत कहते हैं. शब्द में अक्षरों के उच्चारण करते समय जो तरंग और ठहराव इत्यादि होता है, यह पूर्ण रूप से व्यवस्थाबद्ध है. यदि इन अक्षरों का ध्वनि से संसाधित करते हुए उच्चारण करें तो ये शब्द ध्वनित (जिहर) कहलाते हैं और यदि इनका उच्चारण ध्वनि-रहित, निःशब्द रूप से, अर्थात स्वं के अतिरिक्त कोई दूसरा न सुन सके उन शब्दों को 'गुप्त' (ख़फी) की संज्ञा दी जा सकती है. यहाँ पर गुप्त उस शब्द का विशेषण है जिसकी कि व्याख्या ऊपर की जा चुकी है, अर्थात, शब्द जो दिया हुआ, न कि किसी चक्र-विशेष का नाम.
ह्रदय का जाप और मानसिक जाप में शब्द के आकार को बार बार याद करना होता है या उस नाम के नामी को अंतःकरण में अपने सामनें आभास करना होता है; इसकी साधारण क्रिया यह है कि अक्षर के आगे और पीछे अर्थात अतीत और अनागत का कुछ विचार न किया जाय प्रत्युत एक बार उस नाम के अक्षरों एवं उसकी तरंगों व ठहराव को अपनी धारणा शक्ति से समाविष्ट कर लें.
'आत्मा का जाप' की क्रिया का सार यह है कि उस नाम को ही भूल जाय जिसका कि जाप किया जाता है किन्तु उस नाम के नामी (स्वामी) को धारणा शक्ति में प्रतिष्ठित और प्रकाशित करें. इसका उदाहरण यह है कि अक्षर इत्यादि जिनसे कि उस नाम की रचना हुयी है, स्मरण नहीं रहते, प्रत्युत ईश्वर की स्मृति शेष रह जाती है.
कतिपय ब्रह्मज्ञानी अपनी अभिशंसा इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जिह्वा का जाप के माध्यम से, स्वतः ही 'ह्रदय का जाप' कि स्थिति को प्राप्त कर लेता है; अर्थात उसके 'ह्रदय का चक्र' जाग्रत हो जाता है. किन्तु यह तभी संभव है जब जिह्वा और ह्रदय दोनों 'एकनिष्ट' हो जायं और तब कोई संदेह नहीं कि जाप धीरे-धीरे अपने अभीष्ट को न प्राप्त कर ले.
नक्श्बंदिया सिलसिले में आत्म-शक्ति आत्मसात (जज्बेबातिन) भाव से 'ह्रदय का जाप' पर भरोसा करते हैं. प्रारम्भिक अभ्यासी अपनी यात्रा, जाप की उस उच्च अवस्था से प्रारम्भ करते हैं, जिससे कि हमारे यहाँ के साधू, भली भांति परिचित हैं. इस सिलसिले के नवशिक्षित और प्रारम्भिक अभ्यासी ही ह्रदय का जाप यानि, मानसिक जाप के माध्यम से विराट-रूप और देश से उनका सम्बन्ध हो जाता है, जब कि दूसरे सिलसिलों के पराकाष्ठा को प्राप्त अभ्यासी ह्रदय का जाप में उसी स्थिति को प्राप्त हो पाते हैं.
यहाँ कुछ जापों का विधान दिया जाता है. यह आवश्यक नहीं कि असंख्य प्रकार के जापों का विवरण दिया जाय, या ध्यान एवं समाधि की भांति-भांति की विधाएं और उनकी विवेचना लिख दी जाय, क्यों कि इस पुस्तक को लिखनें का मात्र यह प्रयोजन नहीं है; प्रतुत बस इतना ही प्रयोजन है कि अनेकों में से कुछेक वे जाप जो सार-रूप हैं और अवधान (मुराकिबः) की उन युक्तिओं को, जो कि सर्वहितकारी, उपयोगितामूलक और चरित्र-निर्माण में हर प्रकार से सहायक हों, लिख दी जायं; क्यों कि जब कोई आध्यात्मिक स्वर्ग की ओर चढ़ती हुई उच्चतर चेतना का अनुभव करेगा तो नीचे की सीढ़ियों - क्रमशः प्राण, मन और अधिमन की स्थितियों को वोह सहज और स्वतः ही प्राप्त कर लेगा.
तुम्हे जिस वस्तु की आवश्यकता है; वोह है चेतना, सदैव अधिकाधिक चेतना, शुद्ध, सरल और ज्योतिर्मय चेतना. इस प्रकार की पूर्णत्व को प्राप्त चेतना के प्रकाश में तुम्हे वस्तुएं अपने वास्तविक स्वरूप में द्रष्टिगोचर होंगी; न कि जैसी वे अपने को दिखाना चाहें. यह प्रकाश एक चित्रपट की भांति होता है जो सामने से आती-जाती हुई वस्तुओं को ज्यों का त्यों दिखा देता है. वहां तुम देख पाते हो कि कौन सी वस्तु ज्योतिर्मय है और कौन सी अंधकारमयी, इत्यादि इत्यादि. तुम्हारी चेतना एक चित्रपट या दर्पण बन जाती है; पर यह तब होता है जब तुम चिंतन-मनन (ज़िक्र और फ़िक्र) की अवस्था में केवल द्रष्टा मात्र रहते हो: जब तुम सक्रिय हो तो यह चेतना खोज-बत्ती (search light) की जैसी हो जाती है. यदि तुम्हे किसी वस्तु को स्पष्ट और निर्दोष देखना हो और उसकी तात्विक विवेचना (जांच पड़ताल) करनी हो तो बस इस खोज-बत्ती को उस वस्तु की ओर कर दो.
इस प्रकार की पूर्ण चेतना को प्राप्त करने का उपाय है, अपनी वास्तविक चेतना को उसके वर्तमान घेरे और सीमा से बाहर निकाल कर विशाल बनाना, उसे शिक्षित करना, उसे भागवत-ज्योति की ओर खोलना और उसमें भागवत-ज्योति को स्वतंत्र और स्वछन्द रूप से कार्यान्वित होने देना. परन्तु ज्योति अपना पूरा-पूरा और अवाधित कार्य तभी कर सकती है, जब तुम समस्त भय और लालसाओं से मुक्त हो जाओ, जब तुम्हारे अन्दर कोई भी मानसिक पक्षपात न हो, कोई प्राणमय रूचि न हो, कोई भौतिक आकांक्षा या आकर्षण न हो जो तुम्हे तम्साछन्न करे या बंधन में बांधे.
यह जान लेना नितांत आवश्यक है कि शंका या भ्रम जो मन-मानस को अपने निज-रूप में स्थापित नहीं होने देते, वे चार प्रकार के होते हैं - अर्थात ये भ्रम तुम्हे चार प्रकार से दुविधा में डाल सकते हैं, उससे उभरने नहीं देते - (१) वोह तमोगुणी शक्ति है जो हमें अनेक प्रकार से बहकाया करती है तथा जो अहंकार, क्रोध, वैर-भाव, प्रशंसा ईर्षा इत्यादि गुणों की जननी व पोषक है, (२) दूसरा भ्रम विषय-वासना संबंधी है; जो इच्छा, काम-वासना, परिग्रह, अह्मंय्ता जैसे अनेक दुखों के कारण का पोषक है, (३) तीसरा भ्रम; दैविक (मलकी) है; जिसका सम्बन्ध देवताओं से है, इससे सदाचरण संबंधी विचार उत्पन्न होते हैं; जैसे पूजा-पाठ, व्रत-उपवास इत्यादि अनुष्ठानों के संकल्प-विकल्प, (४) चौथा भ्रम ईश्वर संबंधी (रहमानी) है, इससे निश्छलता आती है, अर्थात अन्दर-बाहर एक जैसा हो जाना, प्रेम और लगाव होना और परमात्मा के मिलने की इच्छा तीव्र होना.
बाएं घुटने की ओर तमोगुणी शक्ति (शैतानी खतरे) जो हमें बहकाया करती है, उसकी आशंका को दूर करने की यद्र्च्छा (मौक़ा) है, क्यों कि यहाँ पर उसके निवास का स्थान है और दाहिने घुटने के स्थान पर विषय-वासना (इच्छा या नफसानी) संबंधी विचारों का निवास है, अतः यहीं से इनका विकर्षण करते हैं.
आदमी को बहकाने और उसे सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होने से हटा देने तथा विघ्न उपस्थित करने में विषय-वासना (इच्छा) और तमोगुणी शक्ति दोनों का बराबर का साझा रहता है. दाहिना कंधा (इच्छा और तमोगुणी शक्ति के लिए) देवी आशंका के दूर करने की यद्रच्छा (मौक़ा) और स्थान है जहां अन्यथा दाहिना फ़रिश्ता और देवता अच्छे संस्कार बनाने को रहता है. इसी प्रकार ह्रदय का आकाश, दैवी आशंका के रहने का स्थान है. यही कारण है कि चौमुखा-जाप उपयुक्त समझा गया है. इसका क्रिया-विधान इस प्रकार है -
- एक छोटी कोठरी हो, जिसमें अन्धेरा हो. सिद्धासन पर बैठें और पीठ सीधी रक्खें, आँखों को बंद कर लें, दोनों हाथों को दोनों जाँघों पर रक्खें. दाहिने पाँव के अंगूठे और उसकी उंगली (जो उससे मिली हुई है)से बांये पाँव की रग के मॉस की ओर से पकड़ें, ताकि क़ल्ब (दिल) को कुछ ऊष्मा का भास् हो. ऐसा करने से जहां एक ओर स्पष्टता या सफाई (cleaning) के भाव जाग्रत होते हैं, वहीं दूसरी ओर उस चढ़े हुए अनेक भ्रम और द्वन्द्वावस्था जैसे आवरण छट जाते हैं. उसके बाद मनोमय सत्ता और प्राणमय सत्ता को एकाकार करके, जैसा समय हो, ध्वनिक अथवा निर्वाक (जैसी रूचि और आदत हो) जाप में लग जाँय. जाप के मध्य निम्नलिखित युक्तियों का पालन करें -
(१) गुरदेव का एकनिष्ठ सानिध्य;
(२) ईश्वर का आश्रय;
(३) उसके गुणों को स्मरण रखना अर्थात सजीवता, ज्ञान, शक्ति, संकल्प, जो कि सुनने, देखने, और बोलने वाले देवताओं के प्रतीक हैं, उनको ध्यान में रखना और
(४) प्रग्याघात (ज़रब या ठोकर लगाना).
इसका अनुक्रम (तरकीब) यह है कि "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर, बाएं घुटनें से प्रारम्भ करते हुए, इसे आवेग के साथ ऊर्ध्वगामी गति दें; इसी आवेग के प्रवाह को "इलाह" (पूजा के योग्य) कहते हुए दाहिने कंधे तक और पुनः यहाँ से प्राणमयी सत्ता के आवेग को "इललिल्लाह" (सिवाय उस परमात्मा के) कहते हुए समग्र श्रद्धा को ओज को ह्रदय पर उतारें. इसका नाम "चौमुखा-जाप" (विकर्षण चतुष्ठय) या "नफी अस्बात ज़िक्र-चहार-ज़र्बी" है.
किन्तु हमारे गुरुदेव ने हम लोगों को इसे करने का इस प्रकार निर्देश दिया है कि - निर्दिष्ट स्थान पर विधि-पूर्वक आसन ग्रहण करके जिह्वा को निष्प्रभावी करके, और दोनों आँखों को बंद करके, पुनः चित्त को एकाग्र करके "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर इसे नाभि के स्थान से ऊर्ध्व-गति देते हुए ऊपर उठावें और मनोमय-सत्ता के चरम बिंदु तक ले जा कर, पुनः "इलाह" (कोई पूजा के योग्य) कहते हुए इसी प्रवाह को दाहिनें कंधे की ओर ले जायं, पुनः "लिल्लिल्लाह" (सिवाय उस ईश्वर के) कहते हुए प्रवाह को, बाईं ओर ह्रदय पर प्राणिक आवेग के साथ छोड़ दें. साथ ही उनका यह भी आदेश था कि "नहीं है कुछ" के भावावेग को मनोमयी सत्ता की प्रतिष्ठा में संप्रेषित करते समय इस भावना को आकार दें कि जो कुछ भी दृष्टिगोचर है, अस्तित्व-हीन है, कुछ नहीं है; "न मैं हूँ न यह संसार". और दाहिनें कंधे की ओर "इलाह" के भावावेग को ले जाते समय इस भावना को आकार दें कि - "हाँ यदि कुछ सत्य और उसका अस्तित्व है, तो वोह परमात्मा है", केवल परमात्मा. इसी क्रिया का ऐसा अटूट भाव (तातां बाँध दें) प्रवाहित होने दें कि बेसुध हो जायं.
जिक्र दो-ज़रबी (दोमुखा या द्विक जाप) का अनुष्ठान यह है; कि प्राण की प्रत्येक गति (हर सांस) के साथ दाहिने कंधे पर "ला इलाह" (नहीं है कुछ) का एक आवेग, और ह्रदय के ऊपर "इल्लिल्लाह" (सिवाय परमात्मा के) का दूसरा आवेग प्रवाहित करें. जब तीन, पांच या नौ क्रम पूरे हो जाँय तो एक बार इसी आवेग के प्रवाह को "मोहम्मद रसूलिल्लाह" (परमात्मा के अग्रदूत) को समर्पित कर दें. "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति", महा मन्त्र का ही यह संभवतः क्रियान्वित स्वरूप है; अर्थात न मै हूँ, न यह संसार; सभी कुछ नाशवान है, जो अंत में शेष रह जायगा वोह केवल परमात्मा रहेगा. अस्तु इस संसार में कुछ नहीं है सिवाय मेरे "माबूद" (पूज्यनीय) के अर्थात जिस के आगे मैं नतमस्तक हुआ हूँ, जिसकी उपासना की है, वोह तू है. पुनः जो कुछ दिखाई देता है, वोह सब नाशवान है, सिवाय उस "मक़सूद" (परम लक्ष्य) के अर्थात, मेरी प्राणिक इच्छा का केंद्र तू ही है. इसके बाद कुछ शेष नहीं रह जायगा, सिवाय तेरे जो तू उपस्थित और वर्तमान है, जो कुछ शेष रहेगा वोह तू है.
प्रभु के दो स्वरूप माने गए हैं - साकार और निराकार. निराकार; नाम, रूप, रस, रंग, गंध से परे है, जब कि साकार इन सभी गुणों से युक्त है. निराकार का कोई निश्चित स्वरुप नहीं होता और स्वम अपना आधार है. साकार नाम, रूप और गुण के विशेषणों से युक्त है. वोह नाम, रूप और गुण; रज, तम और सत; ब्रह्मा, विष्णु, महेश के माध्यम से अभिज्ञेय है. परा-प्रकृति और अपरा-प्रकृति मय, आत्मा के मिलौनी से जीवात्मा का अभिधान होता है. महततत्व, प्रथम उद्भव है. इसमें समस्त गुण विद्यमान हैं. वस्तुतः बुज़ुर्ग (प्रतिष्ठित) मुसलमान, इसको हज़रत मोहम्मद (श्रद्धा के विद्यमान प्रतीक) जो कि रसूल्लिल्लाह (ईशदूत) हैं, यह भावना करके कि उनपर ईश्वर की दयालुता और कुशलता हो; वे अपनी पूजा के एक निश्चित स्वरुप की स्थापना करते हैं. इसी सिद्धांत के अंतर्गत, इस जाप के पूर्व चरण में शुद्ध निराकार का जाप निर्दिष्ट करनें के उपरान्त अंत में किसी साकार का एक बार जाप बतलाते हैं; जिसका उद्येश्य यह है कि पहले निराकार है बाद में साकार. यह क्रम नीचे ऊपर की ओर जाता है इसी क्रमानुसार पहला चरण, दुनियाँ और तब प्रकृति है जिसका आधार महततत्व है. सांख्य के अनुसार प्रकृति का प्रथम कृत्य अहंकार (की उत्पत्ति) है. इसका तर्क यह है कि जीव और शरीर दोनों का अस्तित्व परस्पर एक-दूसरे पर आधारित है; भूमि और स्वामी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, स्वामी-हीन भूमि, भूमि की श्रेणी में नहीं आती. जाप में भी में भी इसी सिद्धांत के अनुसार, निराकार और साकार, दोनों का ही समावेश समीचीन समझा गया है. यही कारण है कि "दो-मुखा जाप"और "चौमुखाजाप" की तुलना में है "दो-मुखा जाप" अधिक उपयोगी है क्यों कि इसके अनुष्ठान में बाधाएं और विघ्न आढ़े नहीं आते और न ही चित्त उचाट खाता है, समचित्तता बनी रहती है; प्रत्युत दूसरे जाप के अनुष्ठान-विस्तार में निर्दिष्ट मानसिक स्थिति बनाए रखने में कठिनाई होती है.
जिह्वा का जाप - (ज़िक्रे-लकलकः) का अनुष्ठान बहुत ही सीधा-सादा है; वोह इस प्रकार है कि - "अल्लाह" या "ॐ" शब्द का उच्चारण, धीरे-धीरे, बहुत थोड़ा मुँह खोल कर, अथवा अधरों को सटा कर फुस्फुसाएं. कुछ लोग इसकी क्रिया के मध्य प्राणवायु को रोक लेने की सलाह देते हैं, जब कि अन्य लोग ऐसा आवश्यक नहीं समझते.
"ज़िक्क्र सह्पाया" या "त्रिपदी जाप" - अर्थात तीन चरणों में जाप; इसकी तुलना तिपाही से की जा सकती है, जिसमें तीन टांगें हों; तीन में से यदि एक टांग भी न रहे तो यह खड़ी नहीं रह सकेगी, गिर जाएगी. ठीक यही सिद्धांत इन तीन चरणों की उपयोगिता का है और इसी आधार पर इसका नामकरण किया गया है, अस्तु जाप के तीन चरणों में से एक में भी शिथिलता आने पर अनुष्ठान अधूरा रह जाएगा.
- प्रथम चरण में प्रभु का वोह नाम जो त्रिगुणातीत है, उसका जाप करें; अखंड ज्योतिमय ब्रह्म जो कि शाश्वत सांत्वना का उद्गम है, उस परम तेजस्वी मंडल का मनन करें. (इस्मे-ज़ात)
- द्वितीय चरण में उस नाम का मनन करें जो तीनों का स्वामी है अर्थात वोह ज्ञानी, सुननें वाला, देखनें वाला है; जाप के मध्य उसके गुणों पर चैत्य (अपने मानस) को केन्द्रित करें. (इस्मे-सिफात)
- तीसरे का सम्बन्ध पूर्ववर्ती दोनों चरणों के मध्य का है. इसमें गुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य को चैत्य में केन्द्रित करना होता है.(बरज़ख) इस जाप की साधना सात-सूत्री है; सभी सगुनात्मक हैं और इसमें जिज्ञासु में निरंतर रसानुभूति और अभीप्सा पनपती रहती है.
(१) सदगुरुदेव का एकनिष्ठ-सानिध्य, यह सम्बन्ध साधने का उत्तम मार्ग है.
(२) "अल्लाहू" या "ॐ" का जाप करना.
(३) 'अलीम', 'समीअ', 'वसीर'; अर्थात "वोह समस्त जगत को जाननें वाला, सुननें वाला, देखनें वाला है" इन भावनाओं, संवेदनों का मनन करना.
(४) "अल्लाह" के 'अलिफ़' को अथवा "ॐ" के 'ओ' (अ + उ) की पर्याप्त ऊंची अलाप लें और उसे प्राण की क्रिया-पद्यति से चैत्य की उच्चतर चेतनां में केन्द्रित व स्थापित करें.
(५) "ॐ" शब्द की स्वनिक संरचना में स्थित हमजा (बलाघात) को संकल्प-शक्ति और ऊर्जा से एकाग्र करके नाभि-चक्र से प्रारम्भ करना.
(६) "ॐ" शब्द की अलाप के अंतिम चरण को ले जा कर मानसिक मंडल में स्थापित करना.
(७) "ॐ" शब्द के उच्चारण की आवृत्ति को गति देना.
उपरोक्त कुल अनुष्ठान को, और उसके उक्तियों को अपने गुरुदेव से व्यक्तिगत रूप से समझ लेना चाहिए व उनकी आज्ञा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए, क्यों कि मात्र पुस्तकों और लेखों के सहारे धारणा का निर्माण और उसकी पुष्टि संभव नहीं होती, अतः अत्यंत सावधानी की आवश्यकता रहती है.
"ॐ" शब्द में स्थित स्वानिक बलाघात को कल्पनाशक्ति और प्राणिक ऊर्जा से एकाग्र करके, नाभि-चक्र के स्थान से, ऊर्ध्व गति देते हुए, बक्ष-स्थल पर केन्द्रित करें और शब्द (ॐ) का मानसिक भावना से उच्चारण करें, साथ में भावना करें कि वोह ही श्रोता है; पनाह पूर्व बतायी गयी क्रिया दोहराते समय भावना करें कि वोह ही द्रष्टा है, इसी प्रकार क्रिया की तीसरी बार पुनरावृत्ति करें और भावना करें कि वोह ही ज्ञाता है. यह उत्कर्ष साधना (चढ़ाव) कहलाती है.
इसके पश्चात पूर्व-लिखित क्रिया को पुनः दोहरायें किन्तु क्रम उलटा कर दें, अर्थात 'ॐ' के स्वनिक जाप के मध्य अलग-अलग की जाने वाली भावना के क्रम - श्रोता, द्रष्टा, ज्ञाता के स्थान पर ज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता के उच्चारण और अर्थ के सहित करें. यह अधः स्वस्तिक (उतार) साधना है.
पूर्वलिखित क्रिया के दोनों क्रम अर्थात उत्कर्ष-साधना और अवकर्ष स्वस्तिक साधना की बार-बार पुनरावृत्ति प्राणायाम के मध्य करें. ऐसा बार-बार करें और करते जायं; बढ़ाते-बढ़ाते इसकी संख्या, यदि कर सकें तो ढाई सौ तक ले जायं, क्यों की आशय यह है कि चैत्य में इतनी पर्याप्त ऊष्मा और ऊर्जा का संचार हो जाय कि उठने वाले सभी संकल्प-विकल्प उसके ताप से प्रभावित हो कर दग्ध एवं भस्म हो जायं, धीरे-धीरे समचित्तता आ जायेगी.
अधःस्वस्ति और उत्कर्ष (उतार-चढ़ाव) साधनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति परिलक्षित करना अपने आप में में विशेष महत्व रखता है और उसका रहस्य यह है कि सुनने का मंडल, देखने के मंडल से कम है और देखने का मंडल, जानने के मंडल से कम है. यही कारण है कि अभ्यासी प्रथम प्रतिश्रुति में बुद्धि और साक्षी-भाव की प्रतिष्ठा में स्थित होता है; जो कि दूसरी प्रतिष्ठाओं की अपेक्षा अधिक संकीर्ण है और स्थूल का द्योतक है इसके बाद जब वोह अपनी श्रवण-शक्ति को गति देगा तो इससे बढ़ कर सूक्ष्म अवस्था को पहुंचेगा, जो कि पूर्व स्थिति से उच्चतर प्रतिष्ठा का द्योतक है. तीसरा क्रम द्रष्टि की क्रिया-शक्ति का है, जिसकी कि प्रतिश्रुति, कारण अवस्था में प्रतिष्ठित कराती है. इसी प्रकार विज्ञ-केंद्र की परिधि (जाननें का दायरा) का विस्तार करें और पनः बार-बार इसी क्रम को दोहराएँ (उलट-पलट करता चले). इसमें विशेष सावधानी की आवश्यकता है कि सद्गुरु देव के आदेश के बिना यह अभ्यास न करें; जब उनकी दया होगी तभी इस जाप के रहस्य का उदघाटन होगा अन्यथा मात्र पुस्तकीय-ज्ञान से यह संभव नहीं है .
इस उलट-फेर के सारांश को समझनें के लिए देखें कि किस प्रकार गीता में आत्म-रूप दर्शन और विराट-रूप दर्शन का भाव समझाया गया है; कि एक ओर तो आत्मा का मंडल सब तत्वों के ऊपर है और पुनः दूसरी ओर से आत्मा का मंडल सब तत्वों के नीचे है.
इसकी व्याख्या नक्श्बंदिया-सूफी संतों ने अपनी शब्दावली के माध्यम से इस प्रकार की है कि, "मर्तब:इमकान", जिसे संभावना की प्रतिष्ठा या संभावना-मंडल कह सकते हैं, यह दो भागों में विभक्त है; एक भाग अर्श-मजीद (प्रतिष्ठित आकाश) के ऊपर और एक भाग उससे नीचे है. ऊपर वाले भाग का नाम "आलमे-अम्र" (कर्म-लोक) है और नीचे वाले भाग का नाम "आलमे-ख़ल्क़" (उत्पत्ति-लोक) है. कर्म-लोक केवल ईश्वरीय आदेश से यकायक उत्पन्न हो गया 'उत्पत्ति-लोक', शनैः शनैः अपनी स्थिति व आकार में आया. कर्म-लोक केवल, "लतीफ़ व नूरानी" (पवित्र व उज्वल) है और उत्पत्ति-लोक मलिन व तिमिर है. परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को सारे प्राणी-वर्ग में सबसे श्रेष्ठ और कुल श्रष्टि उसमे प्रकट और प्रतिबिंबित कर दी; वोह इस प्रकार कि दस विभिन्न-तत्व जो इन दोनों लोकों में हैं, उन सब का प्राकट्य इसमें (मनुष्य) स्थित कर दिया. इनमें पांच तत्व (चक्र) अर्थात, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त, प्रकट, कर्म-मोह के और पांच तत्व अर्थात इच्छा (काम) मृतिका (मिट्टी), जल, पवन, अग्नि, उत्पत्ति-लोक के हैं. सूफी संतों की भाषा में इन्हें "लतीफा" कहते हैं. ईश्वर की यह परम अद्भुत लीला है कि उसने कर्म-लोक के भी पवित्र व उज्वल तत्वों को मनुष्य के तिमिर ढाँचे में स्थित कर उन्हें शारीरिक मनो-विनोद व स्वाद का ऐसा आसक्त किया कि वोह अपने परमार्थ और परात्परा-सत्ता के स्पर्श-सुख से विस्मृत हो गए. अपने उदगम की ओर उनका कोई ध्यान या स्मृति ही शेष नहीं रह गयी.
अब शब्द (जप) की जाग्रति व ध्यान और सदगुरुदेव का संपर्क और संस्पर्श, इत्यादि से आशय यही है कि ये चक्र जो निश्चेष्ट पड़ें हैं, जाग्रत हो जायं, अपनी सत्यता से परिचित हो जायं, और अपने उद्गम की ओर आकृष्ठ हों और समुन्नत हो कर तादातम्य के द्वारा सत्य के दर्शन करें.
ये दसो चक्र और उनका अस्तित्व संभावना-मंडल में स्थित है. उसकी स्थिति इस प्रकार समझना चाहिए कि नक्शबंदिया गुरुजनों ने जो अपनी प्रज्ञा द्रष्टि से इस परात्परासत्ता के इक्कीस बिंदु अभिग्यप्त किये उनमें से प्रत्येक बिंदु को मंडल कहते हैं, जिनमे संभावना-मंडल सर्वप्रथम है.
इन "लातायफ़-खम्सः" (पाँचों चक्रों) को क्रमशः बेधना और उसके पश्चात "लतीफा-नफस की सैर" (मनोमय-सत्ता की यात्रा) करना और तब "लाताय्फ़-ए-अर्बा" (चतुर्चक्र) "अनासिर" (पंचभूत - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) पर यात्रा करना जिसको "सुल्तानुल अज्कार" (कुल जापों का राजा) कहते हैं. यह श्रीमन मुज़द्दिद अल्फ्सानी (परमात्मा उन पर प्रसन्न हों) का यह अनुशीलन है. आपके पुत्रों और उत्तराधिकारियों नें संक्षिप्तीकरण के आशय से "लतीफा क़ल्ब" (ह्रदय चक्र) के "लतीफ़ नफस" (शुद्ध मनोमय सत्ता) की यात्रा को स्थिर रक्खा और आदेश दिया कि शेष (बाकी) चक्र इसके गर्भ में परिपक्व हो जाते हैं.
जिसने ब्रह्म-विद्या तत्व और सांख्य-शास्त्र का पर्याप्त चिंतन और मनन किया है वोह ही इसके तत्व-ज्ञान को समझ सकता है. हम देखते हैं कि संध्या करते समय "ॐ" का शब्द पहले कह कर, पुनः "चक्षु-चक्षु"; "ॐ नाभि-नाभि"; "ॐ श्रोत्रम-श्रोत्रम" कहा जाता है.
नाभि-चक्र के स्थान से प्रारम्भ करने से होने वाली (संभावित) हानियों से बचाव के हेतु विशेष ध्यान इस बात पर दें कि जाप प्रतिदिन और बिना नागा करें और खान-पान की ओर विशेष ध्यान दें. यदि व्रत ठीक प्रकार से साध लिया जाय तो हानि की संभावनाओं से बड़ी सीमा तक बचा जा सकता है.
सूफिओं का एक सिलसिला, "सत्तारिया" कहलाता है. इस परम्परा में 'सतनाम' का पाठ निर्वाक भाव से करते हैं और गुण सहित नामों को अपनें ध्यान में स्थापित करते हैं. गुण सहित नाम से तात्पर्य है कि "वोह सुनाने वाला है", "वो देखनें वाला है" और "वोह जानने वाला है". इसके मध्य सदगुरुदेव का एकनिष्ठ सानिध्य नितांत आवश्यक है. "सतनाम" के जाप को 'नाभि' से ऊर्ध्व-गति देते हुए सिर के तालू तक ले जा कर वहां केन्द्रित करते हैं. इसकी दो स्थितियां है. प्रथम स्थिति यह है कि इस जाप को एक 'श्वासोच्छ्वास' के साथ एक बार करते हैं. द्वितीय स्थिति यह है कि इसको श्वासोच्छ्वास की अवधि में एक-सौ बार करते हैं. इस साधना के चढ़ाव और उतार की गतियों की क्रमवार पुनरावृत्ति करें; जैसा कि पूर्वनिर्दिष्ट विधान है. "जुमले कबीर" (परवर्ती) स्थिति का अनुष्ठान जब करें तो ध्यान रक्खें कि सदगुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य के मध्य, प्राणवायु रोक कर जाप करें और इस जाप की क्रिया का उस सीमा तक विस्तार करें कि 'चित्तभूमि' की पंचम स्थिति अपनी निरुद्ध अवस्था को प्राप्त कर ले. (योग में चित्तभूमि की पांच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अर्थात वह अवस्था जिसमें वोह अपनी कारणीभूत प्रकृति को प्राप्त हो कर निश्चेष्ट हो जाता है) जो अभ्यासी अपने सयम के द्वारा निद्रा और क्षुधा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं उनके लिए इस जाप के अनुष्ठान की सिद्धि अति सरल एवं निश्चित है।
ज़िक्र हद्दादी (लोहारी) - "ला इलाह" (नहीं है कुछ पूजा के योग्य) को खींच कर गुरुदेव की शक्ल का ध्यान बाँध कर बाएं तरफ से प्रारम्भ करें और दोनों घुटनों के बल खड़े हो जायं और फिर इल्लिल्लाह (सिवाय उस परमात्मा के) के लफ्ज़ (शब्द-भाव) को खूब जोर से दिल की फिजा (मानस पटल) पर ठोकर लगा कर बैठ जायं. इस क्रिया की उपमा एक क्रिया-शील लोहार की मुद्रा से दी जाती है; जिस प्रकार वह दोनों हाथों से हथौढ़े का प्रयोग लोहे पर भर-शक्ति करता है. इस जाप के आयाम का विस्तार इस सीमा तक करें कि लगाव और आनंद की लहरों में डूबनें लगें. यह एक श्रम-साध्य क्रिया है।
पास-अनफास - जाप - इसकी रीति यह है कि "नहीं है कोई पूजा के योग्य" की शब्दावली प्राणिक-प्रवाह की गति पर बाहर निकालें और शब्दावली - "सिवाय उस परमात्मा के" में लय प्राण-वायु को ऊर्ध्व - गति ऊष्मा दें और प्रत्येक श्वास - प्रश्वास के साथ ऐसा ही करें और इसका तार बाँध देवें तथा आंतरिक-दृष्टि अपनी नाभि पर केन्द्रित करें। इस जाप के आयाम का इस सीमा तक विस्तार करें कि 'सोते-जागते निरंतर यह जाप चलता रहे। इस जाप के अभ्यासी की आयु दो-गुनी हो जाती है।
ज़िक्र - अर्रा, 'पास-अनफास' जाप की दूसरी विधि का नाम है। इसकी रीति यह है कि "ॐ"शब्द की स्वनिक संरचना के बलाघात को ऊर्ध्व-गति देते हुए निर्वाक-जाप 'हरी-ॐ' का करें, और प्राण को इस जाप का आधार बनाएं वोह इस प्रकार की - प्रश्वास की गति पर 'हरि' और श्वास पर 'ॐ' का उच्चारण करें। ऐसा करनें में हृदय की जिव्ह्या को यंत्र बनाएं। इसके तार को टूटनें न दें। इस क्रिया में पर्याप्त का निर्माण होता है अतः बादाम-तेल का प्रयोग करें। इस जाप की सर्वांग -पूर्णता (कमाल) जागृत करें, चित्त की निरुद्ध स्थिति में जाप होता रहे।
चूँकि मूल प्रकृति सब की अलग- अलग होती है. इस लिए जाप करनें वाले अभ्यासिओं की भिन्न विशेषताओं के कारण जाप की भी भिन्न अवस्थाएं द्रष्टिगोचर होतीं हैं. उदाहरण स्वरुप, कुछेक साधकों को शब्द के संचार का आभास कभी होता है, कभी नहीं होता; कुछ की स्थिति इसके विपरीत होती है. ऐसा भी देखने में आया है कि शब्द संचार की अनुभूति अंत तक नहीं हुयी, किन्तु अनायास ही अंत समय में ऐसा स्रोत फूटा, मानों स्वतः प्रवाहित ज्वाला का आवेग (भभूका) ही हो. इस सन्दर्भ में एक ही सत्य है कि अभ्यासियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जाप करने वाले (जाकिर) हैं और जाप करते रहते हैं. यह भी चेतना बनी रहे कि हमारे और उसके, जिसका कि हम ध्यान करते हैं; जाप आवश्यक है.
सबसे उत्तम श्रेणी का जाप यह है का नामो-निशान भी मिट जाय और जिसका कि जाप किया जा रहा है, मात्र वह ही द्रष्टिगत रहे. धीरे-धीरे बाद में जाप से उत्पन्न आनंद भी जाता रहे. और उसकी अनुभूति भी शेष न रहे.
"जाप मरे, अजपा मरे, अनहद भी मर जाय!
सूरत समानी शब्द में, ताहि काल नाहिं खाय!!"
वह क्या है, कहनें में नहीं आता. जो है, वह है, उससे अधिक कहा नहीं जाता और न कुछ कहा जा सकता है, क्यों कि वहाँ विचार नहीं जाता.
जाप के अनुशासन
जाप के अनुशासन से आशय है, वे सहायक संकेत जो उसे सरल व सहज बनाने में में सहयोगी होते हैं और वांछनीय फल की प्राप्ति के द्योतक होते हैं. इस अनुशासन के पालन न करनें से विभिन्न प्रकार की कठिनाईयाँ मार्ग के मध्य आतीं हैं.अनुशासन के अंतर्गत बीस नियम आते हैं-
- पांच, वे हैं वे हैं, जिनका पालन जाप प्रारम्भ करने से पूर्व करनें हैं.
- बारह नियम वे हैं जिनका ध्यान, जाप के मध्य (अंतराल) में रखना है.
- अंतिम तीन नियमों का निर्वाह, जाप की समाप्ति पर काना है.
जाप प्रारम्भ करने से पूर्व के नियम इस प्रकार हैं;
(०१) तौबा या पशाताप करना; अब तक जो किया सो किया, अब भविष्य के लिए, सदा और सर्वदा के लिए यह वादा (प्रतिश्रुति) निवेदन करना वे सभी कर्म और विकर्म जो धर्म-विरुद्ध हैं, अब न होंगे.
(०२) ह्रदय सभी द्वंद्वो से परे और शांत स्थिति में रखना.
(०३) पवित्रता; अर्थात शौच, नहा-धो कर स्वच्छ वस्त्र पहनना और स्वच्छ स्थान पर ही बैठना.
(०४) अपने गुरुदेव से सहायता लेना.
(०५) इस तथ्य का निरंतर बोध होना किगुरुदेव से सहायता लेना ठीक वैसा जैसा कि इष्ट देव से.
जाप के मध्य जिन नियमों का निर्वाह करना है, वे इस प्रकार हैं-
(०१) उपयुक्त आसन के साथ बैठना. "आसनेन रुजं हंति" (योग चूडामणि उपनिषद - १०९) हाथ-पैर आदि की स्थिर स्थिति का नाम 'आसन' है. आसन सिद्ध होने पर चित्त की एकाग्रता होती है. चित्त एकाग्र होने पर संसार का अस्तित्व शून्य हो जाता है. आसन रोगनाशक भी माने गए हैं. यह अपनी सुविधा की बात है कि 'दोजानू', जैसे नमाज़ में बैठते हैं, या किसी दूसरे आसन पर, किन्तु सबसे अच्छा सिद्धासन प्रतीत होता है. सिद्धासन गुदा तथा उपस्थ के बीच के स्थान पर लगाया जाता है. इस स्थान के नीचे बाएँ पैर की एड़ी लगाएं और सीधे पैर की एड़ी को उपस्थ के ऊपर रक्खें. इस स्थिति में दोनों पैर की एड़ियाँ नीचे-ऊपर हो जातें हैं. दोनों पैर के अंगूठे जंघाओं के बीच में आ जाते हैं. वक्षस्थल में ठोडी जमा कर मन को एकाग्र कर, द्रष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर करने पर सिद्धासन होता है. यह आसन मोक्ष-कपाट को खोलता है.
(०२) स्थान, जहां बैठना है उसको सुगन्धित करना. धूप और लोबान आदि सुलगा कर अथवा यज्य करके, सुगन्धित ताज़ा फूल रख लिया करें.
(०३) स्वच्छ वस्त्र धारण करना, और पूजा-गृह (जो आकार में एक छोटे प्रकोष्ठ या कोठरी से अधिक न हो) को अन्धेरा कर लें.
(०४) दोनों आँखों और दोनों कानों को बंद कर लेना. (हमारे यहाँ अँधेरे प्रकोष्ठ और कानों को बंद करने की अनिवार्यता नहीं है).
(०५) सदगुरुदेव की प्रतिष्ठा और सानिध्य को ह्रदय में विद्यमान रखना.
(०६) व्यक्त और अव्यक्त, सत्यनिष्ठा और निष्कपटता से आचरण करते हुए एकेश्वरवाद के मूल मन्त्र को स्वीकार (ज़ाहिर-बातिन सच्चाई और ख़ुलूस ... ... ... कल्मये तौहीद इख्तियार ) करना चाहिए.
[हमारे यहाँ जाप के मध्य इसकी आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया गया है. मात्र शब्द सुननें पर ध्यान देते हैं. यों गुरुदेव की छवि, उनकी प्रतिष्ठा और सानिध्य, ह्रदय में स्थापित करनें तथा एकेश्वर-वाद के मूल-मन्त्र के अर्थों को अंतःकरण में च्त्रित करने के प्रति आग्रह स्वीकरण का मुख्य कारण यह है की इनमें इच्छाओं की पूर्ती में पर्याप्त सहायता मिलती है.]
(०७) अपने चित्त, अंतःकरण में ऐसे संस्कार और प्रवृत्ति जगाएं कि अनेक सांसारिक भोग-विलास के सामान हमें अभोग्य और उनकी उपस्थिति व उपलब्धि अप्रिय लगे, घुटन जैसी हो.
(०८) जब जब अबोध मन संसार की किसी भी भोग-विलास की वस्तु की इच्छा करे, उन दृश्यों को चलचित्र की भाँति अवलोकन करना, एक-एक करके उन सभी पर विवेक-पूर्ण विश्लेषण करना और उन्हें अपनें कष्टों का कारण समझना. इसी बात को अपने चित्त में उतारते हुए पछतावा करना चाहिए.
(०९) जापक ज्यों ज्यों इस स्थिति में प्रवेश करेगा, उसका अन्तःकरण वैसे ही वैसे स्वच्छ और निर्मल होता जाएगा और जिन विभिन्न प्रकार के रजोगुणी संकल्प विकल्पों के लिए वोह बाध्य था, उसे उनसे धीरे-धीरे मुक्ति मिल जायेगी. यही स्थिति आगे जारी रहने पर उसे ऐसा भी लगेगा कि अब प्राण गये, अब प्राण गए इत्यादि. इस स्थिति के उत्पन्न होने पर साधक को चाहिए कि वोह उपासना के अनुकूल संकल्प करे; शास्त्रों में जिसे शिव-संकल्प की संज्ञा दी गयी है.
(१०) जापक को यह भी चाहिए कि अब तक पराभक्ति से जपनिष्ट रहते हुए प्रारब्ध-वश, देहाभिमान रूपी सागर की भीषणत़ा पर मालिक से इसके बंधन छूटने के लिए विनय, प्रार्थना करें और मोह, अहंकार आदि मानस-रोगों के आक्रमणों से बचने के लिए गिड़गिड़ाएँ.
(११) अपने प्रभु से गिडगिडाते समय जापक को चाहिए कि वोह उससे अति-सामीप्यता की उष्णता को अनुभव करे और अपने प्रभु की दिव्य-सेवा की मानसिक भावना करे. यह भी अनुभव करे कि अपने स्वामी की अंकपाश में स्थित इस दीन-हीन के ह्रदय में स्थित जो भी इच्छाएं हैं वे समूल नष्ट हो रहीं हैं और उनके स्थान पर प्रभु-प्रेम और दिव्य-प्रकाश भरता जा रहा है.
(१२) जापक को चाहिए कि धीरे-धीरे अपने प्रभु से अनुराग की स्थिति प्राप्त हो जाने पर सहज भाव से यह विचारे कि हे भगवान्! तू ही तू है! न मैं हूँ न यह संसार, केवल तो ही है. इसी विचार में अपने आप को विलीन करें.
इसी अनुक्रम में वे नियम, जिनका कि पालन जाप के उपरान्त करना है, इस प्रकार हैं -
(०१) जाप के उपरान्त कुछ समय तक उसी मुद्रा में शांत बैठे रहना चाहिए.
(०२) तृष्णा या प्यास को रोके रखना चाहिए. शीत हवा और शीत जल से ह्रदय की उष्णता जाती रहती है और त्वचा के छिद्र-मुख यकायक खुल जाने से 'सर्दी' हो जाने का भय रहता है.
(०३) यदि एकेश्वर-वाद के मूलमंत्र का जाप - "कल्मए-तौहीद" (जो कि परमपिता परमात्मा के श्री चरणों में अलौकिक प्रीति का परिचायक है) किया है और प्रभु से लगाव पैदा होने के संकेत द्रष्टिगोचर नहीं हुए, तो यह इस परिणाम का सूचक है कि जाप का अभ्यास विधि-विधान-पूर्वक नहीं किया गया है और मध्य में कहीं न कहीं कोई त्रुटि आ गयी है अतः उसे निर्दिष्ट विधि पूर्वक पुनः आरम्भ कर देना चाहिए.
जाप में प्रयुक्त नाम व शब्द
जाप में कुछ नामों का प्रयोग करते हैं या कुछ नामों के सहारे जाप करते हैं. ये नाम सूफी सिलसिले में अरबी भाषा के शब्द होते हैं. हज़रत शाह हकीमुल्लाह साहेब जहानाबादी एक असाधारण संत हुए हैं उनका मत है कि जाप में प्रयोग करनें के लिए सभी को अरबी शब्द प्रस्तावित करना अनिवार्य नहीं है. उनके अनुसार, जो अभ्यासी हिन्दू हों, उन्हें हिंदी के नाम (ॐ, राम, शिव आदि) बतलावें. इसी प्रकार जो ईरानी हों उन्हें फारसी के,
जो बंगाली हों उन्हें बँगला के और जो अँगरेज़ हों उन्हें अंग्रेज़ी के शब्द बताने चाहिए.
नामी से नाम की पहचान हुआ करती है. नाम दो प्रकार के हैं - पहला साकार और दूसरा निराकार. साकार नाम में, नामी के गुण, बीज-रूप में सम्मिलित रहते हैं. निराकार नाम में नामी के गुण, शाख, टहनी और फल-फूल के सद्रश्य प्रत्यक्ष और प्रकट रूप में स्थिर रहते हैं. यहाँ पर थोड़ा रुक कार विषयगत संकल्पना को स्पष्ट कर लें कि नामी के बीज-रूप गुणों का ज्ञान किया जाता है और उसके सार-तत्व अथवा गूदे का साक्षात्कार करना होता है. दिव्य पवित्र और शुद्ध सारतत्व और गूदे का अनुशीलन से तात्पर्य है कि 'ॐ' नाम से संलग्नता स्थापित होते ही सर्जन करने वाला, पालन-करता और संघारक अर्थात उस परम सत्य के भंडारण में पुनः वापस ले जाने वाले की स्मृति आ जावे. इसी प्रकार शब्द 'अल्लाह' की संलग्नता स्थापित होते ही वैसी ही पुनरावृत्ति हो; मात्र भाषा का अंतर रहे - सृजक, पालक और संघारक के स्थान पर, 'खालिक', 'रब्ब' और 'मालिक-मौम्मिद्दीन' की स्मृति का मूल भी वही है.
जाप की चार स्थितियां
हज़रत शेख सरफुद्दीन यहिमुनेरी (परमात्मा की उन पर दया हो) का कथन है की जाप की चार रूप-रेखाएं हैं -
(०१) ईश्वर के नाम का जाप, जिसके मूल और गूढ़ तत्व एवं सत के भण्डार विश्लेषण हैं, जिह्वा से तो होता है किन्तु हृदयंगमता की स्थिति नहीं हो पाती, ह्रदय बेसुध और असावधान रहता है.
(०२) जिह्वा जाप कर रही है, ह्रदय भी उसी में लगा है, उसके अनुकूल है किन्तु ह्रदय बीच-बीच में बेसुध और असावधान हो जाता है, यों तब भी जिह्वा का जाप चलता रहता है.
(०३) तीसरी स्थिति में जिह्वा ह्रदय के साथ और ह्रदय जिह्वा के साथ और दोनों एक-दुसरे के अनुकूल होते हैं किन्तु बीच-बीच में दोनों ही बेसुध और असावधान हो जाते हैं.
(०४) चतुर्थ स्थिति यह होती है कि जिह्वा बेसुध और क्रिया-हीन होती है किन्तु ह्रदय, उपस्थित, सावधान और जाप में निरंतर तल्लीन रहता है. यह उत्तम जाप की स्थिति का द्योतक है. इस समय करता की भूमिका का निर्वाह, विद्यमानता और चेतना करती है.
ह्रदय का निरंतर अपने कार्य पर उपस्थित व सावधान रहना और यह जानकारी रहना कि जाप चल रहा है, विद्यमानता (हुजूरी) कहलाता है. चेतना (आगाही), जानकारी और ज्ञान का दूसरा नाम है. यही जाप की सत्ता है. जाप करने वाले को इस अवस्थान (मुकाम) में भी यह प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है कि वोह अपनें ह्रदय के शब्द को सुनता है और जाप करने वाले के अतिरिक्त कोई दूसरा उस ध्वनि को नहीं सुन सकता.
जाप का वर्गीकरण
जाप के अनेक वर्ग एवं प्रकार हैं. यों तो जाप करने के लिए कोई भी जाप किया जा सकता है, किन्तु अनुभव से यह स्पष्ट हुआ है कि एक प्रकार का जाप, दूसरे से अच्छा हो सकता है या अधिक लाभदायक फल का द्योतक हो सकता है. अनेक संतों ने जाप की क्रिया और उसके विधान को अपनें-अपनें ढंग से बताया है. इसी क्रम में एक अच्छा और प्रभावी विवरण, श्रीमन अबू अब्दुल रहमान (ईश्वर उन्हें चिरायु और अपनी कृपा दें) का द्रष्टिगत हुआ है. वह कहते हैं कि जाप अनेक प्रकार के हैं, उनमें एक जिह्वा का जाप है, जिसको सब जानते हैं. दूसरा जाप ह्रदय का है, जो मानसिक है. यह जाप निकृष्ट विचारों, दुविधा और भ्रमों को दूर करनें वाला है और इसके मालिक के नाम के जाप में हृदयगमता आती है.
इसके अतिरिक्त एक और प्रकार का जाप है, जिसे 'शेष-जाप' कहते हैं. इस जाप को करने से अंतःकरण में कुछ ऐसी भावना का संचार होता है कि यदि किसी कुविचार या भय के ह्रदय में आनें की संभावना भी हो तो कदाचित वह फलीभूत न हो सके. इससे स्पष्ट होता है कि 'शेष जाप' (ज़िक्रे-सिर्र) ह्रदय के जाप का प्रतिफल है. 'शेष' (सिर्र) एक चक्र या अवस्थान का नाम है, जो ह्रदय-चक्र के ठीक ऊपर स्थित है. स्थिरता व द्रढ़ता, इसी 'शेष-चक्र' के कारण आती है. एकटक चैत्य सत्ता की आवेग-मई स्थिति (तवज्जो: का लग जाना) हो जाना और उस एक चरम लक्ष्य के अतिरिक्त, कोई आकर्षण शेष न रह जाना, सारे भाव और विचारों का मिट जाना, इसी 'शेष चक्र' की विशेष उपलब्धि है. जब तक यह चक्र पूर्ण-रूप से नहीं खुलता, उस समय तक ऐसी स्थिति नहीं आती कि स्वम को ऐसे भूल जायं कि कुछ याद न रहे, सिवाय इसके कि उस चरम लक्ष्य की ओर द्रष्टि लगाए बैठे हैं.
ह्रदय चक्र पर किये जाप में निरंतर और हर समय उलट-फेर और चक्कर लगा रहता है जिसका कारण यह है कि इसमें स्थिरता व दृडता (हुज़ूरे दायमी) नहीं हो पाती.
एक और चौथे प्रकार का जाप है, जिसको आत्मा का जाप (ज़िक्रे रूह) कहते हैं. इस जाप में जाप करने वाले की अपनी लाक्षणिकता (सिफत) मिट जाती है, तात्पर्य यह है कि जाप करने वाले का यह भाव मिट जाता है कि जाप का करना मेरा कार्य है अथवा मैं जाप कर रहा हूँ, क्योंकि जब उसके सामने सिवाय एक लक्ष्य, जिसको कि ईश्वर कहते हैं शेष सभी वस्तुएं द्रष्टि से हट जाती हैं, और अन्य कुछ शेष नहीं रहा, तो जाप करने वाले का यह ध्यान बंध जाता है कि परमात्मा स्वम ही जाप कर रहा है. जब ऐसी मनोदशा हो जाती है, तो जाप करने वाले का न जाप शेष रह जाता है, न अवस्था न विवरण, न उसका गुण और न उसकी कैफियत ही शेष रह जाती है.
"जाप मिटै, अजपा मिटै, अनहद भी मिट जाय !
सुरति समानी शब्द में, ताहि काल नाहिं खाय!!"
यह मनोंदशा, सत्संग में प्रायः हो जाया करती है कि सत्संग प्रारम्भ करते समय तो ह्रदय जाप करता हुआ मालूम होता है किन्तु कुछ समय पश्चात, शब्द इत्यादि की अनुभूति नहीं होती जिसकी शिकायत प्रायः लोग अपनी अनिभिज्ञता के कारण किया करते हैं और इसको दोष या हानि की संज्ञा भी देते हैं.
जिह्वा-जाप, अर्थात जो जाप जिह्वा से किये जाते हैं ये निःस्वर भी होते हैं और ऊंचे स्वर से भी. इसको स्वर-मूलक जाप (ज़िक्र लिसानी) कहते हैं. ये जाप, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त और प्रगट, अर्थात प्रत्येक चक्र पर किये जा सकते हैं और शब्द के माध्यम से संपन्न होते हैं. इसमें अक्षरों को मूर्त रूप दिया जाता है और यह भी होता है कि कभी एक अक्षर के पहले उच्चारण करते हैं और कभी उसी अक्षर के बाद में. इसे अतीत और अनागत कहते हैं. शब्द में अक्षरों के उच्चारण करते समय जो तरंग और ठहराव इत्यादि होता है, यह पूर्ण रूप से व्यवस्थाबद्ध है. यदि इन अक्षरों का ध्वनि से संसाधित करते हुए उच्चारण करें तो ये शब्द ध्वनित (जिहर) कहलाते हैं और यदि इनका उच्चारण ध्वनि-रहित, निःशब्द रूप से, अर्थात स्वं के अतिरिक्त कोई दूसरा न सुन सके उन शब्दों को 'गुप्त' (ख़फी) की संज्ञा दी जा सकती है. यहाँ पर गुप्त उस शब्द का विशेषण है जिसकी कि व्याख्या ऊपर की जा चुकी है, अर्थात, शब्द जो दिया हुआ, न कि किसी चक्र-विशेष का नाम.
ह्रदय का जाप और मानसिक जाप में शब्द के आकार को बार बार याद करना होता है या उस नाम के नामी को अंतःकरण में अपने सामनें आभास करना होता है; इसकी साधारण क्रिया यह है कि अक्षर के आगे और पीछे अर्थात अतीत और अनागत का कुछ विचार न किया जाय प्रत्युत एक बार उस नाम के अक्षरों एवं उसकी तरंगों व ठहराव को अपनी धारणा शक्ति से समाविष्ट कर लें.
'आत्मा का जाप' की क्रिया का सार यह है कि उस नाम को ही भूल जाय जिसका कि जाप किया जाता है किन्तु उस नाम के नामी (स्वामी) को धारणा शक्ति में प्रतिष्ठित और प्रकाशित करें. इसका उदाहरण यह है कि अक्षर इत्यादि जिनसे कि उस नाम की रचना हुयी है, स्मरण नहीं रहते, प्रत्युत ईश्वर की स्मृति शेष रह जाती है.
कतिपय ब्रह्मज्ञानी अपनी अभिशंसा इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जिह्वा का जाप के माध्यम से, स्वतः ही 'ह्रदय का जाप' कि स्थिति को प्राप्त कर लेता है; अर्थात उसके 'ह्रदय का चक्र' जाग्रत हो जाता है. किन्तु यह तभी संभव है जब जिह्वा और ह्रदय दोनों 'एकनिष्ट' हो जायं और तब कोई संदेह नहीं कि जाप धीरे-धीरे अपने अभीष्ट को न प्राप्त कर ले.
नक्श्बंदिया सिलसिले में आत्म-शक्ति आत्मसात (जज्बेबातिन) भाव से 'ह्रदय का जाप' पर भरोसा करते हैं. प्रारम्भिक अभ्यासी अपनी यात्रा, जाप की उस उच्च अवस्था से प्रारम्भ करते हैं, जिससे कि हमारे यहाँ के साधू, भली भांति परिचित हैं. इस सिलसिले के नवशिक्षित और प्रारम्भिक अभ्यासी ही ह्रदय का जाप यानि, मानसिक जाप के माध्यम से विराट-रूप और देश से उनका सम्बन्ध हो जाता है, जब कि दूसरे सिलसिलों के पराकाष्ठा को प्राप्त अभ्यासी ह्रदय का जाप में उसी स्थिति को प्राप्त हो पाते हैं.
कुछ जापों का विवरण
यहाँ कुछ जापों का विधान दिया जाता है. यह आवश्यक नहीं कि असंख्य प्रकार के जापों का विवरण दिया जाय, या ध्यान एवं समाधि की भांति-भांति की विधाएं और उनकी विवेचना लिख दी जाय, क्यों कि इस पुस्तक को लिखनें का मात्र यह प्रयोजन नहीं है; प्रतुत बस इतना ही प्रयोजन है कि अनेकों में से कुछेक वे जाप जो सार-रूप हैं और अवधान (मुराकिबः) की उन युक्तिओं को, जो कि सर्वहितकारी, उपयोगितामूलक और चरित्र-निर्माण में हर प्रकार से सहायक हों, लिख दी जायं; क्यों कि जब कोई आध्यात्मिक स्वर्ग की ओर चढ़ती हुई उच्चतर चेतना का अनुभव करेगा तो नीचे की सीढ़ियों - क्रमशः प्राण, मन और अधिमन की स्थितियों को वोह सहज और स्वतः ही प्राप्त कर लेगा.
तुम्हे जिस वस्तु की आवश्यकता है; वोह है चेतना, सदैव अधिकाधिक चेतना, शुद्ध, सरल और ज्योतिर्मय चेतना. इस प्रकार की पूर्णत्व को प्राप्त चेतना के प्रकाश में तुम्हे वस्तुएं अपने वास्तविक स्वरूप में द्रष्टिगोचर होंगी; न कि जैसी वे अपने को दिखाना चाहें. यह प्रकाश एक चित्रपट की भांति होता है जो सामने से आती-जाती हुई वस्तुओं को ज्यों का त्यों दिखा देता है. वहां तुम देख पाते हो कि कौन सी वस्तु ज्योतिर्मय है और कौन सी अंधकारमयी, इत्यादि इत्यादि. तुम्हारी चेतना एक चित्रपट या दर्पण बन जाती है; पर यह तब होता है जब तुम चिंतन-मनन (ज़िक्र और फ़िक्र) की अवस्था में केवल द्रष्टा मात्र रहते हो: जब तुम सक्रिय हो तो यह चेतना खोज-बत्ती (search light) की जैसी हो जाती है. यदि तुम्हे किसी वस्तु को स्पष्ट और निर्दोष देखना हो और उसकी तात्विक विवेचना (जांच पड़ताल) करनी हो तो बस इस खोज-बत्ती को उस वस्तु की ओर कर दो.
इस प्रकार की पूर्ण चेतना को प्राप्त करने का उपाय है, अपनी वास्तविक चेतना को उसके वर्तमान घेरे और सीमा से बाहर निकाल कर विशाल बनाना, उसे शिक्षित करना, उसे भागवत-ज्योति की ओर खोलना और उसमें भागवत-ज्योति को स्वतंत्र और स्वछन्द रूप से कार्यान्वित होने देना. परन्तु ज्योति अपना पूरा-पूरा और अवाधित कार्य तभी कर सकती है, जब तुम समस्त भय और लालसाओं से मुक्त हो जाओ, जब तुम्हारे अन्दर कोई भी मानसिक पक्षपात न हो, कोई प्राणमय रूचि न हो, कोई भौतिक आकांक्षा या आकर्षण न हो जो तुम्हे तम्साछन्न करे या बंधन में बांधे.
यह जान लेना नितांत आवश्यक है कि शंका या भ्रम जो मन-मानस को अपने निज-रूप में स्थापित नहीं होने देते, वे चार प्रकार के होते हैं - अर्थात ये भ्रम तुम्हे चार प्रकार से दुविधा में डाल सकते हैं, उससे उभरने नहीं देते - (१) वोह तमोगुणी शक्ति है जो हमें अनेक प्रकार से बहकाया करती है तथा जो अहंकार, क्रोध, वैर-भाव, प्रशंसा ईर्षा इत्यादि गुणों की जननी व पोषक है, (२) दूसरा भ्रम विषय-वासना संबंधी है; जो इच्छा, काम-वासना, परिग्रह, अह्मंय्ता जैसे अनेक दुखों के कारण का पोषक है, (३) तीसरा भ्रम; दैविक (मलकी) है; जिसका सम्बन्ध देवताओं से है, इससे सदाचरण संबंधी विचार उत्पन्न होते हैं; जैसे पूजा-पाठ, व्रत-उपवास इत्यादि अनुष्ठानों के संकल्प-विकल्प, (४) चौथा भ्रम ईश्वर संबंधी (रहमानी) है, इससे निश्छलता आती है, अर्थात अन्दर-बाहर एक जैसा हो जाना, प्रेम और लगाव होना और परमात्मा के मिलने की इच्छा तीव्र होना.
बाएं घुटने की ओर तमोगुणी शक्ति (शैतानी खतरे) जो हमें बहकाया करती है, उसकी आशंका को दूर करने की यद्र्च्छा (मौक़ा) है, क्यों कि यहाँ पर उसके निवास का स्थान है और दाहिने घुटने के स्थान पर विषय-वासना (इच्छा या नफसानी) संबंधी विचारों का निवास है, अतः यहीं से इनका विकर्षण करते हैं.
आदमी को बहकाने और उसे सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होने से हटा देने तथा विघ्न उपस्थित करने में विषय-वासना (इच्छा) और तमोगुणी शक्ति दोनों का बराबर का साझा रहता है. दाहिना कंधा (इच्छा और तमोगुणी शक्ति के लिए) देवी आशंका के दूर करने की यद्रच्छा (मौक़ा) और स्थान है जहां अन्यथा दाहिना फ़रिश्ता और देवता अच्छे संस्कार बनाने को रहता है. इसी प्रकार ह्रदय का आकाश, दैवी आशंका के रहने का स्थान है. यही कारण है कि चौमुखा-जाप उपयुक्त समझा गया है. इसका क्रिया-विधान इस प्रकार है -
- एक छोटी कोठरी हो, जिसमें अन्धेरा हो. सिद्धासन पर बैठें और पीठ सीधी रक्खें, आँखों को बंद कर लें, दोनों हाथों को दोनों जाँघों पर रक्खें. दाहिने पाँव के अंगूठे और उसकी उंगली (जो उससे मिली हुई है)से बांये पाँव की रग के मॉस की ओर से पकड़ें, ताकि क़ल्ब (दिल) को कुछ ऊष्मा का भास् हो. ऐसा करने से जहां एक ओर स्पष्टता या सफाई (cleaning) के भाव जाग्रत होते हैं, वहीं दूसरी ओर उस चढ़े हुए अनेक भ्रम और द्वन्द्वावस्था जैसे आवरण छट जाते हैं. उसके बाद मनोमय सत्ता और प्राणमय सत्ता को एकाकार करके, जैसा समय हो, ध्वनिक अथवा निर्वाक (जैसी रूचि और आदत हो) जाप में लग जाँय. जाप के मध्य निम्नलिखित युक्तियों का पालन करें -
(१) गुरदेव का एकनिष्ठ सानिध्य;
(२) ईश्वर का आश्रय;
(३) उसके गुणों को स्मरण रखना अर्थात सजीवता, ज्ञान, शक्ति, संकल्प, जो कि सुनने, देखने, और बोलने वाले देवताओं के प्रतीक हैं, उनको ध्यान में रखना और
(४) प्रग्याघात (ज़रब या ठोकर लगाना).
इसका अनुक्रम (तरकीब) यह है कि "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर, बाएं घुटनें से प्रारम्भ करते हुए, इसे आवेग के साथ ऊर्ध्वगामी गति दें; इसी आवेग के प्रवाह को "इलाह" (पूजा के योग्य) कहते हुए दाहिने कंधे तक और पुनः यहाँ से प्राणमयी सत्ता के आवेग को "इललिल्लाह" (सिवाय उस परमात्मा के) कहते हुए समग्र श्रद्धा को ओज को ह्रदय पर उतारें. इसका नाम "चौमुखा-जाप" (विकर्षण चतुष्ठय) या "नफी अस्बात ज़िक्र-चहार-ज़र्बी" है.
किन्तु हमारे गुरुदेव ने हम लोगों को इसे करने का इस प्रकार निर्देश दिया है कि - निर्दिष्ट स्थान पर विधि-पूर्वक आसन ग्रहण करके जिह्वा को निष्प्रभावी करके, और दोनों आँखों को बंद करके, पुनः चित्त को एकाग्र करके "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर इसे नाभि के स्थान से ऊर्ध्व-गति देते हुए ऊपर उठावें और मनोमय-सत्ता के चरम बिंदु तक ले जा कर, पुनः "इलाह" (कोई पूजा के योग्य) कहते हुए इसी प्रवाह को दाहिनें कंधे की ओर ले जायं, पुनः "लिल्लिल्लाह" (सिवाय उस ईश्वर के) कहते हुए प्रवाह को, बाईं ओर ह्रदय पर प्राणिक आवेग के साथ छोड़ दें. साथ ही उनका यह भी आदेश था कि "नहीं है कुछ" के भावावेग को मनोमयी सत्ता की प्रतिष्ठा में संप्रेषित करते समय इस भावना को आकार दें कि जो कुछ भी दृष्टिगोचर है, अस्तित्व-हीन है, कुछ नहीं है; "न मैं हूँ न यह संसार". और दाहिनें कंधे की ओर "इलाह" के भावावेग को ले जाते समय इस भावना को आकार दें कि - "हाँ यदि कुछ सत्य और उसका अस्तित्व है, तो वोह परमात्मा है", केवल परमात्मा. इसी क्रिया का ऐसा अटूट भाव (तातां बाँध दें) प्रवाहित होने दें कि बेसुध हो जायं.
जिक्र दो-ज़रबी (दोमुखा या द्विक जाप) का अनुष्ठान यह है; कि प्राण की प्रत्येक गति (हर सांस) के साथ दाहिने कंधे पर "ला इलाह" (नहीं है कुछ) का एक आवेग, और ह्रदय के ऊपर "इल्लिल्लाह" (सिवाय परमात्मा के) का दूसरा आवेग प्रवाहित करें. जब तीन, पांच या नौ क्रम पूरे हो जाँय तो एक बार इसी आवेग के प्रवाह को "मोहम्मद रसूलिल्लाह" (परमात्मा के अग्रदूत) को समर्पित कर दें. "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति", महा मन्त्र का ही यह संभवतः क्रियान्वित स्वरूप है; अर्थात न मै हूँ, न यह संसार; सभी कुछ नाशवान है, जो अंत में शेष रह जायगा वोह केवल परमात्मा रहेगा. अस्तु इस संसार में कुछ नहीं है सिवाय मेरे "माबूद" (पूज्यनीय) के अर्थात जिस के आगे मैं नतमस्तक हुआ हूँ, जिसकी उपासना की है, वोह तू है. पुनः जो कुछ दिखाई देता है, वोह सब नाशवान है, सिवाय उस "मक़सूद" (परम लक्ष्य) के अर्थात, मेरी प्राणिक इच्छा का केंद्र तू ही है. इसके बाद कुछ शेष नहीं रह जायगा, सिवाय तेरे जो तू उपस्थित और वर्तमान है, जो कुछ शेष रहेगा वोह तू है.
प्रभु के दो स्वरूप माने गए हैं - साकार और निराकार. निराकार; नाम, रूप, रस, रंग, गंध से परे है, जब कि साकार इन सभी गुणों से युक्त है. निराकार का कोई निश्चित स्वरुप नहीं होता और स्वम अपना आधार है. साकार नाम, रूप और गुण के विशेषणों से युक्त है. वोह नाम, रूप और गुण; रज, तम और सत; ब्रह्मा, विष्णु, महेश के माध्यम से अभिज्ञेय है. परा-प्रकृति और अपरा-प्रकृति मय, आत्मा के मिलौनी से जीवात्मा का अभिधान होता है. महततत्व, प्रथम उद्भव है. इसमें समस्त गुण विद्यमान हैं. वस्तुतः बुज़ुर्ग (प्रतिष्ठित) मुसलमान, इसको हज़रत मोहम्मद (श्रद्धा के विद्यमान प्रतीक) जो कि रसूल्लिल्लाह (ईशदूत) हैं, यह भावना करके कि उनपर ईश्वर की दयालुता और कुशलता हो; वे अपनी पूजा के एक निश्चित स्वरुप की स्थापना करते हैं. इसी सिद्धांत के अंतर्गत, इस जाप के पूर्व चरण में शुद्ध निराकार का जाप निर्दिष्ट करनें के उपरान्त अंत में किसी साकार का एक बार जाप बतलाते हैं; जिसका उद्येश्य यह है कि पहले निराकार है बाद में साकार. यह क्रम नीचे ऊपर की ओर जाता है इसी क्रमानुसार पहला चरण, दुनियाँ और तब प्रकृति है जिसका आधार महततत्व है. सांख्य के अनुसार प्रकृति का प्रथम कृत्य अहंकार (की उत्पत्ति) है. इसका तर्क यह है कि जीव और शरीर दोनों का अस्तित्व परस्पर एक-दूसरे पर आधारित है; भूमि और स्वामी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, स्वामी-हीन भूमि, भूमि की श्रेणी में नहीं आती. जाप में भी में भी इसी सिद्धांत के अनुसार, निराकार और साकार, दोनों का ही समावेश समीचीन समझा गया है. यही कारण है कि "दो-मुखा जाप"और "चौमुखाजाप" की तुलना में है "दो-मुखा जाप" अधिक उपयोगी है क्यों कि इसके अनुष्ठान में बाधाएं और विघ्न आढ़े नहीं आते और न ही चित्त उचाट खाता है, समचित्तता बनी रहती है; प्रत्युत दूसरे जाप के अनुष्ठान-विस्तार में निर्दिष्ट मानसिक स्थिति बनाए रखने में कठिनाई होती है.
जिह्वा का जाप - (ज़िक्रे-लकलकः) का अनुष्ठान बहुत ही सीधा-सादा है; वोह इस प्रकार है कि - "अल्लाह" या "ॐ" शब्द का उच्चारण, धीरे-धीरे, बहुत थोड़ा मुँह खोल कर, अथवा अधरों को सटा कर फुस्फुसाएं. कुछ लोग इसकी क्रिया के मध्य प्राणवायु को रोक लेने की सलाह देते हैं, जब कि अन्य लोग ऐसा आवश्यक नहीं समझते.
"ज़िक्क्र सह्पाया" या "त्रिपदी जाप" - अर्थात तीन चरणों में जाप; इसकी तुलना तिपाही से की जा सकती है, जिसमें तीन टांगें हों; तीन में से यदि एक टांग भी न रहे तो यह खड़ी नहीं रह सकेगी, गिर जाएगी. ठीक यही सिद्धांत इन तीन चरणों की उपयोगिता का है और इसी आधार पर इसका नामकरण किया गया है, अस्तु जाप के तीन चरणों में से एक में भी शिथिलता आने पर अनुष्ठान अधूरा रह जाएगा.
- प्रथम चरण में प्रभु का वोह नाम जो त्रिगुणातीत है, उसका जाप करें; अखंड ज्योतिमय ब्रह्म जो कि शाश्वत सांत्वना का उद्गम है, उस परम तेजस्वी मंडल का मनन करें. (इस्मे-ज़ात)
- द्वितीय चरण में उस नाम का मनन करें जो तीनों का स्वामी है अर्थात वोह ज्ञानी, सुननें वाला, देखनें वाला है; जाप के मध्य उसके गुणों पर चैत्य (अपने मानस) को केन्द्रित करें. (इस्मे-सिफात)
- तीसरे का सम्बन्ध पूर्ववर्ती दोनों चरणों के मध्य का है. इसमें गुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य को चैत्य में केन्द्रित करना होता है.(बरज़ख) इस जाप की साधना सात-सूत्री है; सभी सगुनात्मक हैं और इसमें जिज्ञासु में निरंतर रसानुभूति और अभीप्सा पनपती रहती है.
(१) सदगुरुदेव का एकनिष्ठ-सानिध्य, यह सम्बन्ध साधने का उत्तम मार्ग है.
(२) "अल्लाहू" या "ॐ" का जाप करना.
(३) 'अलीम', 'समीअ', 'वसीर'; अर्थात "वोह समस्त जगत को जाननें वाला, सुननें वाला, देखनें वाला है" इन भावनाओं, संवेदनों का मनन करना.
(४) "अल्लाह" के 'अलिफ़' को अथवा "ॐ" के 'ओ' (अ + उ) की पर्याप्त ऊंची अलाप लें और उसे प्राण की क्रिया-पद्यति से चैत्य की उच्चतर चेतनां में केन्द्रित व स्थापित करें.
(५) "ॐ" शब्द की स्वनिक संरचना में स्थित हमजा (बलाघात) को संकल्प-शक्ति और ऊर्जा से एकाग्र करके नाभि-चक्र से प्रारम्भ करना.
(६) "ॐ" शब्द की अलाप के अंतिम चरण को ले जा कर मानसिक मंडल में स्थापित करना.
(७) "ॐ" शब्द के उच्चारण की आवृत्ति को गति देना.
उपरोक्त कुल अनुष्ठान को, और उसके उक्तियों को अपने गुरुदेव से व्यक्तिगत रूप से समझ लेना चाहिए व उनकी आज्ञा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए, क्यों कि मात्र पुस्तकों और लेखों के सहारे धारणा का निर्माण और उसकी पुष्टि संभव नहीं होती, अतः अत्यंत सावधानी की आवश्यकता रहती है.
"ॐ" शब्द में स्थित स्वानिक बलाघात को कल्पनाशक्ति और प्राणिक ऊर्जा से एकाग्र करके, नाभि-चक्र के स्थान से, ऊर्ध्व गति देते हुए, बक्ष-स्थल पर केन्द्रित करें और शब्द (ॐ) का मानसिक भावना से उच्चारण करें, साथ में भावना करें कि वोह ही श्रोता है; पनाह पूर्व बतायी गयी क्रिया दोहराते समय भावना करें कि वोह ही द्रष्टा है, इसी प्रकार क्रिया की तीसरी बार पुनरावृत्ति करें और भावना करें कि वोह ही ज्ञाता है. यह उत्कर्ष साधना (चढ़ाव) कहलाती है.
इसके पश्चात पूर्व-लिखित क्रिया को पुनः दोहरायें किन्तु क्रम उलटा कर दें, अर्थात 'ॐ' के स्वनिक जाप के मध्य अलग-अलग की जाने वाली भावना के क्रम - श्रोता, द्रष्टा, ज्ञाता के स्थान पर ज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता के उच्चारण और अर्थ के सहित करें. यह अधः स्वस्तिक (उतार) साधना है.
पूर्वलिखित क्रिया के दोनों क्रम अर्थात उत्कर्ष-साधना और अवकर्ष स्वस्तिक साधना की बार-बार पुनरावृत्ति प्राणायाम के मध्य करें. ऐसा बार-बार करें और करते जायं; बढ़ाते-बढ़ाते इसकी संख्या, यदि कर सकें तो ढाई सौ तक ले जायं, क्यों की आशय यह है कि चैत्य में इतनी पर्याप्त ऊष्मा और ऊर्जा का संचार हो जाय कि उठने वाले सभी संकल्प-विकल्प उसके ताप से प्रभावित हो कर दग्ध एवं भस्म हो जायं, धीरे-धीरे समचित्तता आ जायेगी.
अधःस्वस्ति और उत्कर्ष (उतार-चढ़ाव) साधनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति परिलक्षित करना अपने आप में में विशेष महत्व रखता है और उसका रहस्य यह है कि सुनने का मंडल, देखने के मंडल से कम है और देखने का मंडल, जानने के मंडल से कम है. यही कारण है कि अभ्यासी प्रथम प्रतिश्रुति में बुद्धि और साक्षी-भाव की प्रतिष्ठा में स्थित होता है; जो कि दूसरी प्रतिष्ठाओं की अपेक्षा अधिक संकीर्ण है और स्थूल का द्योतक है इसके बाद जब वोह अपनी श्रवण-शक्ति को गति देगा तो इससे बढ़ कर सूक्ष्म अवस्था को पहुंचेगा, जो कि पूर्व स्थिति से उच्चतर प्रतिष्ठा का द्योतक है. तीसरा क्रम द्रष्टि की क्रिया-शक्ति का है, जिसकी कि प्रतिश्रुति, कारण अवस्था में प्रतिष्ठित कराती है. इसी प्रकार विज्ञ-केंद्र की परिधि (जाननें का दायरा) का विस्तार करें और पनः बार-बार इसी क्रम को दोहराएँ (उलट-पलट करता चले). इसमें विशेष सावधानी की आवश्यकता है कि सद्गुरु देव के आदेश के बिना यह अभ्यास न करें; जब उनकी दया होगी तभी इस जाप के रहस्य का उदघाटन होगा अन्यथा मात्र पुस्तकीय-ज्ञान से यह संभव नहीं है .
इस उलट-फेर के सारांश को समझनें के लिए देखें कि किस प्रकार गीता में आत्म-रूप दर्शन और विराट-रूप दर्शन का भाव समझाया गया है; कि एक ओर तो आत्मा का मंडल सब तत्वों के ऊपर है और पुनः दूसरी ओर से आत्मा का मंडल सब तत्वों के नीचे है.
इसकी व्याख्या नक्श्बंदिया-सूफी संतों ने अपनी शब्दावली के माध्यम से इस प्रकार की है कि, "मर्तब:इमकान", जिसे संभावना की प्रतिष्ठा या संभावना-मंडल कह सकते हैं, यह दो भागों में विभक्त है; एक भाग अर्श-मजीद (प्रतिष्ठित आकाश) के ऊपर और एक भाग उससे नीचे है. ऊपर वाले भाग का नाम "आलमे-अम्र" (कर्म-लोक) है और नीचे वाले भाग का नाम "आलमे-ख़ल्क़" (उत्पत्ति-लोक) है. कर्म-लोक केवल ईश्वरीय आदेश से यकायक उत्पन्न हो गया 'उत्पत्ति-लोक', शनैः शनैः अपनी स्थिति व आकार में आया. कर्म-लोक केवल, "लतीफ़ व नूरानी" (पवित्र व उज्वल) है और उत्पत्ति-लोक मलिन व तिमिर है. परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को सारे प्राणी-वर्ग में सबसे श्रेष्ठ और कुल श्रष्टि उसमे प्रकट और प्रतिबिंबित कर दी; वोह इस प्रकार कि दस विभिन्न-तत्व जो इन दोनों लोकों में हैं, उन सब का प्राकट्य इसमें (मनुष्य) स्थित कर दिया. इनमें पांच तत्व (चक्र) अर्थात, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त, प्रकट, कर्म-मोह के और पांच तत्व अर्थात इच्छा (काम) मृतिका (मिट्टी), जल, पवन, अग्नि, उत्पत्ति-लोक के हैं. सूफी संतों की भाषा में इन्हें "लतीफा" कहते हैं. ईश्वर की यह परम अद्भुत लीला है कि उसने कर्म-लोक के भी पवित्र व उज्वल तत्वों को मनुष्य के तिमिर ढाँचे में स्थित कर उन्हें शारीरिक मनो-विनोद व स्वाद का ऐसा आसक्त किया कि वोह अपने परमार्थ और परात्परा-सत्ता के स्पर्श-सुख से विस्मृत हो गए. अपने उदगम की ओर उनका कोई ध्यान या स्मृति ही शेष नहीं रह गयी.
अब शब्द (जप) की जाग्रति व ध्यान और सदगुरुदेव का संपर्क और संस्पर्श, इत्यादि से आशय यही है कि ये चक्र जो निश्चेष्ट पड़ें हैं, जाग्रत हो जायं, अपनी सत्यता से परिचित हो जायं, और अपने उद्गम की ओर आकृष्ठ हों और समुन्नत हो कर तादातम्य के द्वारा सत्य के दर्शन करें.
ये दसो चक्र और उनका अस्तित्व संभावना-मंडल में स्थित है. उसकी स्थिति इस प्रकार समझना चाहिए कि नक्शबंदिया गुरुजनों ने जो अपनी प्रज्ञा द्रष्टि से इस परात्परासत्ता के इक्कीस बिंदु अभिग्यप्त किये उनमें से प्रत्येक बिंदु को मंडल कहते हैं, जिनमे संभावना-मंडल सर्वप्रथम है.
इन "लातायफ़-खम्सः" (पाँचों चक्रों) को क्रमशः बेधना और उसके पश्चात "लतीफा-नफस की सैर" (मनोमय-सत्ता की यात्रा) करना और तब "लाताय्फ़-ए-अर्बा" (चतुर्चक्र) "अनासिर" (पंचभूत - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) पर यात्रा करना जिसको "सुल्तानुल अज्कार" (कुल जापों का राजा) कहते हैं. यह श्रीमन मुज़द्दिद अल्फ्सानी (परमात्मा उन पर प्रसन्न हों) का यह अनुशीलन है. आपके पुत्रों और उत्तराधिकारियों नें संक्षिप्तीकरण के आशय से "लतीफा क़ल्ब" (ह्रदय चक्र) के "लतीफ़ नफस" (शुद्ध मनोमय सत्ता) की यात्रा को स्थिर रक्खा और आदेश दिया कि शेष (बाकी) चक्र इसके गर्भ में परिपक्व हो जाते हैं.
जिसने ब्रह्म-विद्या तत्व और सांख्य-शास्त्र का पर्याप्त चिंतन और मनन किया है वोह ही इसके तत्व-ज्ञान को समझ सकता है. हम देखते हैं कि संध्या करते समय "ॐ" का शब्द पहले कह कर, पुनः "चक्षु-चक्षु"; "ॐ नाभि-नाभि"; "ॐ श्रोत्रम-श्रोत्रम" कहा जाता है.
नाभि-चक्र के स्थान से प्रारम्भ करने से होने वाली (संभावित) हानियों से बचाव के हेतु विशेष ध्यान इस बात पर दें कि जाप प्रतिदिन और बिना नागा करें और खान-पान की ओर विशेष ध्यान दें. यदि व्रत ठीक प्रकार से साध लिया जाय तो हानि की संभावनाओं से बड़ी सीमा तक बचा जा सकता है.
सूफिओं का एक सिलसिला, "सत्तारिया" कहलाता है. इस परम्परा में 'सतनाम' का पाठ निर्वाक भाव से करते हैं और गुण सहित नामों को अपनें ध्यान में स्थापित करते हैं. गुण सहित नाम से तात्पर्य है कि "वोह सुनाने वाला है", "वो देखनें वाला है" और "वोह जानने वाला है". इसके मध्य सदगुरुदेव का एकनिष्ठ सानिध्य नितांत आवश्यक है. "सतनाम" के जाप को 'नाभि' से ऊर्ध्व-गति देते हुए सिर के तालू तक ले जा कर वहां केन्द्रित करते हैं. इसकी दो स्थितियां है. प्रथम स्थिति यह है कि इस जाप को एक 'श्वासोच्छ्वास' के साथ एक बार करते हैं. द्वितीय स्थिति यह है कि इसको श्वासोच्छ्वास की अवधि में एक-सौ बार करते हैं. इस साधना के चढ़ाव और उतार की गतियों की क्रमवार पुनरावृत्ति करें; जैसा कि पूर्वनिर्दिष्ट विधान है. "जुमले कबीर" (परवर्ती) स्थिति का अनुष्ठान जब करें तो ध्यान रक्खें कि सदगुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य के मध्य, प्राणवायु रोक कर जाप करें और इस जाप की क्रिया का उस सीमा तक विस्तार करें कि 'चित्तभूमि' की पंचम स्थिति अपनी निरुद्ध अवस्था को प्राप्त कर ले. (योग में चित्तभूमि की पांच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अर्थात वह अवस्था जिसमें वोह अपनी कारणीभूत प्रकृति को प्राप्त हो कर निश्चेष्ट हो जाता है) जो अभ्यासी अपने सयम के द्वारा निद्रा और क्षुधा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं उनके लिए इस जाप के अनुष्ठान की सिद्धि अति सरल एवं निश्चित है।
ज़िक्र हद्दादी (लोहारी) - "ला इलाह" (नहीं है कुछ पूजा के योग्य) को खींच कर गुरुदेव की शक्ल का ध्यान बाँध कर बाएं तरफ से प्रारम्भ करें और दोनों घुटनों के बल खड़े हो जायं और फिर इल्लिल्लाह (सिवाय उस परमात्मा के) के लफ्ज़ (शब्द-भाव) को खूब जोर से दिल की फिजा (मानस पटल) पर ठोकर लगा कर बैठ जायं. इस क्रिया की उपमा एक क्रिया-शील लोहार की मुद्रा से दी जाती है; जिस प्रकार वह दोनों हाथों से हथौढ़े का प्रयोग लोहे पर भर-शक्ति करता है. इस जाप के आयाम का विस्तार इस सीमा तक करें कि लगाव और आनंद की लहरों में डूबनें लगें. यह एक श्रम-साध्य क्रिया है।
पास-अनफास - जाप - इसकी रीति यह है कि "नहीं है कोई पूजा के योग्य" की शब्दावली प्राणिक-प्रवाह की गति पर बाहर निकालें और शब्दावली - "सिवाय उस परमात्मा के" में लय प्राण-वायु को ऊर्ध्व - गति ऊष्मा दें और प्रत्येक श्वास - प्रश्वास के साथ ऐसा ही करें और इसका तार बाँध देवें तथा आंतरिक-दृष्टि अपनी नाभि पर केन्द्रित करें। इस जाप के आयाम का इस सीमा तक विस्तार करें कि 'सोते-जागते निरंतर यह जाप चलता रहे। इस जाप के अभ्यासी की आयु दो-गुनी हो जाती है।
ज़िक्र - अर्रा, 'पास-अनफास' जाप की दूसरी विधि का नाम है। इसकी रीति यह है कि "ॐ"शब्द की स्वनिक संरचना के बलाघात को ऊर्ध्व-गति देते हुए निर्वाक-जाप 'हरी-ॐ' का करें, और प्राण को इस जाप का आधार बनाएं वोह इस प्रकार की - प्रश्वास की गति पर 'हरि' और श्वास पर 'ॐ' का उच्चारण करें। ऐसा करनें में हृदय की जिव्ह्या को यंत्र बनाएं। इसके तार को टूटनें न दें। इस क्रिया में पर्याप्त का निर्माण होता है अतः बादाम-तेल का प्रयोग करें। इस जाप की सर्वांग -पूर्णता (कमाल) जागृत करें, चित्त की निरुद्ध स्थिति में जाप होता रहे।
क्रमशः ... ... ...
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