इस विनीत साधु ने दर्शन-शास्त्र और विभन्न धर्मों के विश्वासों का, जहां तक उसके विवेक ने सहायता की है, पर्याप्त अध्यन व अनुशीलन किया है, किन्तु अंततः (अपने) सद्गुरुजनों के विश्वासों और साधन-तत्त्वों को ऐसा पाया है कि जिन पर द्रड़ता पूर्वक आरूढ़ रहने ही से अंतिम समय तक जीवन तत्त्व की प्राप्ति की संभावना है।
मैं स्वीकार करता हूँ कि इस समय तक, मैं उन साधन तत्त्वों और विश्वासों पर पूर्ण आस्थावान, जैसा की अपेक्षित था नहीं भी रहा हूँ; किन्तु ह्रदय से कृतसंकल्प अवश्य रहा हूँ। खेद है की मेरे मित्रों और मेरे सहयोगिओं में से एक ने भी यह साहस नहीं किया कि इन विश्वासों को स्वीकार करता अथवा उन पर आस्थावान होने का निश्चय ही करता। इसमें समस्त दोष मैंने अपने आप में ही पाया कि अब तक इन विश्वासों की मैंने लिखित व्याख्या उनके समक्ष प्रस्तुत नहीं की; यद्यपि मौखिक रूप से उनकी चर्चा होती रही है और मुझे ज्ञात नहीं की उनमे से कुछेक ने भी स्वीकार और अंगीकार किया है।
स्पष्ट है कि आने वाली संताने बल व आकार(शक्ति और सामर्थ्य) में अपने पूर्वजों से वंशानुगत दुर्बल ही होतीं चली जातीं हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिकता और सदाचार में भी, नित्य-प्रति ह्रास ही हो रहा है। किन्तु यह सिद्धांत सार्वभौम नहीं है। उस परमपिता परमात्मा की रचना असीमित है। जब चाहे, कभी भी, अपने अति दुर्बल माँ-बाप से, ऐसा ह्रष्ट-पुष्ट नवजवान जन्म ले सकता है, कि जैसा पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ हो।
संसारीजन चटक-नाटक, वाहय आडम्बर और माया की झलक के भूखे हैं। उनके लिए केवल आंतरिक अभ्यास एक भारी बोझ है, अपनी पुरानी कुटेवों को त्याग कर धर्म सम्बन्धी शिष्टाचारों का वरन कर लेना ऐसा दुसह्य कार्य हो गया है कि एक-एक पग उठाना कठिन है। गिरते हैं, पड़ते हैं, भागते हैं और मुहँ छुपाने का प्रयास करते हैं। कितने ही भाग गए और न जाने कौन-कौन भागने को तैयार हो रहे हैं। किन्तु अभी भी थोड़ी सी संख्या जो अब तक टिकी हुई दिखाई देती है वोह इतनी प्रतिष्ठा-संपन्न और गौरवमयी है कि इसकी तुलना दूसरे सम्प्रदायों के सदस्यों से वे ही कर सकते हैं जो तत्त्व-द्रष्टा हैं या वे महापुरुष जो इस मार्ग के सिद्धानों से परिचित हैं और यहाँ के सद्गुरुजनों के सत्संग का लाभ उठा चुके हैं।
ऐसा क्या कारण है क़ि पर्याप्त समय व्यतीत हो गया किन्तु हम हिदी-सुफिओं का यह कुल अभी तक एक प्रतिष्ठित निष्ठा के रूप में उभर कर नहीं आ सका; न इसका कोई प्रकट अस्तित्तव है, न कोई आश्रम या आस्थान, न कोई लिखित सिद्धांत हैं, न कोई कोष अथवा कोई वित्तीय आधार। कारण जो प्रगट और स्पष्ट है, वोह यह क़ि आधारभूत सिद्धांतों, धार्मिक आस्था और उसकी आचार-संहिता की इस कुल के आधारभूत संतों की इक्छा के विपरीत जहां तक और जिस सीमा तक संभव हुआ है, लेश-मात्र भी परिवर्तन करने का साहस नहीं किया गया है। किन्तु, अब हमारे प्रेमी और सहयोगिओं में अधिकाधिक सज्जनों ने यह प्रस्ताव रक्खा है और यदा-कदा वे ऐसे सुझाव देते रहे हैं क़ि माया के स्थूल-रूप की झलक भी, इस कुल की शिक्षा और सिद्धांतों के मध्य सम्मिलित कर दी जाए। उनका संकेत यह है क़ि मौखिक उपदेशों को लिपिबद्ध कर दिया जाए; अर्थात उन्हें पुस्तकों और सामयिकिओं का स्वरूप दे दिया जाए।
अतः इस सेवक के मित्रों व सहयोगिओं ने अनेक बार यह प्रस्ताव रक्खा है की कुछ-न-कुछ लिखना अवश्य चाहिए। उनकी इक्छा यह है कि जो चर्चा और गोष्ठियां समय-समय पर आयोजित शिविरों एवं कार्यशालाओं के मध्य होतीं हैं वोह मस्तिष्क में अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहतीं और न शत-प्रति-शत अभ्यासी उस समय उपस्थित ही होते हैं, इस लिए अनुपस्थित भाई- बहिनों और आगे के समय में आने वाले अभ्यासिओं तक, इन्हें पहुंचाने का कुछ उद्योग किया जाना चाहिए।
अब प्रयास और साहस यह किया जाता है कि आज कल के नव-जवान जो उर्दू-फ़ारसी के मर्म और इस ज्ञान से अनभिज्ञ हैं या अधिक जानकारी नहीं रखते, उनके समक्ष उनकी गृहणशीलता और सामर्थ्य के अनुसार साधारण बोल-चाल में कुछ विषय-सामिग्री सम्प्रस्तुत कर दी जाय, जिससे कि लाभ की कोई सूरत उनके सामने आ जाय। परमात्मा मुझे इस प्रयास में सफल करे और पढ़नें वाले क्षमता प्रदत्त हों।
अभीप्सा सिद्ध हो और -
ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!! ऐसा ही हो!!!
फतेहगढ़ उ. प्र.
२१ जून १९२८
स्नेहाकान्क्षी
फकीर रामचंद्र
ऐसा क्या कारण है क़ि पर्याप्त समय व्यतीत हो गया किन्तु हम हिदी-सुफिओं का यह कुल अभी तक एक प्रतिष्ठित निष्ठा के रूप में उभर कर नहीं आ सका; न इसका कोई प्रकट अस्तित्तव है, न कोई आश्रम या आस्थान, न कोई लिखित सिद्धांत हैं, न कोई कोष अथवा कोई वित्तीय आधार। कारण जो प्रगट और स्पष्ट है, वोह यह क़ि आधारभूत सिद्धांतों, धार्मिक आस्था और उसकी आचार-संहिता की इस कुल के आधारभूत संतों की इक्छा के विपरीत जहां तक और जिस सीमा तक संभव हुआ है, लेश-मात्र भी परिवर्तन करने का साहस नहीं किया गया है। किन्तु, अब हमारे प्रेमी और सहयोगिओं में अधिकाधिक सज्जनों ने यह प्रस्ताव रक्खा है और यदा-कदा वे ऐसे सुझाव देते रहे हैं क़ि माया के स्थूल-रूप की झलक भी, इस कुल की शिक्षा और सिद्धांतों के मध्य सम्मिलित कर दी जाए। उनका संकेत यह है क़ि मौखिक उपदेशों को लिपिबद्ध कर दिया जाए; अर्थात उन्हें पुस्तकों और सामयिकिओं का स्वरूप दे दिया जाए।
अतः इस सेवक के मित्रों व सहयोगिओं ने अनेक बार यह प्रस्ताव रक्खा है की कुछ-न-कुछ लिखना अवश्य चाहिए। उनकी इक्छा यह है कि जो चर्चा और गोष्ठियां समय-समय पर आयोजित शिविरों एवं कार्यशालाओं के मध्य होतीं हैं वोह मस्तिष्क में अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहतीं और न शत-प्रति-शत अभ्यासी उस समय उपस्थित ही होते हैं, इस लिए अनुपस्थित भाई- बहिनों और आगे के समय में आने वाले अभ्यासिओं तक, इन्हें पहुंचाने का कुछ उद्योग किया जाना चाहिए।
अब प्रयास और साहस यह किया जाता है कि आज कल के नव-जवान जो उर्दू-फ़ारसी के मर्म और इस ज्ञान से अनभिज्ञ हैं या अधिक जानकारी नहीं रखते, उनके समक्ष उनकी गृहणशीलता और सामर्थ्य के अनुसार साधारण बोल-चाल में कुछ विषय-सामिग्री सम्प्रस्तुत कर दी जाय, जिससे कि लाभ की कोई सूरत उनके सामने आ जाय। परमात्मा मुझे इस प्रयास में सफल करे और पढ़नें वाले क्षमता प्रदत्त हों।
अभीप्सा सिद्ध हो और -
ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!! ऐसा ही हो!!!
फतेहगढ़ उ. प्र.
२१ जून १९२८
स्नेहाकान्क्षी
फकीर रामचंद्र
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