रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कृतिकार का संछिप्त जीवन-वृत्त

सूफी रहस्यवाद में "प्रसर्जन के सिद्दांत" के अंतर्गत परात्पर-सत्ता जो हमारे लिए पूर्णरूप से अव्यक्त है, गुणों के आधार पर, २८ नाम बताए गए हैं और उनसे प्रवृत्त २८ ही रूप भी हैं; इनमें अंतिम और पराकाष्ठा को प्राप्त स्वरुप को "इन्सानुल कामिल" की संज्ञा दी गयी है। लक्षणों के आधार पर "इन्सानुल कामिल" और "स्थित-प्रज्ञ" दोनों एक दूसरे के पर्याय जान पड़ते हैं। इस उत्क्रष्ट कृति के लेखक, परम संत सदगुरु महात्मा रामचन्द्रजी (लालाजी) महाराज, स्वयं जिसके सुस्पष्ट हस्ताक्षर हैं।

लालाजी की अंतर-ज्योति को, एक प्रदीप्त-सूफी संत एवं समर्थ सदगुरु, हज़रत शाह ख्वाजा मौलवी फजल अहमद खां साहेब (रहमतुल्ला-अलेहि) रायपुरी ने जगाया था, जो कि नक्श्बंदिया-मुजद्ददिया-मज्हरिया सिलसिले के  तत्कालीन स्तम्भ माने जाते हैं। उन महामना के साथ आपके इस दिव्य एवं पवित्र सम्बन्ध के विषय में एक विशेष महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि धर्म-मर्यादा के इतिहास में यह प्रथम उदाहरण प्रस्तुत हुआ कि इन दोनों के बीच 'गुरु-शिष्य सम्बन्ध की स्थापना बिना औपचारिक धर्म-परिवर्तन किये हुए २२ जून १८९६ को संपन्न हुई। इतना ही नहीं ११ अक्तूबर १८९६ को आपके सदगुरुदेव ने आपको पूर्ण गुरु एवं आचार्य पद भी प्रदान किया  और दक्षिणा-स्वरूप यह वचन लिया कि जिस प्रकार मालिक के नाम पर उनके साथ किया गया, वैसे ही वे भी दीन-दुखी प्राणियों का उपकार व उद्धार, निष्काम-प्रेम व निःस्वार्थ भाव से करते रहें। अपने गुरुदेव के आदेश का आपने अक्षरशः पालन किया तथा उसका सुफल आज भली भांति सुस्पष्ट है। आपने अपने प्रीतम के नाम पर वोह आनंदमयी लीला की कि कदाचित ही किसी अन्य संत को ऐसा सौभाग्य मिला हो।

आपका जन्म ०३ फरबरी (बसंत पंचमी) सन १८७३ को एक अवधूत संत के आशीर्वाद स्वरुप फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) में एक अधौलिया (सक्सेना-कायस्थ) परिवार में हुआ। सात वर्ष की अवस्था में आपकी मानस-भक्ता माँ (श्रीमती दुर्गा देवी) और लगभग बीस वर्ष की अवस्था में आपके पिता, चौधरी हरबक्श राय अधौलिया का स्वर्गवास हो गया। अंग्रेजी मिडिल पास करके आप सरकारी नौकरी में आ गए और तीस जून १९२८ को सेवा निवृत्ति ली।

आप दो भाई थे; छोटे भाई महात्मा रघुबर दयाल जी, मात्र आपके अनुज ही नहीं प्रत्युत सही अर्थों में आपके अनुयायी भी थे। इस परम्परा में "राम-भरत की जोड़ी" की भाँति, आप स्वयं "लालाजी" और आपके छोटे भाई "चच्चाजी" के उपनाम से स्मरण किये जाते हैं। महात्मा रामचंद्र जी महाराज, पूर्ण योगी और ब्रह्म-वेत्ता ही नहीं थे, वरन पूर्ण सद्गुरु भी थे. योग की उच्चातिउच्च अवस्थाओं को प्राप्त करने के समस्त साधनों पर उनका पूर्ण अधिकार था। तत्त्व-ज्ञान के मार्ग के विभिन्न गली-कूंचों से वे भली भाँति परिचित थे। एक कुशल वैद्य की भाँति वे अपने शिष्य को उसकी प्रक्रति आदि के अनुकूल सीधे तथा सहज मार्ग पर लगा देते थे, जिससे वोह उत्तरोत्तर उत्कृष्ट दशाओं को प्राप्त करता जाता था।

इतना ही नहीं, वह  प्रभु के विशेष प्रतिभाशाली भक्त थे। गुप्त-रहस्यों की सरल भाषा में विवेचना करने की उनमें अपूर्व सामर्थ्य थी। परम गुह्य विषयों का चित्र सा खींच कर रख देते थे। उनका वर्ण्य विषय आलोचना की सीमा से परे है, क्योंकि वह अनुभवगम्य है। अनुभव-हीन, कोरा आलोचक भटक कर अपना ही उपहास कराएगा। विषय गंभीर है, अतएव, अच्छी प्रकार से समझनें के लिए बार-बार पढने की आवश्यकता है। उनका दार्शनिक ज्ञान केवल हिन्दू धर्म और परम्परा तक ही सीमित नहीं था - वे इस्लाम दर्शन के भी प्रकांड पंडित थे। उनके ग्रंथों में दोनों का अपूर्व और अद्भुत समन्वय हुआ है। ब्रह्म-विद्या के विभिन्न रत्नों को किसने कैसे सजाया है, इसकी झांकी दिखानें का श्रेय श्री श्री लालाजी महाराज को ही प्राप्त है।
वर्ष १९३१ के अगस्त माह की चोदहवीं तारीख देर-रात्रि तक श्रीमान लालाजी महाराज प्रत्यक्ष रूप से धरती पर दिव्य-शक्ति की साक्षात ज्योति के सद्र्श आलोकित होते रहे और भौतिक जीवन की अंतिम  तक श्वाँस तक पीढ़ित मानवता के लिए समर्पित भाव से कार्य करते रहे हैं, पुनः उसी परम सत्ता में विलीन हो कर आज भी उसी कार्य में निमग्न और विद्यमान हैं।

 प्रणति
 इस उत्कृष्ट कृति के लेखक परम संत सद्गुरु श्रीमन महात्मा रामचन्द्रजी महाराज, नक्श्बंदिया-मुजद्ददिया-मज़हरिया सिलसिले के हिदी-सूफी-कुल की फतेहगढ़ स्थित पीठ के आदिगुरू एवं प्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। इस पुस्तक में आपने प्रत्त्यय-वादी साधना पद्यति का सूक्ष्म अनुभव-आधृत विवरण प्रस्तुत किया है। फलस्वरूप साधकों के लिए यह  पुस्तक बड़ी महत्त्वपूर्ण है तथा उनके साधन -मार्ग के दिन-प्रतिदिन के मार्गदर्शन का अनिवार्य पाठ है। 

पूर्व प्रकाशित दो संस्करणों में जहाँ एक ओर विषय-वार वर्गीकरण का अभाव था, अरबी-फ़ारसी बहुल  उर्दू भाषा, जिसे समझने में सामान्य पाठक अपने को असमर्थ पाता था, वहीँ दूसरी ओर बीच-बीच में पर्याप्त महत्त्वपूर्ण सामिग्री छूट जाने से पाठ का तारतम्य  टूटता था, इत्यादि इत्यादि।  इसी प्रकार की अनेकों कठिनाइयों को इंगित करते हुए पत्र आते रहे और निरंतर यह दबाव डाला जाता रहा कि इसका पूर्ण और अबाधित पाठ उपलब्ध कराया जाए। यह सब कुछ जुटा पाने में बहुत समय लग गया। यह कहना कठिन है कि पाठकों की आशापेक्षाओं के अनुरूप यह बन पाया या नहीं, अतः  इस  उपहार को क्रपया स्वीकार करें और हमारे मार्ग-दर्शन का क्रम अविछिन्न बनाए रक्खें।

इस कार्य के सम्पादन में बड़ी घबराहट रही है  कि कहीं किसी स्थान पर ऐसी कोई भूल या भ्रान्ति न उपस्थित हो जाए जो मूल पाठ एवं मंतव्य को बाधित कर दे। अतैव इस  कार्य में सतत, परमपिता श्री श्री दादागुरु भगवान् श्री लालाजी महाराज से आंतरिक प्रार्थना चलती रही है कि दया व कृपा बनाए रक्खें जिससे जैसा वे चाहतें हैं वैसा ही सम्पादन हो तथा अपने प्रमाद के कारण कहीं कोई भूल या भ्रान्ति न हो जाए.

प्रणति की इस बेला में सर्वप्रथम सिलसिले के दो महान स्तम्भ सद्र्श संतों को सादर स्मरण करना मेरा कर्तव्य एवं दायित्व बनता है, जिन्होंने एक क्रान्ति की तथा इस अमृत को धर्म और जाति के बन्धनों से मुक्त करके मानव मात्र  के लिए सुलभ बनाया।

श्रद्धा बिंदु श्रीमन मौलाना फज्ल अहमद खां साहेब रायपुरी (ईष्वर की कृपा उनपर हो) जो दादागुरु श्री श्री लालाजी महाराज के दयालुगुरु थे, जिन्होंने उन्हें यह अमृत पिलाया तथा बिना भेद-भाव के यह संजीवनी  पीड़ित मानवता में वितरित करने का आदेश दिया।

श्रीमन श्रद्धेय शाह कलीमुल्लाह साहेब जहानाबादी (ईष्वर की उनपर कृपा हो) बड़े उच्च कोटि के संत  एवं दिव्य विभूति हुए हैं - उन्होंने यह स्पष्ट किया क़ि अभ्यास के क्रियान्वयन में पूर्व-वत चली आ  रही अरबी की तकनीकी शब्दावली के प्रयोग का बंधन नहीं है। हिन्दू भाइओं  को   हिंदी नामों, ईरानी भाइओं को फारसी के नामों, अंग्रेज़ी भाइओं को अंग्रेजी के नामों, बंगाली भाइओं को बँगला के नामों का प्रयोग बताना चाहिए और उनकी भाषा और आस्था के अनुसार शिक्षा देंनी चाहिए।

इस प्रकार यह गुह्य विद्या दादागुरु महात्मा रामचंद्र जी तथा उनकी शिष्य परम्परा के अधिकार प्राप्त  पीठासीन आचार्यों द्वारा ऐसी शिक्षा पद्यति एवं कर्म-काण्ड को अपनाया गया क़ि अब तो किसी-किसी संकुल के अभ्यासिओं को देख कर यह आभास भी नहीं होता क़ि यह "परम्परा कभी मुसलमान-सूफियों की अपनी ही धरोहर थी।

यहाँ पर प्रणाम और श्रद्धांजलि के इस क्रम में अपने श्वसुर श्री-श्रीमन महात्मा जगमोहन नरायण जी को सादर नमन करती हूँ। इस कार्य (work) के साथ दादागुरु श्रीमन श्री श्री लालाजी महाराज के संछिप्त  जीवन-व्रत्त देने की इच्छा एवं अपेच्छा हुई, जिसको मैं स्वम भी लिख सकती थी - मुझे एक युक्ति सूझी, दादागुरुदेव की ही एक अन्य पुस्तक "तत्त्व प्रबोधिनी" में प्राक्कथन शीर्षक से लिखा गया आपका संछिप्त जीवनवृत्त मुझे मिल गया जो श्री श्री श्वसुर जी महात्मा जगमोहन नरायण द्वारा लिखा गया है। मैनें यह उचित समझा क़ि इस कृति के लिए, स्वयम न लिख कर उसको ही इसके अनुकूल किंचित परिवर्तन कर प्रयोग कर लूँ। सचमुच मैं अपने आप को उन महान दिव्य-विभूति के समक्ष बड़ी दीन एवं अकिंचन अनुभव करती हूँ, कदाचित नीरांजन के इस महत्त्वपूर्ण दायित्त्व का निर्वाह न कर पाती। नीरांजन करने वाला भी तो कोई समर्थ पुजारी ही होना चाहिए। मैनें इसी द्रष्टि से यह धृष्टता की है। मैं  आभार स्वीक्रति के साथ क्षमा-प्रार्थिनी भी हूँ। अपनी पुत्र-वधु की गुस्ताखी को स्नेही श्वसुर क्षमा करे।

अपनी रचनाओं में मुझे अपने विद्या-गुरु, डॉ. ब्रजबासी लाल जी (उरई), पूर्व कुलपति बुंदेलखंड विश्वविद्यालय तथा अपने पतिदेव श्री दिनेश कुमार जी का सक्रिय सहयोग मिलता रहा है। इन महानुभावों के आग्रह-वश मै इस आभार को मनसा पूरा कर लेती थी, किन्तु आज ऐसा अनुभव कर रही हूँ कि यह मेरी भूल थी; दायित्त्व निर्वाह तो करना ही चाहिए था - अतएव क्षमा याचना सहित आभार व्यक्त कर रही हूँ। यह आभार इस प्रार्थना के रूप में व्यक्त करना चाहती हूँ- 

"परमपिता परमात्मा श्री श्री दादागुरुदेव लालाजी महाराज की इन दोनों विभुतिओं पर विशेष दया व कृपा हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में फैज़ व करम से इनको समस्त ऊंचाइया तथा उपलब्धियां सुलभ हों, जिससे यह महानुभाव सिलसिले की सेवा के आदर्श उपस्थित कर सकें". 
सम्मानित पाठकजन भी अपनी भाव-भावनाओं के साथ मेरे साथ हैं. हम लोगों की प्रार्थना एवं याचना स्वीकार हो और ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!ऐसा ही हो!!!
दादागुरु श्रीमान महात्मा जी के संकुल में अन्य सभी आचार्यों एवं उनके "मिशन" के प्रचार-प्रसार में रत सभी बहिन-भाईओं के प्रति सादर नमन करती हुई,
स्नेह-कांक्षी 
सुमन    

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