रविवार, 13 फ़रवरी 2011

उपपत्ति सर्ग

चमत्कार प्रियता-प्रमुख बाधा 
 साधक को चमत्कारप्रियता का प्रायः प्रलोभन हो जाता है। अग़र पंथायी को आध्यात्मिक - मार्ग और उस पर अग्रसर होने में यह भ्रान्ति हो कि वोह आसमान, सितारे, सूर्य और चन्द्रमा के प्रकाश को देख रहा है और छाया और प्रतिमाओं का ध्यान बांधे या उसको दूसरे व्यक्तिओं की अनुभुतीओं का आभास होने लगे अथवा रूहों व आत्माओं से सम्बन्ध हो कर उन पर अधिकार हो जावे या गुप्त विद्याओं को जाननें या सिद्धियों और शक्तों पर अधिकार करनें में लग जावे या अमल और ताबीज़ सिद्ध करनें में लग जावे, तो यह सब रजोगुणी और तमोंगुनी वासनाएं हैं।

प्रायः यही देखनें में आता है कि लोग अभ्यास और योग को केवल चमत्कार - प्रियता की दृष्टि से देखते हैं। उनको चाटक - नाटक देखनें और ऋद्धि - सिद्धि प्राप्त कर अपनें सांसारिक प्रयोजन की पूर्ति का हेतु ही वास्तविक लक्ष्य होता है। जब यह वासनाएँ फलीभूत नहीं होती, बल्कि वास्तविक लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति की ओर संकेत किया जाता है तो निराश हो कर अपनें घर बैठ जाते हैं और कहने लगते हैं कि जिनके पास हम योग का अभ्यास सीखनें गए थे, वह महात्मा नहीं हैं और न ही उनको कुछ सिद्धि है। 

ये प्रयोजनार्थी ("अह्लेगर्ज़") दो प्रकार की इच्छाओं को ले कर आते हैं। प्रथम तो वे जो प्रकट तौर पर तो उनका लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति और अपने - आप को उनका सच्चा सेवक बनाना होता है। इसकी प्राप्ति हेतु वे साधु - महात्माओं से मिलनें की इच्छा करते हैं, उनके - पास जाते हैं और उनके प्रसाद - स्वरूप इनकी सांसारिक - वासनाएं भी यदा - कदा ईश्वर इच्छा से पूर्ण होती - जाती हैं। किन्तु यदि ईश्वर - भक्ति और उसकी जिज्ञासा के साथ-साथ उनकी सांसारिक-वासनाएं पूर्ण नहीं भी होती तो उनको कुछ दुःख नहीं होता और न कुछ चिंता इस बात की होती है कि उनकी इच्छा उनके अनुसार पूरी नहीं हुई, क्योंकि उनका वास्तविक लक्ष्य तो मात्र ईश्वर-प्राप्ति ही था, न कि, सांसारिक वासनाएं। इस प्रकार के जिज्ञासु हज़ारों की संख्या में मात्र एक-दो ही होते हैं।किन्तु दूसरी प्रकार के जिज्ञासु बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं, वोह यह कि ईश्वर की भक्ति अपनी सांसारिक-इक्छा-पूर्ति के हेतु करते हैं। वास्तविक लक्ष्य उनका संसार ही होता है, जो उन्हें मिले। इसके मार्ग में साधू-महात्माओं के सत्संग और उपदेश से उनका कभी-कभी संस्कार जाग जाता है तो ईश्वर प्राप्ति हो जाती है। सांसारिक वासनाएं कभी उनकी इच्छानुसार पूरी हो जाती हैं और कभी नहीं भी। यदि सांसारिक-लक्ष्य उनका पूरा नहीं होता तो वे निराश हो कर अविश्वासी हो जाते हैं और साधु-महात्माओं में उनकी आस्था शेष नहीं रह जाती, अंततः उनको न दुनियाँ मिलती है न ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग।

खेद है कि इस प्रकार के जिज्ञासु हर-ओर दृष्टि-गोचर होते हैं और प्रभु का मार्ग खोजनें वाला कोई नहीं मिलता।

उपुर्युक्त  इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए  जहां सद्गुरु स्वम् दिव्य (ईश्वरीय) कृपा-दृष्टि में स्वम् सराबोर रहते हैं व जिज्ञासु अभ्यासियों के हृदयों में भी उसकी अनुभूति अपनी इच्छा-शक्ति से प्रवेश कराते हैं, वहीं वे जान-बूझ कर दो-चार बातें चाल-ढाल में ऐसी प्रगट कर देते हैं जिससे सांसारिक रूचि रखने वाले व्यक्ति उनसे अश्रृद्धा रखनें लगें, उनपर कटाक्ष करें, ताकि अहंकारी और अध्यात्म में रूचि न रखने वाले व्यक्ति उनके निकट न जावें और सत्संग में विघ्न न डाल सकें। 

उनके दरबार में किसी प्रकार का चौकी पहरा  नहीं रहता कि जो बुरे-भले या भौतिकता-वादी व अध्यात्म-वादी में भेद करके रोक-टोक कर सके। इस प्रयोजनार्थ उनकी निंदा व टीका-टिप्पणी जो सांसारिक और अहंकारी व्यक्ति करें, वही कार्य, चौकीदारी कर देती है। संसारियों और अह्म्कारिओं को दूर रखती है। ऐसे व्यक्ति शर्म - हया और भय से वहां नहीं जाते और केवल ऐसे लोग जो सच्ची चाह वाले जिज्ञासु और सच्चे व पूर्ण परमार्थी हैं, वे ही वहां पहुँच पाते हैं।

यह निंदा एक प्रकार से मुमुक्ष के लिए उनकी पात्रता की परीक्षा भी है। जो सच्चा खोजी होगा वो सद्गुरु के किसी कृत्य में शंका - दृष्टि न रख कर, परमार्थ को प्राप्त कर अपना वास्तविक लक्ष्य प्राप्त करनें में समर्थ हो सकेगा।


संशय - निवृत्ति 
यह संशय व्यक्त किया जाता रहा है कि उस सत्पुरुष, जो मन, बुद्धि सहित समस्त इन्द्रिओं की सामर्थ्य से परे है, की उपपत्ति किस प्रकार हो।

यदि कोई यह तर्क प्रस्तुत करे कि स्वच्छंद सत्ता वोह है जो मन - बुद्धि से परे है उसका ज्ञान हो नहीं सकता, क्यों कि निश्चयात्मक शक्ति के माध्यम से जिसका ज्ञान होता है वोह 'हादिस' (उत्पत्याश्रित) है और जिसका अस्तित्व सदैव स्थित नहीं रहता, किन्तु जो छवि मन, बुद्धि और इन्द्रिओं के माध्यम से चित्त - भूमि पर प्रवेश पाती है वोह जगत है और जो जगत है वोह चिरस्थायी नहीं है। सत्पुरुष, जो कि एक स्वच्छन्द सत्ता है वोह  उत्पत्याश्रित नहीं हो सकता, क्योंकि वहतो आदिकाल से है और सदैव उपस्थित रहेगा अतः वह अतीन्द्रिसंवेदी है। 

वस्तुतः संशय अर्थहीन नहीं होता है और जो आपत्ति उठायी गयी है, प्रतीयमानतः वोह उपयुक्त जान पड़ती है, किन्तु उसमें एक रहस्य यह है, वोह यह कि लय-अवस्था में सम्बन्ध जिसका कि अभ्युदय द्विधात्मक हो अर्थात मंसूब ( ध्येय ) उसके (परमात्मा) होने, उसकी उपस्थिति की स्वीकृति है, उससे अभ्यासी जिसकी समस्त संकल्प-शक्ति और ऊर्जा का केंद्र एक बिंदु में लय है, निपट संवेदनशून्य और निष्क्रिय हो जाता है, इसीको लय - प्रलय कहते हैं। यहाँ पर बोधगम्यता का न कि अभाव की बोधगम्यता।

स्वच्चान्द्सत्ता आदिकालीन है, वोह सत्पुरुष कालातीत है, जो मन व बुद्धि का विषय नहीं है किन्तु योगाभ्यासियों को जो उसका ज्ञान होता है उसके मूल में एक सिद्दांत यह है कि दो वस्तुओं के मिलाप और सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए एक तीसरी वास्तु आवश्यक होती है जिसको सुरत कहते हैं। इसी सुरत के माध्यम से जीव और ब्रह्म या माया और जीव का सम्बन्ध होता है। 

सूफी (प्रत्यय्वादियों) का यह कथन भी है कि " ज़ात " या सत्ता का समर्पण, सत्ता की ज्योति, सत्ता की वास्तविकता और सत्ता का परिचय भी होता है; अर्थात - प्रत्येक को अपने-अपने अवसर और स्थिति के अनुसार स्थान दें और प्रत्येक के  अधिकार और काम का ध्यान रहे। जिस तथ्य का मैं उदघाटन करने जा रहा हूँ वोह द्विविश्यक है - एक तो वोह, 'एक-मूल-भूत सत्ता' और दूसरा - इसके अतिरिक्त जो जो भी विषय अथवा जगत है। इसमें से प्रथम के प्रति आकर्षण एवं परवर्ती के प्रति विकर्षण, यही धर्म है। प्रथम में धर्म यह है कि अपना अस्तित्व शेष न रहे और परावर्ती में धर्म यह है कि वस्तुतः जैसा है वैसा पहिचाना जाय। प्रथम में जो धर्म निश्चय करें और दुसरे में अभाव(माध्यम) का, वह काम से दूर जा पड़ेगा, इच्छारहित हो जाएगा। सत्य को सत्य और असत्य को असत्य, सिद्ध करना धर्म है। इच्छा की प्रतिक्रिया की अभावग्रस्थ्ता से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि अह्म्कारमयी प्राणिक सत्ता से उसका संपर्क ही समाप्त हो गया। इच्छा और जिज्ञासा से परे तो मात्र वोह सत्पुरुष, वह भगवत्सत्ता ही है, जिसकी परिधि में इनका प्रवेश संभव नहीं होता। इससे आशय यह है कि उसके  स्पर्श में आ जाने पर उस अध्यात्मज्योति के अतिरिक्त सभी से विरक्ति हो जाती, किसी पर ध्यान जमता नहीं है। 

अस्तित्तव के विलय से आशय यह है कि हम उस सत्य को देखें जो अलख, अगम और अरूप है, वोह किस प्रकार से - अर्थात, देखनें से तात्पर्य, प्रज्ञा - चक्षुओं से है, न कि किसी 'इन्द्री' के माध्यम से। प्रज्ञा - चक्षुओं से देखनें की स्थिति यह होती है कि यद्यपि कि कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु आत्मा को उस सत की उपस्थिति का ऐसा पूर्ण विश्वास हो जाता है कि जैसे वह उसको देख ही रहा हो। यदि ऐसा अनुभवगम्य ज्ञानी के शरीर के कोई खण्ड खण्ड भी कर डाले तब भी वह यही कहेगा - "मैं उसको ठीक उसी प्रकार देखता हूँ कि - जैसे तू, तुम मुझको देखते हो"।

ज्ञान और विज्ञान का प्रभाव यह है कि संसार में जो भी वर्तमान है, प्रत्येक को अपने-अपने क्रम और उपयोगिता के आधार पर उनका उपयोग करे और सभी का ज्ञान इस प्रकार से हो कि कुछ भी बेकार न समझें और उसका सही प्रयोग जानें। प्रत्येक के क्रम और स्थिति का ध्यान रक्खें अर्थात जैसा जिससे व्यवहार करना चाहिए ठीक वैसा ही करें।

अब हम अपने मुख्य बिंदु अर्थात जो कहना है वह यह है कि -

प्रथम यह कि, वह शुद्ध-शाश्वत सत्ता, जो त्रिगुणातीत है, अर्थात, अनासक्त व निर्गुण ब्रह्म है। और, 

द्वितीय यह है कि इस के अतिरिक्त माया और गुणों (सत, रज तम) का मिश्रण है। 

अब, सत व समस्त श्रृष्टि के स्वामी के मिस यह सिद्ध करने का हमारा दायित्व है कि वह 'अजन्मा' है ; चिरकाल तक विद्यमान रहेगा,अर्थात- अब उसकी सत्ता को प्रतिष्ठित और प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है और वह प्रयास यह है कि उस परम सत्ता को अपना चरम लक्ष्य स्वीकार करके उसके मिलाप और स्पर्श की प्राप्ति के समस्त प्रयास करते है और यह ही आकर्षण है, इसके विपरीत जो मायावी-क्रीड़ा का मिश्रण अथवा 'सांसारिक-पदार्थ' है उनसे दूर जाने का प्रयास करते हैं - यह विकर्षण है। 

तो अब ज्ञान-विज्ञान का यही कार्य है कि निज को न पहचाने और नितान्त उसका ज्ञान न हो सके, शेष दूसरी वस्तुओं के  निमित्त उसका यह कार्य है कि जो जैसी योग्यता और स्थिति की है, उसको वैसा ही स्थान दें। अतः यह सिद्ध होता है कि निज और सत्य पद के अभिज्ञान का संकल्प करें और शेष दुसरे मायावी पदार्थों के अज्ञान का, अन्यथा अभ्यासी काम से दूर जा पड़ेगा। इसलिए सत्य को सत्य और असत्य को असत्य सिद्ध करना, ज्ञान और विज्ञान का कार्य है। परिणाम यह होता है कि ज्ञान-शक्ति, शुद्ध-शास्वत सत्ता और सत-पद को यह सिद्ध करती है कि 'वह' जाना नहीं जाता, तब है और निःसंदेह है। इस प्रकार से पूर्ण विश्वास हो जाना, दृष्टि कहलाता है और यह ही प्रत्यक्ष-सत्ता है; प्रत्यक्ष-सत्ता से तात्पर्य है कि उस सत्ता के अतिरिक्त शेष और सब की जो कि है,  से विरक्त हो जाय, उनका कोई आकर्षण शेष न रहे। 'प्रदीप्त-सत्ता का अर्थ यह है कि यह सभी वाह्य-चक्षुओं से दिखाई देने वाली वस्तुएं भी प्रज्ञा-चक्षुओं से ओझल हो जाएं। प्रदीप्त-सत्ता, सत के प्रकाश या 'अध्यात्म-ज्योति' को कहते हैं, उसका कोई रंग-रूप या दृश्य नहीं होता, प्रत्युत इससे 'ज्ञान-प्रकाश' की ओर संकेत है। भावनात्मक-वृत्ति का अर्थ है कि समस्त सांसारिक पदार्थों से लगाव समाप्त हो जाय और उनसे लेश-मात्र भी मोह शेष न रह जाय। अध्यात्म-वृत्ति से तात्पर्य है कि समस्त भोग-विलास की सामिग्री से विरक्ति हो जाय क्योंकि परमात्मा का ज्ञान मात्र नाम-गुण और कर्म के ही सम्बन्ध में हो सकता है और परमात्मा के गुण,कर्म और स्वभाव और नाम ही का ज्ञान की जानकारी हो सकती है, शुद्ध शाश्वत सत्ता की नहीं और यह ज्ञान भी केवल इस सीमा तक ही हो सकता है कि अमुक स्थिति उत्पन्न हुई, किन्तु यह किस कारण या किस प्रकार हुई, यह ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि कारण के ज्ञान का मार्ग अवरुद्ध है और इस अवरुद्धता का कारण यह है कि जोकुछ भी हेतु हो सकता है और है वह सब परमात्मा का सत्यव्रत है। क्योंकि परमात्मा समस्त तथ्यों का तथ्य है और इस तथ्य के सम्बन्ध में जान  किसी व्यक्ति या देव इत्यादि की सामर्थ्य में नहीं है। किसी वस्तु का तथ्य समझ में नहीं आ सकता यही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। ठीक ही कहा है "मैंने यह जाना कि कुछ नहीं जाना" ज्ञानियों के ज्ञान की इती यह है कि वे कुछ नहीं जानते।



बिघ्न - निवारण  
साधन - पथ के कंटक सामान्यतः दो प्रकार के हैं - प्रथम ; आध्यात्मिक और द्वितीय ; भौतिक। अध्यात्मिक कंटक, मन की अ-स्थिरता एवं दूषित वृत्ति के कारण आते हैं। भौतिक कंटक भौतिक वासनाओं एवं भोगों के कारण-स्वरूप आते हैं।

हृदय में केवल उस परमेश्वरी-सत्ता की अभीप्सा ही प्रतिष्ठित हो, यह साधना का अभीष्ट है। इसके अतिरिक्त दुसरे विचारों का आना और पर्याप्त प्रयास के उपरान्त भी उनका निषेध न हो पाना, यह आध्यात्मिक-बिघ्न या कंटक है।

इस व्याधि के मूल में तीन कारण हैं -
(01) उसमेंसे एक कारण यह है जिसको कि 'मनोमयप्राण' कहते हैं। मनोमय-प्राण यह है कि संकल्पों का चित्त-भूमि पर उतरना; ऐसे संकल्प जो निरंतर अपनें मन में सोचने-विचारने से, एकांत में और लोगों के बीच में अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार आया करते हैं, उनको मनोमय प्राण कहते हैं। यह मन का यह एक विशेष कार्य है।
(02) द्वितीय अवस्था आशंका या असमंजस की है; यह चित्त का विशेष कार्य है। यह विचार बिना क्रम और सामर्थ्य के आया - जाया करते हैं। इसमें सोच-विचार का कोई हस्तक्षेप नहीं है। 
(03) तृतीय अवस्था यह है कि देखनें, सुननें, छूने, स्वाद-लेने से या ज्ञान से विचार उत्पन्न होते हैं। इस रोग की उचित चिकित्सा यह है कि अपनें अंतःकरण को अधिक-से-अधिक सत के जाप में व्यस्त रक्खें। जो कि विचार अपनी इच्छा और सामर्थ्य से आया करते हैं उनके मिस यह कहना चाहिए कि इन विचारों के स्थान पर सतनाम को अपनें सामने रक्खें। इस क्रम में 'ॐ' महामंत्र है, इसको जपना चाहिए। 

जो विचार "आशंका" की श्रेणी में आते हैं, अर्थात जो बिना इच्छा और सामर्थ्य के आते हैं, उनके मिस गुण सहित नामों का जाप समीचीन है, उदाहरणार्थ विष्णु के सहस्त्र-नामों में से किसी एक का या महेश या रूद्र के नामों का जाप किया करें और आतंरिक-दृष्टि अपनें सदगुरुदेव की आस्था में लगाए रक्खें जिसको कि 'एक-निष्ठ सानिध्य' कहते हैं। सदगुरुदेव का दर्शन या उनके सानिध्य का प्रथम गुण यह है कि उसकी 'इतिश्री' नहीं होती। अतः इस मार्ग में साधना-पथ पर कोई आशंका या अस्तित्तव-हीन विश्वास तुम्हारे पीछे पड़ जाए और तुम उस से भागनें की चिंता में हो किन्तु अथक प्रयास के बाद भी वह विचार और आशका परे नहीं हटती तो अपनें सदगुरुदेव के एकनिष्ट सानिध्य उनके सुक्ष-शरीर का आवाहन करो, साक्षात देखो कि वे तुम्हारे बीच विचरण करते हैं और तुम्हारे जीवन-सलिल पर उनका श्वास प्रसारित होता है - तुम  अपनी निजदृष्टि से देखो, वे निरंतर प्रेम की, आनंद की, अपार हर्ष की वर्षा करते हैं। मेरा अपना अनुभव है कि इससे लाभ होना चाहिए।

किन्तु दुर्भाग्य यदि अभी-भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता तो एक दूसरी क्रिया तुम्हें बताता हूँ - कि मस्तिष्क (मानस-पटल) को रिक्त करनें का प्रयास करो; वह इस प्रकार कि नासिका-मार्ग से पर्याप्त ऊर्जा के प्रहार से श्वास को निकालो और पुनः इसी पूर्वलिखित अवधान का विस्तार करो और सदगुरुदेव का आश्रय लो। ईश्वर न करे, और यदि यह काँटा अभी-भी तुम्हारे निकाले से नहीं निकलता तो ईश्वर के गुण सहित नाम का, उसके अर्थ-सहित निर्वाक उच्चारण करते रहो। यह क्रिया अत्यंत ही प्रभाव-शाली है। उस विचार के समक्ष यदि अभी भी तुम भीरु पड़ते जा रहे हो और वह तुम्हे छोडनें को नहीं जान पड़ता तो तुम अपनी पूर्ण तत्परता के साथ अवसर पा कर उसे (जो तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता) पर्याप्त पुष्ट रूप से पकड़ कर नाभि के ऊपर से धुंए के आकार में ले-कर ऊपर उठा कर सिर की चोटी तक ले आओ और पुनः उसके प्रवाह को दाहिनें-बाहु-मूल की ओर ला कर पीठ की ओर छोड़ दो और उसका शेष भाग जो हृदय पर बाईं-ओर है, श्वांस जो रुकी हुई है छोड़ दो और और ऐसा करते समय 'ॐ' का प्रज्ञाघात, हृदय पर लगाओ। ऐसा बार-बार करो। हो सकता है वह कंटक अभी भी निकानें पर नहीं आ रहा हो तो कुछ समय के लिए उसकी चिंता छोड़ कर किसी पुस्तक को देखनें या गाना-गानें में व्यस्त हो जाओ या ओर कोई दूसरा कार्य करनें लगो और थोड़ी देर के लिए उस अभ्यास को छोड़ दो। प्रायः देखा गया कि इससे लाभ होता है। 

यदि कोई दूषित अथवा अशुभ विचार या आशंका आती है तो उसको यह समझना चाहिए कि शुभ और अशुभ सब उसी सत से प्रकट हुए हैं। इसका अंतर तो हमारे द्वारा ही किया जाता है कि यह 'शुभ' है अथवा यह 'अ-शुभ' है। 'सत' और 'असत' के साथ एक-जैसा व्यवहार कर लेना अज्ञानता है। आत्मा केवल सत और असत की पहचान करती है। पहचान करनें वाला माध्यम स्वम् 'शुभ' या 'अशुभ' नहीं है अपितु उस क्रिया के समक्ष जो सत और असत के द्रश्य स्पष्ट हैं, यह दूसरी बात है। यदि उनके साथ व्यवहार यथावत हो तो कोई दोष नहीं। यदि विचार न आया करें तो शुभ विचारों का विवेक किस-प्रकार हो। अब आवश्यक यह है कि अशुभ की आशंका व उसकी जटिलता में न जा कर स्वयं उससे होने वाली हानि से बचना चाहिए। इस लिए विचार दूर करनें का अच्छा उपाय यह है कि जब दोष-पूर्ण विचार या आशंका का उदय हो तो उसमें सत के प्रकाश का दर्शन करें और अच्छे व शुभ विचार आवें तो उसमें भी वही करें। अशुभ विचारों से घबराने की आवश्यकता नहीं है अपितु केवल धर्मशास्त्र के आदेशानुसार सत को ग्रहण और अशुभ और असत का परित्याग करना चाहिए। आशंका और अशुभ-विचारों के निरोध के निमित्त यदि वह युक्ति अपनाई जाती है तो एक वैराग्य की स्थिति और उस परमेश्वरी सत्ता के प्रति अलौकिक आकर्षण उत्पन्न होगा।

विभिन्न प्रकार की इच्छाओं का अकारण ही जन्म लेना अथवा आत्माओं से संपर्क की इच्छा प्रबल होना भी इस मार्ग में एक विघ्न है जिसे भौतिक विघ्न कहते हैं इसके दूर करनें के लिए भी कुछ उपाय लिखे जाते हैं -

सर्व-प्रथम एक जाप का निरूपण किया जाता है जिसके प्रयोग-स्वरुप विभिन्न प्रकार के रोग और व्याधियाँ दूर किये जा सकते हैं और लाभ होता है। इस जाप की क्रिया यह है कि दाहिनी ओर "या-अहद" कहें और बायीं ओर "या-समद" कहें और हृदय पर "या-वतर" कहें।

सांसारिक इच्छाएँ पूर्ण करने के लिए जो जाप है वह इस प्रकार है कि रात को दस बज जानें के पश्चात एकांत स्थान पर, अच्छा यही होगा कि ऊपर छत पर जा कर, हाथ-पैर धो कर व प्रत्येक-प्रकार से शुद्ध हो कर नंगे-पाँव खड़ा हो जाय और मुहँ आकाश की ओर करके हाथ ऊपर उठा कर सत्तर बार "या वहाब" पढ़ें। 

किसी की आत्मा से संपर्क स्थापित करनें के लिए जो क्रिया है, वह इस प्रकार है कि - कोई आत्मा हो और जिस स्थान पर हो सर्वप्रथम इक्कीस बार "या रब" कहें उसके पशात "यारुहुल्रूह" कहें और ह्रदय पर प्रग्याघात करें और सिर उठा कर "याह-रूह-माशा-अल्लाह" कहें। जब इस क्रिया से अवकाश मिले तो जिस व्यक्ति की आत्मा से तात्पर्य है उसका ध्यान करें। इसके पश्चात स्वप्न या जाग्रत किसी भी अवस्था में वह आत्मा उपस्थित होगी। पूर्वलिखित जाप की क्रिया यदि दो हज़ार बार संपन्न कर ली जाय तो अभीष्ट दर्शन में सुविधा और कम समय लगेगा।

भौतिक-सम्पन्नता के लिए एक जाप यह भी है कि "हाँ-हू-ही" के निर्वाक-उच्चारण का प्रज्ञा-घात, प्रथम दाहिनी-ओर, द्वितीय बाईं-ओर और तृतीय, ह्रदय पर करते हैं।

किसी की मृत्तु हो गयी हो और उसे स-शरीर समाधिस्त करा दिया हो, ऐसे व्यक्ति की आत्मा से संपर्क करने की क्रिया इस प्रकार है कि समाधि के पास बैठें और आकाश की ओर मुह करके - "आँ किश फुली या नूरो" के निर्वाक उच्चारण का प्रग्याघात, ह्रदय पर करें और "आँ किश फुली" कहकर मृतक के समक्ष समाधी पर प्रग्याघात करें और तत्पश्चात "इनिहा आला" कहें तो या तो साक्षात और जागृत-अवस्था में मृतक से संपर्क स्थापित स्थापित हो जायेगा। मुसलमानों में मृतक का मुँह पश्चिम-दिसा की ओर हुआ करता है।

अलौकिक शक्तियों से प्रार्थनां और वेदना-निवेदन और उनसे निवृत्ति-याचना का भी अपना विधान है व उसकी एक निश्चित-क्रिया है। इसमें सर्वप्रथम - "यारब" के निर्वाक उच्चारण का प्रज्ञाघात दाहिनी पार्श्व (बगल) पर प्रवाहित करें, पुनः ऐसी ही क्रिया ह्रदय पर व तत्पश्चात "या-रब्बी" कहें। अपनी सामर्थ्यानुसार अधिक-से-अधिक इस जाप को संपादित करें। इसकी पूर्णाहुति, दोनों-हाथ उठा कर "या-रब्बी" कह कर मुँह फेरें और जो इच्छा है, ऐसा करते-समय उसे विचार में वर्तमान करें।

उपर्यक्त सभी अनुष्ठान और उनकी क्रिया का विवरण, बहुत-ही सूक्ष्म-रूप में दिया जा रहा है क्यों कि यहाँपर आशय मात्र इतना ही है  कि इनसे परिचय हो जाय और किसी प्रकार की निराशा का भाव उत्पन्न न होने पाय। यदि किसी सज्जन को इनके क्रियान्वयन की प्रेरणा होती हो तो वे अपने सदगुरुदेव से ही इसकी क्रिया और पूर्ण जानकारी एवं उनका आदेश व आशीर्वाद प्राप्त करके ही इनका सम्पादन करें, अन्यथा प्रयास करके इनकी ओर अआक्रिष्ट ही न हों और अपना ध्यान हटा लें। अपने पूज्य सदगुरुदेव की ओर अधिक-से-अधिक समर्पण की अभीप्सा करें, वे आपका कल्याण अवश्य करेगें, क्योंकि यह दायित्त्व अब उन्ही का है। 




नक्श्मुम सम्बन्ध का वर्तमान स्वरूप
गुरुमुख से प्राप्त नाम ही साधक का सर्वस्व है। नाम के रस में साधक सदैव छका रहता है। नाम का रस सूँघते ही ह्रदय, प्रेम में पागल हो जाता है, पीते ही अहंकार भस्म हो जाता है, मय - पन मिट जाता है। जिसनें नाम-रस  पी लिया उसके धड़ पर सिर नहीं रहता। शरीर के साथ जो हमारा मोह है, इस शरीर को ही, जो हम मैं-मैं समझे हुए हैं, यही सारे दुखों का कारण है। नाम-रस पी लेनें पर इस झूठे "मैं" की मृत्यु हो जाती है और सच्चे "मैं" के दर्शन होते हैं। सन-समागम का अमृत-रस तो उसी को प्राप्त होगा जिसका अंतस ज्ञान-प्रकाश से जगमगा रहा है।

नाम-रस का यथार्थ है - 'सम्बन्ध'(निःस्बत), जिसके कि साम्राज्य आ जाने पर, जिसके संस्पर्श-सुख में सो जाने पर सो जानें पर, शिष्य की निजी-सत्ता भी गुरु की उस अपार आनंद-राशि में लय हो जाती है, उसे अपनी भिन्न-सत्ता का बोध ही नहीं रहता, समस्त द्वैत मिट जाते है।

और, तब ऐसी अनुभूति होती है कि इस आनंद का औरों को क्या पता? उनके गुरु के इस नाम-रस का क्या अनुभव? यह तो 'मेरा'एकान्तिक-आनंद है। यह है भी वास्तव में स्वाभाविक ही। इस रस-रहस्य में प्रत्येक साधक यही समझता है कि गुरुदेव, मात्र उसके ही इतनें निकट हैं।

जिस संबंद का ज्ञान दूसरों को न हो उसे 'आंतरिक-सम्बन्ध' कहते हैं। आंतरिक-सम्बन्ध(निःस्बत) का अर्थ यह है कि, शिष्य गुरु की उपस्थिति को अनुभव कर, सदा-सर्वदा उनकी ओर मुड़ा रहे। उसे यह बोध बना रहे कि गुरु-शक्ति ही उसे चलाती है, पथ दिखाती है और वही हर पग पर उसकी सहायता करती है।

इस साधना का जब मूल-मन्त्र प्राप्त हो गया तो जीवन और साधना दोनों में सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि गुरु के साथ  यह सम्बन्ध और संपर्क कैसे साधा जाय? वह कौन से स्वर झंकृत करें जिससेकि वह उन्ही से मार्ग-दर्शन प्राप्त करे और उसके अनुसार कार्य-सम्पादन करे। किन्तु वह मूढ़ यह नहीं जानता कि स्वं उसे कोई नया तार लगाने की आवश्यकता ही नहीं है, उसे नयी संचार-व्यवस्था खड़ी करनें की आवश्यकता नहीं है। गुरुदेव स्वयं यह रास्ता बना देते हैं। वे स्वयं उसके पास आ पहुँचते हैं और उसकी चेतनां को व्यवस्थित करते हैं, जो कुछ कहना है वे कहते हैं और जो करना है वह कर देते हैं। शिष्य को बस उनके साथ नाता जोड़ना है और संपर्क-धारा को चालु कर देना है। उसकी ओर से मात्र इतना ही आवश्यक है, शेष सब वे स्वयं कर देंगे।

जहां तक सम्बन्ध के तात्विक-स्वरुप का प्रश्न है, मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि यह एक स्थिति है, जिसका वर्णन ऊपर आया है। अब बात आती है आज और वर्तमान की, उसकी बावत भी मेरा यही मत है कि यदि दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाया जाय तो विषय का विस्तार अनावश्यक बढ़ जायेगा और चित्त पर प्रभाव उसका जैसा होना चाहिए, नहीं भी होगा। अतः यही समीचीन समझता हूँ कि अपना निज ज्यों का त्यों आपके समक्ष रख दूं, सत्य छन कर आप से आप ऊपर आ जाएगा।

आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व में एक ऐसे बिंदु पर स्थित था, जहां पर मेरे समक्ष असंख्य मार्ग दृष्टि-गोचर होते थे, मैं चपकुलिश स्थिति में था कि इन मार्गों में से किस पर चल निकलूँ। बुद्धि और विवेक, दोनों थे किन्तु इनमे से एक से भी सहायता की आशा न दिखी क्योंकि हर मार्ग पर कुछ-न-कुछ व्यक्ति किसी पर थोड़े, किसी पर अधिक चल रहे हैं - और उन सबसे परिप्रक्छा करनें पर प्रयेक टोली साथ ले चलने के लिए मात्र अन्व्वय (राजी) ही नहीं अपितु प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रत्ययानुसार (समझ के अनुसार) युक्तियाँ प्रस्तुत करके यह प्रयास करता था कि मेरे चित्त का झुकाव उनकी ओर उन्मुख हो जाय। उनकी कोई भी युक्ति चित्त-स्पर्शी प्रतीत न होती क्योंकि दृष्टि चकाचौंध हो रही थी और निर्णायक शक्ति इस खिचाखिची के कारण एक बिंदु पर हो पानें के लिए सचेष्ट न  हुयी। परिणाम यह हुआ कि किंकर्तव्य-विमूढ़ता की स्थिति को गति मिली।

अंततः एक दिन ऐसा आया कि उस परमपिता ने अपनी कृपा से मेरी ओर दृष्टि की और अपनी ईश-सत्ता को सजीव और साक्षात प्रेमावतार मनुष्य-रूप में सच्ची सहानुभूति करनें के लिए मुझ तक पहुँचा दिया। यह विश्व-रूप दर्शन था जिसनें आत्म-भाव दर्शन के रूप में आ कर मेरी शुभेक्षा की और मेरा हाँथ पकड़ कर पलक झपकते मुझको कहीं-से-कहीं ले जा कर खड़ा कर दिया। यह वह स्थिति थी जहां श्रृष्टि की प्रत्येक वस्तु महात्म्य और प्रताप के साथ दीप्तिमान होती थी। मैनें जो देखा वह देखा और जो पाया सो पाया। पाठक इसका दृष्टांत श्री मद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 27-30 में इसका अनुशीलन कर सकते हैं, जहां पर अर्जुन निराश हो कर अपने शस्त्र रख देते हैं और ठीक मेरी ही तरह निराश हो कर आशा और भय-मिश्रित स्थिति में फँस कर अपनें पदेन दायित्व का निर्वाह करने से नकार दिया था। यदि इस अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण अपने महात्म्य और प्रताप के साथ अर्जुन को उस स्थिति से खींच कर न ले जाते और पुनः उसकी अनुनय विनय पर अपनी कांतिमयी छवि उसके ह्रदय में स्थापित न कर देते तो परिणाम स्पष्ट था। तात्पर्य यह है कि मैं सफलता के राजपथ पर ला कर खड़ा कर दिया गया और मुझको मेरे कर्तव्य की पगडंडी पर अकेला ही नहीं छोड़ा वरन अपनी छोटी सी स्मृति-छवि धारण करके मेरे काले और अपवित्र ह्रदय-प्रकोष्ठ में चिर-वास की आस्था जागृत कर दी। वह मोहिनी छवि मेरे अंतस में क्या बसी कि मैं तो अपना अस्तित्व ही विस्मृत कर बैठा और ऐसी अनुभूति बलवती हुयी कि मानों मैं कण-कण उनके अस्तित्व में विलीन हो रहा हूँ, वह मेरी नस-नस में अपना रंग, केवल उनका अपना रंग, भरते जा रहे हैं, पुनः मेरी चेतना जागी, जहां वह नहीं, मै ही मै था औए अंत में यह 'कि न वह और न मैं, दोनों विद्यमान और दोनों अंतर्ध्यान, दोनों ही स्थितियां धीरे-धीरे सम अवस्था पर आ गयीं। जैसा था वैसा रहा।

मिलन की इस मधुर-मंगल बेला में यदि मैं "लज्जित हो कर घूंघट सरका लूँ तो पिय रूठ-कर चला जाय और मैं हाथ मलती रह जाऊं" और "यदि घूँघट उठा कर उनके चरणों को जोर से पकड़ लूं" तो वह मुझे ठीक ही समझेगा। ठीक यही गति मेरी भी होती। मैं कभी अपनें गुरुदेव को भर आँख न देख पाया, क्यों कि जब-जब मेरी ने गति की है, निरंतर मेरी किन्तु उनका सिर उच्चातिउच्च छितिजों को स्पर्श करता है। हाँ, चरण अवश्य देखें हैं; उनकी मूक-भावना से वंदना करता हूँ। कई बार मेरे ह्रदय ने हिलोर ली, अतिमानस-अभीप्सा की स्पर्श-पाश से सुखी हो ले। किन्तु मेरे अंतस की एक ही भावना मुझे ऐसा करने से रोकती - कमल से कहीं सुन्दर हैं ये चरण और अत्यन्त ही कोमल; मेरे हाथ बहुत ही कठोर हैं, कहीं इन्हें मेरे इस कठोर स्पर्श से कष्ट न हो जाय और मैं आजीवन उन्हेंदेख-देख कर मगन होता रहा। 

मेरे स्वामी और हाथ पकड़ने वाले की उच्च शौर्यता, उन्नत उत्साह और सहज-प्रेम निरंतर प्रत्येक स्थिति में इस ओर मुड़ी और आकृष्ट रही है कि बिना किसी धर्म, मत या सम्प्रदाय के संकोच के प्राणि मात्र पर दिव्यानंद की वर्षा करते रहे। उनकी प्रत्येक अन्दर आने वाली श्वास, लोगों के ह्रदय की कालिमा को सुनत कर बाहर फेंक देनें वाली थी और हर बाहर जानें वाली श्वास अमृत की धार को ह्रदय, मस्तिष्क व नस-नस में भर देनें वाली थी। शरीर में रह कर वे अपना काम कर गए और अब पूर्ण स्वतंत्र हो कर उसी कार्य में तन्मय हैं, जो अनुभव-क्षमता रखता हो, भावना कर ले और जो दृष्टि-संपन्न हैं, भर-आँख देख लें। 

उनका प्रत्येक विचार  और प्रत्येक कृत्य जीव-मात्र के उद्धार को समर्पित होता और यह उनके स्वभाव का अंग बन गया था। प्रत्येक विचार का प्रभाव और प्रत्येक कृत्य का परिणाम अपनी पूर्णता में समाहित होता। जो उनसे परिचित हैं वे स्वभावतः भली भांति जानते होंगें कि उनके व्यक्तित्व से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष क्या-नियामतें हमें मिली हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष जो उपहार उनसे मिले उनका सार यह है कि हमारे हर पारमार्थिक कृत्य के प्रारम्भ करनें, उसे गति देनें और उसे पूर्णता की स्थिति को पहुँचानें के लिए जो कर्म-काण्ड प्रचलित हैं उनमें आपनें आधुनिकता का पुट अनुभव करते हुए सुविधा की एक अभिनव और रुचिकर किन्तु धर्म का प्रत्येक पार्श्व लिए हुए उसमें आत्मा फूंक दी।

आध्यात्मिक-शिक्षा के प्रसार में आप अपनी शक्ति भर अपनें ढंग से क्रियात्मक प्रणाली को प्रयोग में लाने का प्रयास करते रहे और साथ-साथ अपने उत्साह व संतोष-पूर्वक सहज उदारता एवं अत्यंत उमंग के साथ इस सिद्धांत को दृष्टिगत रक्खा कि अपनें अनुगामियों के ह्रदय में उनकी योग्यता और चैत्य के अनुसार इस निकाय के शिक्षा-सार को तादात्म्य के द्वारा आचरण और अनुभूति में प्रवेश करा दिया और व्यक्तिगत-रूप से दिखला भी दिया कि यह विधा है, इसे प्रयोग में लायें। किन्तु यह हमारी मनोमय-सत्ता और प्राणमय-सत्ता पर निर्भर है कि अभीप्सा जो भगवान् की पुकार है उस की अनुज्ञा को गृहण करें या न करें। सेवक का धर्म है कि वह अपनें स्वामी की इच्छानुसार कार्य-सम्पन्नता का प्रयास करे। पुत्र का धर्म अपनें माता-पिता का अनुसरण करना है किन्तु प्रेम की रीति इन दोनों से निराली है। सेवक और पुत्रों से अपेक्षा है अपेक्षा है कि वे बलात और उत्कृष्ट चैत्य को प्रेरित करें और बार-बार प्रयास करके उसे पूर्णता में परिणित करें। प्रेम में एक आकर्षण प्राक्रतिक है और अनायास ही प्रेमी को अपनें प्रियतम का हाव-भाव लुभाता है। जो कृत्य प्रियतम को भाता है, प्रेमी का अंतस उसी को करनें की प्रेरणा देता है, इसमें सभी-प्रकार के तर्क - वितर्क सदा-सर्वदा अनुपस्थित ही रहते हैं, आड़े नहीं आते।

साधक से जिस प्रकार की अपेक्षा है, वह है - अभीप्सा, त्याग और आत्म-समर्पण। अभीप्सा उस समय तक आवश्यक है, जब तक कि ऐसी स्थिति न आ जाय जिस में सब कुछ स्वतः होनें लगता है और विकास के लिए ज्ञान और स्वीकृति की आवश्यकता रहती है। त्याग एक प्रकार का वैराग्य है। अपनें इष्ट के अतिरिक्त जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है, सभी से वैराग्य हो जाय। और, आत्म-समर्पण उस दिव्य छवि के प्रति, जो गुरु के रूप में उपलब्ध है। ये सब एक-दो दिन में नहीं होता, जिसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। प्रारम्भिक अवस्था में साधक जिसे समर्पण करता कहता है वह संदेहपूर्ण आत्म-दान है, "बैयत" (सर्वांगीर्ण-आत्मदान) नहीं। केवल चैत्य (आत्मशक्ति) ही समर्पण करना जानता है और प्रारम्भ में चैत्य अत्यधिक पार्श्व में (परदे-के-पीछे) होता है। जब चैत्य जागता है तो वह सहसा समस्त सत्ता का सच्चा समर्पण ला सकता है क्योंकि तब शेष सबकी कठिनाई का तीव्र गति से उपचार होता है और वह विलीन हो जाती है। किन्तु, तब तक प्रयास अनिवार्य है या यह तब तक आवश्यक होता है जब तक परमेश्वरी-शक्ति बाढ़ के रूप में आ कर सत्ता को भर नहीं देती, साधक को अपनें हाथ में नहीं ले लेती।

हमारे गुरुदेव - हजरत शाह मौलाना फ़ज्ल अहमद खां (ईश्वर की कृपा उनपर हो), "बैत" की बावत किसी भी ऐसी औपचारिकता, जिसके कि परम्परा के पूर्ववर्ती सड्गुरुजन पक्षधर थे, जैसेकि 'उपवास रखना' इत्यादि, को अधिक प्रोत्साहित नहीं करते थे। वे हिन्दुओं को साधारणतयाः और मुसलामानों को विशेष तौर पर यकायक "बयत" के लिए न प्रेरित करते थे और न ही अपनी ओर से उसका समपादन ही करते थे। अन्यथः पर्याप्त समय तक इसका वर्णन भी नहीं करते थे और न संकेत से ही उसको प्रकट करते थे।







क्रमशः


ऋज्वी - वीथी 
साधना के विभिन्न विषयों, प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर एक निष्कर्ष बनता है, एवं अपनें जीवन की साधना का सार उपलब्ध होता है।





कृमशः



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