उद्देश्य
'मानव जीवन का उद्येश्य यह है की वोह सारे कर्म-धर्म, युक्ताहार-विहार की दृष्टि से पूरा करते हुए सत्पुरुष के ध्रुव-पद पर पहुँच सके और वहां पहुंच कर ईश्वर में स्थित हो जाय'
ईश्वर - स्थिति की चार अवस्थाएं हैं-
- उनके लोक में पहुंच जाय, जिसे सालोक्यता कहते हैं.
- उनके समीप पहुँच जाय, जिसे सामीप्यता कहते हैं.
-उनके रूप को प्राप्त कर ले- जिसे सारुप्यता कहते हैं.
-उनके अस्तित्व में लीन हो जाय, जिसे सायुज्यता कहते हैं..
"सालोक्य" वोह है कि गुरुदेव को अपने "नगर" में बसा लें या स्वयं "गुरु-के-नगर" में बस जायँ। हमारे हज़रत किबला कहा करते थे -
ब्रजवासी गोपिकाएं सालोक्य्ता और सामीप्यता की स्थिति में थीं, राधा सारूप्यता की स्थिति में थीं जो "राधा भई मधाई" की स्थिति को प्राप्त कर, अर्थात कृष्ण रूप में हो कर राधा का वियोग अनुभव करते हुए, राधा-राधा पुकारतीं थीं।
'सामीप्य' वह है कि सदगुरुदेव की भीतरी बातें अपने अन्दर आने लगें. उनके विचार अपने में उठनें लगें. इसी को नन्मय्ता भी कहते हैं. प्रणव, धनुष और जीवात्मा 'बाण' के सद्रश है; ब्रह्म उसका लक्ष्य है। सतत व सावधान साधक के द्वारा वह लक्ष्य भेदा जाने योग्य है; अस्तु अभ्यासी के लिए उचित है कि उस लक्ष्य को बेध कर बाण की ही भाँति उस में तन्मय हो जाए।
'सारुप्य' में उस के बाहरी भाव, रंग, रूप अपने में प्रगट हों। यह वह स्थिति है जिसमें अभ्यासी परमात्मा में अखंड विश्वास और श्रद्धा रखते हुए उसी "एक" में निवास करने लगता है। और, जैसी कि श्रद्धा और आस्था उस परम प्रभु के प्रति हो, वैसी ही भावना 'सद्गुरु' के प्रति भी जाग्रत हो जाए। हम सूफिओं के कुल में, अभ्यासी जब इस स्थिति को प्राप्त हो जाता है तब ही उसे "बैत" या दीक्षित करते हैं; इससे पहले नहीं। इस प्रकार सर्वात्म-समर्पण के अनंतर भक्त, भगवान् में लय हो जाता है, वह तद्रूप, तदाकार, एक और अभिन्न हो जाता है। परिणय या सम्बन्ध, जिसे सूफिओं की बोल-चाल में "निःस्वत" कहा गया है, इसी स्थिति से जुड़ा हुआ है। यह वह दिव्य अनुभूति है जिसमें स्वयं भक्त की निजी सत्ता भी उस अपार आनंद-राशि (समर्थ-सद्गुरु) में लय और समाहित हो जाती है। उसे (शिष्य या भक्त) को अपनी भिन्न सत्ता का बोध होता ही नहीं। "आध्यात्मिक-परिणय" हुए बिना प्रभु में हमारा वस्तविक समर्पण हो ही नहीं सकता।
"सालोक्य" वोह है कि गुरुदेव को अपने "नगर" में बसा लें या स्वयं "गुरु-के-नगर" में बस जायँ। हमारे हज़रत किबला कहा करते थे -
"दो ही रस्ते हैं वफ़ा के, आजमा कर देख लो
खुद किसी के हो रहो, या अपना बना कर देख लो"
ब्रजवासी गोपिकाएं सालोक्य्ता और सामीप्यता की स्थिति में थीं, राधा सारूप्यता की स्थिति में थीं जो "राधा भई मधाई" की स्थिति को प्राप्त कर, अर्थात कृष्ण रूप में हो कर राधा का वियोग अनुभव करते हुए, राधा-राधा पुकारतीं थीं।
'सामीप्य' वह है कि सदगुरुदेव की भीतरी बातें अपने अन्दर आने लगें. उनके विचार अपने में उठनें लगें. इसी को नन्मय्ता भी कहते हैं. प्रणव, धनुष और जीवात्मा 'बाण' के सद्रश है; ब्रह्म उसका लक्ष्य है। सतत व सावधान साधक के द्वारा वह लक्ष्य भेदा जाने योग्य है; अस्तु अभ्यासी के लिए उचित है कि उस लक्ष्य को बेध कर बाण की ही भाँति उस में तन्मय हो जाए।
'सारुप्य' में उस के बाहरी भाव, रंग, रूप अपने में प्रगट हों। यह वह स्थिति है जिसमें अभ्यासी परमात्मा में अखंड विश्वास और श्रद्धा रखते हुए उसी "एक" में निवास करने लगता है। और, जैसी कि श्रद्धा और आस्था उस परम प्रभु के प्रति हो, वैसी ही भावना 'सद्गुरु' के प्रति भी जाग्रत हो जाए। हम सूफिओं के कुल में, अभ्यासी जब इस स्थिति को प्राप्त हो जाता है तब ही उसे "बैत" या दीक्षित करते हैं; इससे पहले नहीं। इस प्रकार सर्वात्म-समर्पण के अनंतर भक्त, भगवान् में लय हो जाता है, वह तद्रूप, तदाकार, एक और अभिन्न हो जाता है। परिणय या सम्बन्ध, जिसे सूफिओं की बोल-चाल में "निःस्वत" कहा गया है, इसी स्थिति से जुड़ा हुआ है। यह वह दिव्य अनुभूति है जिसमें स्वयं भक्त की निजी सत्ता भी उस अपार आनंद-राशि (समर्थ-सद्गुरु) में लय और समाहित हो जाती है। उसे (शिष्य या भक्त) को अपनी भिन्न सत्ता का बोध होता ही नहीं। "आध्यात्मिक-परिणय" हुए बिना प्रभु में हमारा वस्तविक समर्पण हो ही नहीं सकता।
"निःस्बत" या ब्रह्म-संस्पर्श की निम्नलिखित पांच स्थितियां हैं -
- सबसे पहले स्मरण (recollection) होता है। स्मरण का अर्थ है - स्मृति का ध्येय में तद्रूप हो जाना. यह तद्रूपता धीरे-धीरे इतनी घनीभूत हो जाती है कि यह अंतःकरण की अपनी स्वस्थ्य एवं स्वाभाविक स्थिति हो जाती है।
- दूसरी स्थिति है निश्चलता (quit); जब यह प्राप्त होती है तब मन, अपने प्राण प्यारे के सिवाय कहीं हिलता-डुलता ही नहीं। उसे छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहता।
- तीसरी स्थिति मिलन (union) है; निश्छल मन अपनें प्रभु को प्राप्त कर लेता है और तभी मिलन होता है। मिलन में आनंद की विभोर दशा की अधिकता हो जाती है।
- चौथी स्थिति में भीटर ही भीतर, निर्भरता से घिरी हुई अपूर्व उन्मत्तता (ecstasy) का अविर्भाव होता है। यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है। यह मिलन-जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है। उन्मत्तता में अपने शरीर की संभाल स्वयं हट जाती है और शिष्य अपने गुरुदेव में उसी प्रकार लय हो जाता है जिस प्रकार पानी में रंग, दूध में मिश्री या समुद्र में नमक।
- पांचवी और अंतिम स्थिति है, तन्मयता (rapt) की। यहाँ शिष्य की संज्ञा प्रेमी में परिणित हो जाती है। उपनिषद में "इस गुह्य विद्द्या" के अधिकारी होने की जो एक शर्त यह भी बताई गयी है कि "शिष्य पुत्र हो जाय और पुत्र शिष्य हो जाय"; इसी स्थिति की ऑर संकेत है। अब शिष्य में अपने गुरु के प्रति ऐसी प्रीति जाग्रत होती है कि वह उनके बिना रह ही नहीं सकता। इस प्रीति को पा कर शिष्य सर्व-शून्य एवं निरावरण हो कर, एक-मात्र अपने सदगुरुदेव का हो कर ही रह जाता है।
उस अभ्यासी (शिष्य) की मनोदशा यहाँ पर ऐसी हो जाती है कि हर समय और हर स्थान पर वोह अपने सदगुरुदेव की मधुर उपस्थिति अनुभव करता है और इसी अनुभूति में वोह सुध-बुध खो कर मस्त रहता है. प्रेम के इसी अमृत को पी कर ईसा हँसते-हँसते सूली पर चढ़ गए और मीरा जहर का प्याला भगवान् का चरनामृत समझ कर पी गयी.
सायुज्य में यह हो कि 'उनके' और 'अपने' बीच में कोई अंतर शेष न रह जाय. दुसरे जब याद दिलावें तब याद आवे.और बातें सब वही हों जो गुरुदेवजी जानते हों. यहाँ पर गुरु और शिष्य एक हो जाते हैं. परम प्रेम (दीनता) के सुधा-पान के लिए यह आवश्यक है कि जगत में द्रष्टिगोचर होने वाली भिन्नता तथा अनेक नाम-रूप में छिपी हुई 'एक' परमात्म-ज्योति से साक्षात्कार हो जाय. खंड, सीमा, परिवर्तन, म्रत्त्यु, हाहाकार और विनाश के उस पार जो प्रीतम की नगरी है और इन दीख पड़ने वाली भिन्नताओं को पार करके ही वहां जाया जा सकता है. वहां जा कर वापसी नहीं होती. कबीर की साधना में इस संसार के प्रति अटूट द्रढ़ और अजेय वैराग्य है; जो उन्हें संसार में विरमनें नहीं देता और उन्होंने इसी बल बूते पर "साईं के देश" पहुँच कर "साजन की अटारी" पर पौढ़ते हुए कहा है - "अब हम अमर भए न मरेंगे".
इस सबके अनुभव करते हुए मार्ग को तय कर परम पद तक पहुचने को "सैर" कहते हैं.
ईश्वर में स्थिति, प्रेम और दीनता से प्राप्त की जा सकती है, आशय यह है कि सिवाय परमात्मा के अन्य सभी वस्तुओं से नितांत विरक्ति हो जावे और संसार की ऑर ध्यान न जावे. क्रिया-शक्ति प्रीति और भजन में लगी रही. और उस एकमात्र सत्ता में लय होने के लिए इस प्रकार विकल और आसक्त रहे जैसे कि विकलता पानी में डूबता प्राणी की अपने प्राण-रक्षक के लिए होती है.
मौलाना जामी (ईश्वर की दयालुता उनपर हो) की एक पुस्तक जिसमें हदीस (पवित्र वचन) देखने को मिली. उसका अनुवाद यह है कि जो मेरे प्रेम का मारा हुआ है, मैं उसके (प्रति) बयत, अर्थात समर्पण की भावना रखता हूँ और मैं स्वम उसका क्षति-पूरक हूँ. इस सन्देश के माध्यम से ईश्वर में ध्यान की विधा को उजागर किया है. वोह इस प्रकार है कि जब प्रेम; आत्मीयता, लय अवस्था और सत्य-निष्ठ होने की प्रतिष्ठा (अमानत) के बिंदु तक पहुँच जाता है तब अभ्यासी, सायुज्ज्य्ता (याफ्त) और निजी-प्रकाश की आनंदानुभूति करने में सफल हो जाता है.
यहाँ पर बयत, अर्थात समर्पण की निष्ठा से तात्पर्य है -
सायुज्ज्य्ता की स्थिति का रसास्वादन, जो ईश्वर के प्रति निजी-प्रेम में अपने अस्तित्व को मिटा देने के फलस्वरूप प्रकट और सुलभ होता है. 'जापक'-अभ्यासिओं के लिए ध्यान की विधि की ओर इंगित करते हुए संकेत है की - "भाढ़ की तपती रेत के मध्य पड़ा हुआ अनाज का दाना जैसे बार-बार भूने जाने पर भी बार-बार उछल पड़ता है, किन्तु उस रेत से बाहर नहीं जाना चाहता; उसी प्रकार इस प्रेमजन्य संताप के अतिरेक से उसका मन हट-हट कर उस संताप को सहने की अत्त्यंत सुखद वृत्ति (पड़ी लत) के कारण उसी की ओर प्रवृत्त रहता है. तात्पर्य यह है कि वियुक्त प्रिय का ध्यान आते ही चित्त संताप से विव्हल हो जाता है, फिर भी वोह बार-बार उसी का ध्यान करता रहता है. प्रेम-दशा चाहें घोर यंत्र्नामय हो जाए, पर ह्रदय उस दशा से अलग होना नहीं चाहता. एकाग्र ध्यान की यही अवस्था चरम लक्ष्य तक पहुचाने में अहम है.
खूँबहा (क्षतिपूरक) से तात्पर्य है कि उस निशित की गयी धन-राशि से है जो बधिक की ओर से, जिस व्यक्ति का वध हो गया हो, उसके घर वालों को उस क्षति के पूरक के रूप में अदा की जाती हो. ईश्वर के सन्दर्भ में इस पूर्व-लिखित वक्तव्य से यह समझना चाहिए कि यदि उसके प्रेम में किसी भक्त के जीवन की क्षति हो गयी हो तो उसके इस आत्मोत्सर्ग की क्षति-पूर्ती के रूप में ईस्वर की दिव्य-स्थिति की उपलब्धि उसे हो जाती है; अर्थात भक्त ने यदि उसकी याद में प्राण त्याग दिए हैं तो उसे भगवान् मिल जाते हैं.
ईश्वर ने अपने इसी वक्तव्य के माध्यम से ध्यान और समाधि की एक विशेष विधा को निर्दिष्ट किया है. संषेप में इसे इस प्रकार समझ लें कि उसकी याद में उसकी प्रतीक्षा की अनुभूति को साकार प्राप्त प्राप्त करें और इसी स्थिति में एकाग्रता की ऐसी स्थिरता करें कि समाधि लग जाय. हमारा प्रेम ऐसा नितांत और निजी हो जाय कि बीच में किसी भी प्रकार का स्वार्थ या प्रयोजन शेष न रह जाय, जो उस दिव्य सम्बन्ध में बाधक हो. ऐसी प्रेम-मई समाधि अभ्यासी को अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे तात्यिक और सत्त्यनिष्ठ होने की प्रतिष्ठा के चरम बिंदु तक पह्नुचाने वाली होती है. अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे का चरम-बिंदु यह है कि प्रेम की हालत में प्रियतम और प्रेमी, भक्त और भगवंत के बीच (भेद) का पर्दा उठ जाय. भक्त को यह आभास और परख शेष न रहे कि भक्त कौन है और भगवंत कौन है.
यह समाधि कबीर के इस रूपक से स्पष्ट होती है - आँखों में प्रियतम की छवि भरी हुई है, काजल की रेखा उसमें कैसे अटे? आंठो पहर, चौसंठ घढ़ी जब हरि के सिवा कोंई रहा ही नहीं, फिर नींद निगोड़ी कैसे आवे? सच्ची पतिव्रता तो वोह है जो एक क्षण के लिए भी संसार पर आँखे नहीं डालती. वोह तो अहर्निश आँखे बंद करके प्रभु के रस में डूबी रहती है.
उस सनातन सत्ता के स्पर्श में आ जाने पर मानव की अमरता व्याप्त हो जाती है. इसकी हल्की सी झांकी कबीर के इस पद में देखनें को मिलती है-
इस "अमरता" के लिए 'सत्य-निष्ठ होने की प्रतिष्ठा' से अपेक्षित है कि जन्म के समय, व्यक्ति के साथ, ईश्वर की ओर से प्रेम की धार प्रवाहित की जाती है. वोह नितांत निश्छल और निष्कपट होती है. इस की तुलना अबोध बालक के प्रेम से की जा सकती है. ऐसा निष्कपट और निश्छल प्रेम ईश्वर की ओर से धरोहर के रूप में सौंपा जाता है और जिसके लिए हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि मालिक की ऑर से जब भी वोह वापस माँगा जाय, ज्यों-का-त्यों वापस कर दिया जाय. अब देखा यह जाता है क़ि इंसान म्रत्त्यु के समय क्या ईश्वर के प्रति ऐसा ही निश्छल और निष्कपट प्रेम वापस ले कर जा रहा है, जैसा क़ि उसको संसार में आते समय बतौर धरोहर के सौंपा गया था? यदि ऐसा नहीं तो यह धोखा है, ईश्वर के प्रति विश्वासघात है.
मृत्यु रूपी इसी अंतिम क्षण की शुभ प्रेम गति को ले कर ही संसार के समग्र दर्शन, धर्म, मत, दिद्धांत,जप, ताप, पूजा, पाठ, नियम, व्रत आदि हैं कि वह अंतिम क्षण, जिसमे हम संसार से कूच कर रहे हों, प्रभुमय हो, आनंदमय हो, इसी के लिए जीवन भर अभ्यास किया जाता है. प्राण-विसर्जन की उस अंतिम बेला में बिलकुल छुट जाय, हमारे प्राणों को केवल प्रभु जी की शीतल-मधुर पावन स्पर्श अनुभव होता रहे. उस स्पर्श की शीतलता में हमारे रोम-रोम पुलकित हो उठें, होठों पर हल्की सी मुस्कान हो और उसी मुस्कान के के साथ हम विदा हों.
मृत्यु को संतों और भक्तों नें एक अपूर्व कौतूहलपूर्ण द्रष्टि से देखा है. एक और तो संसार से मुक्ति मिली, वैराग्य हुआ, दूसरी और इसे साजन के देश का निमंत्रण मिला. मृत्यु से संसार की अनित्त्यता और क्षणभंगुरता ही नहीं प्रमाणित हुयी, प्रत्युत यह भी प्रमाणित हुआ कि हम जन्म जन्म से अपने 'प्रानधन' को खोजते आ रहे हैं और हमारी खोज मृत्यु को भी लांघ कर चलती रहेगी. कबीर ने मृत्यु को "साजन के देश" का निमंत्रण माना है - "प्रीतम" का बुलावा, मिलन मंदिर के लिए प्रस्थान. मृत्यु उस "मिलन-मंदिर " का द्वार है जिसे पार कर "शीश -महल में "साईं की सेज पर पौढ़ने" को मिलेगा.
"कर ले सिंगार चतुर अलबेली, साजन के घर जाना होगा" सहज ही स्मरण हो आता है. उन्होंने तो 'अलबेली' को नहाने धोने, मांग में सिन्दूर लगा कर नयी लाल साड़ी पहनने की सलाह दी है, क्यों कि उनके विचार से यह 'मिलन' परम मिलन होगा और वहां से पुनः लौटना न होगा. "नहाले, धोले,सीस गुंधा ले, फिर वहां से नहिं आना होगा"!!
जब प्रेम इस बिंदु तक पहुँच जाता है तो प्रेमी सायुज्यता की स्थिति और आत्म प्रकाश के रसास्वादन में विभोर हो जाता है. ध्यान की यही प्रक्रिया और स्थिति पूर्ण और ध्रुव पद पर पहुँचाने वाली है. ध्यान और समाधि की जिन अवस्थाओं का विवरण ऊपर आया है वे केवल अनुभव-गम्य हैं.
यह एक प्रकार का मिलाप और योग की स्थिति है. सब से पहले वैराग्य हो जाय; जो कुछ संसार द्रश्य और श्रव्य है, उसकी और से से मुहं मोड़ ले तत्पश्चात उपासना में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय, उस परम तत्त्व के प्रति ऐसा आकर्षण व ऐसी लय अवस्था हो जाय, जिसका विवरण किसी रंग-रूप और नाम से नहीं दिया जा सकता है. वोह एक ऐसी स्थिति है जो सब का आधार है; स्वम किसी का आधार अहिं है.
इस लय अवस्था की पहली स्थिति अपने आप में बेसुध हो जाने की होती है. सब इन्द्रियाँ बेसुध हो जातीं हैं, बल्कि इस प्रकार निष्क्रिय हो जातें हैं मानो मृत्यु हो गयी हो. फिर भी मृत्यु और इस लय अवस्था के बीच यह अंतर है कि मृत्यु में तो कोई चीज़ या वास्तु अपने सामें नहीं रहती किन्तु लय अवस्था में बेसुधी की स्थिति में केवल एक लक्ष्य सामने शेष रहता है और अन्य सभी दूसरी वस्तुओं के लिए मृत्यु जैसी बेसुधी हो जाती है. लय की यह स्थिति "हुजूरी" कहलाती है.
यदि अभ्यासी की अवस्था ऐसी होने लगे जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, भले ही वोह थोड़े समय मात्र के लिए ही क्यों न हो, तो यह समझना चाहिए कि उसका सम्बन्ध विराट देश से हो गया है; जहां पर सभी तत्त्वों एवं कुल शक्तिओं का भण्डार है. ऐसे अभ्यासी को इस्लामी अध्यात्म-वाद में "वली" (ऋषी) कहते हैं.
ऋषी की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं हैं -
(१) ऐसी अवस्था हो कि थोड़े दिन उसको पर्याप्त आनंद आवे और तबीयत लगी रहे. हालत भाव विभोर एवं शरीर गदगद रहे तथा बिना प्रयास के भी तबीयत उसी ओर झुकी रहे. अपने आप को और अपने तन-बदन को भूला रहे. ऐसी अवस्था में जैसे कि नशा करके होती है. किन्तु थोड़ी देर बाद या थोड़े दिनों बाद यह अवस्था स्वम ही जाती रहे. आनंद न आवे, तबीयत ठस रहे. हर समय विचारों का झुण्ड बना रहे. तबीयत में परेशानी, तनाव व भारीपन रहे और बार बार प्रयास के उपरान्त भी तबीयत का झुकाव व लगाव उत्पन्न न हो.
(२) ऐसी अवस्था हो कि कभी जल्दी और कभी देर में मन का झुकाव असल पद की ओर हो, बेसुधी या नशा सा रहे.
(३) निरंतर सम अवस्था में रहे; घबराहट न हो, कभी बेचैनी या तनाव की स्थिति भी न हो, इसी स्थिति में स्थिरता आ जाती है. यह स्थिति स्थिति-प्रज्ञ की कहलाती है.
स्थिति-प्रज्ञ, परमभक्त ब्रह्मभूत पुरुष का गुण है; जिससे लोग उकताते नहीं और जो न लोगों से उकताता हो. जो व्यक्ति आनंद, शोक, भय, सुख और दुःख इत्त्यादिक बन्धनों से मुक्त है; सदा अपने आप में ही निश्चिन्त रहता है. तीनों गुणों से जिसका मन चंचल नहीं होता, प्रशंसा या निंदा, प्रतिष्ठा या अपमान जिसके लिए बराबर हैं और जिसने अनेक जीवधारिओं में रहने वाली आत्मा की एकता (universality) को परख कर, मस्तिष्क को सम अवस्था से सम्पूर्ण तर्क-वितर्क से परे हट कर दृड़ता व स्वेक्षा से अपने कर्म को जान लिया है और उसका पालन करता है. उसके लिए लोहा, सोना, पत्थर सभी बराबर हैं.
इन स्थितियों को क्रमशः हंस, परमहंस और संत की गतियाँ कह सकते हैं. हंस की गति में उतार-चढ़ाव लगा रहता है. परमहंस में उतार-चढ़ाव तो होता है किन्तु वोह उसको इतना भासता नहीं, उसको इसका अनुमान नहीं होता. संत की गति स्थिति-प्रज्ञ की होती है. परमसंत की गति इससे कहीं उत्तम होती है.
संतों, परमसंतों की आध्यात्मिक स्थिति का वर्णन करना अत्तयंत कठिन है. शब्दों में उनके आनंद का वर्णन क्या हो? वोह तो स्वसंवेद्य हैं, गूंगे का गुढ़ है. जिनके लिए यह जगत रह ही नहीं गया; जो सर्वत्त्र-सर्वदा भीतर-बाहर ऊपर-नीचे दायें-बाएं हर घढ़ी, हर ठौर केवल अपने मालिक का ही स्मरण व दर्शन करते हैं, उसी का स्पर्श करते हैं, उसी का रसास्वादन करते हैं और उसी के रस में स्वम छके रहते हैं, उनके सुख दिव्य आनंद का वर्णन कोई करे भी तो कैसे?
मनुष्य का जीवन एक विचित्र पहेली है. एक ओर विषयों का आनंद है और दूसरी ओर आत्मा का आनंद है. क्षणिक और अनित्त्य आनंद तथा निरंतर एवं नित्य आनंद में विवेक द्वारा भेद समझ कर सच्चे आनंद की उपलब्धि के लिए लगना चाहिए. यदि साधक भौतिक आनंद में लिपट गया तो उसकी आत्मा एक पिंजड़े में बंध गयी. वोह परमात्म आनंद को क्यों कर और कैसी जान सकेगा? यदि दिव्य आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि चाहते हो तो विषयानंद की आसक्ति से मुक्त हो जाना चाहिए. वोह परमानंद एक-एक अणु में ओतप्रोत हो रहा है. आवश्यकता है मोह का आवरण हटा कार एकांत भाव से परमात्म दर्शन और भगवत-मिलन की आकुल उत्कंठा की.
संस्पर्श आनंद अन्तःस्थल की वोह उन्मादकारी अनुभूति है जो किसे साधक को उस परमपुरुष के अमृत-तत्त्व के स्पर्श में आ जाने से होती है एवं जिसको पा लेने पर वोह जन्म-जन्मान्तर के लिए निहाल हो जाता हो है. उसकी अमर ज्योति पल-पल और कण-कण में उद्भासित होती है. आठो पहर वोह प्रेमी साधक इसी रस में झूमता रहता है और उसका रोम-रोम प्रेमानंद में छका रहता है.
प्रकट तौर पर, उस अभ्यासी की स्थिति कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि उसको भूत, भविष्य और वर्तमान की कोई भी गति प्रभावित नहीं करती. उसे कुछ ज्ञान ही नहीं होता कि क्या हो रहा है, क्या होगा अथवा क्या होना चाहिए; एक स्थान पर यदि खड़ा है तो खड़ा हो कर रह जाता है. आशा तृष्णा कुछ भी शेष नहीं रह जाती. न कुछ पा लेने की प्रसन्नता न कुछ खो जाने का दुःख; मात्र एक प्रतिमा सी बन कर रह जाता है. किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वोह कोई सांसारिक कृत्य ही नहीं करे तथा पागल या निर्जीव बन कर रह जाय. नहीं ऐसा कदापि नहीं. वोह निश्चेष्ट या क्रियाहीन भी नहीं हो जाता. यों तो वोह सामान्य जीवधारियों की भान्ति ही रहता है किन्तु मानसिक स्थिति उसकी कुछ अवधूत जैसी हो जाती है - 'न आये की प्रसन्नता, न गए का दुःख' या न और कोइ विरोधाभास; और यदि उससे उसकी इस स्थिति की असामान्यता का कारण पूंछा जाय तो कदाचित वोह बता भी नहीं पायेगा.
यों यह एक प्रकार की उन्मत्तता का अविर्भाव है किन्तु यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है; यह मिलन्जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है. इस स्थिति में साधक की बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है, उसे परमात्मा के मिलन का आनंद प्राप्त हो जाता है और उसका हृदय उसी रस में सराबोर रहता है. वोह एक पल के लिए भी उससे बाहर नहीं आता. मुसलमान प्रत्त्यय-वादिओं (सूफिओं) ने इस स्थिति को "हैरत" की संज्ञा दी है - इसी अवस्था का वर्णन दुसरे संत-मतों और रहस्य-वाद में भी देखने को मिलता है.
जिसे प्रियतम-मिलन का रस मिल गया उसके लिए संसार के सभी रस नीरस हो गए. जिसने उस अरूप रूप को देख लिया उसकी दृष्टि संसार के रूप पर क्यों जायेगी? जिसे उसका नाम मिल गया, उसके लिए और नाम से क्या ममता? जिसे हरी के दिव्य अंग का स्पर्श प्राप्त हो गया उसे संसार के किसी भी स्पर्श के सुख का क्या अर्थ? भगवान् में एक साथ ही हमारी सभी इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं इसे ही "आठ पहर, साठों घरी, जागे हरि के ध्यान" कहा है. सदा सदैव भगवान् में जागता रहे; सर्वत्र जागरूक रहे; आवरण में उलझ न जाय, "गुढ़िओं" में फंस न जाय. गुढ़िओं को फेंकता जाय, खिलौनों पर आँखें न टिकने दे - पानी के लहरें आती जायं, उन्हें चीरता जाय; उस पार का विस्मरण न हो, प्राण-नाथ से मिलना है, यह भूले नहीं. दृष्टि स्र्वत्त्र, सदैव हरि पर ही रहे. संसार के घने आवरण को भेद कर, जगत के आकर्षण को रौन्ध्ते हुए उमंग और उल्ल्हास के साथ आगे बढ़ता चला जाय - "सोये है संसार सूँ, जागे हरि की ओर".
मन, प्राण और शरीर अनुभूति के साधन हैं. ब्रह्म-संस्पर्श का आनंद पठन-पाठन या चिंतन के द्वारा नहीं, केवल अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है. यह सर्वथा अतीन्द्रिय-संवेदी है. इसे गूंगे का गुढ़ कहा जाता है. किन्तु इस गुढ़ के स्वाद का सुख, साधारण जिव्ह्या का सुख मात्र न हो कर साक्षात, परात्परा शक्ति से संपर्क और स्पर्श का शाश्वत आनंद है; उसकी सतत उपस्थिति उसे जगत से संपर्क के समस्त संपर्कों को तार तार कर देने को बाध्य कर देती है. दूसरी ओर साधारण संसारियों के लिए उसकी यह मनोदशा सामान्य भाषा में उदासीनता कही जा सकती है - जिसका अर्थ है द्वन्द्वों के प्रति उपेक्षा. इस उदासीनता के शाब्दिक विश्लेषण के अनुसार इसका अर्थ बनता है - 'ऊपर आसीन होना', सभी भौतिक और मानसिक स्पर्शों के ऊपर होना. उदासीन अभ्यासी, कामना से मुक्त होता है. उसे समस्त भौतिक सुख-दुखों का या तो आभास ही नहीं होता और अन्यथा यदि होता भी है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके मन और शरीर मात्र को छू रहे हैं, स्वम उसे नहीं. वोह उस समय स्वम अपने मन और शरीर से भिन्न उनके ऊपर अवस्थित होता है. यह प्रशंसित प्रकार की निस्तब्धता है जो विशिष्ट साधकों को ही प्राप्त है, अन्यथा दूसरी अश्लील और दूषित है जो आम व्यक्तिओं के भाग की वस्तु है.
इस स्थिति को विस्मय और निःस्तब्धता के के अर्थों में स्पष्ट करने के मिस एक रूपक का सहारा लिया जा रहा है. एक ठेठ ग्रामीण व्यक्ति जिसने कभी अपनी झोपड़ी को नहीं छोड़ा है, यदि किसी प्रकार किसी राजसी महल में चला जाय या कलकत्ता, मुम्बई जैसे किसी बड़े शहर के जौहरियों की सोने-चांदी वालों की या बड़े-बड़े अंग्रेज़ी-पारसी सौदागरों की दुकानों पर ले जा कर खड़ा कर दिया जाय, तो वोह एक-दम हक्का-बक्का हो जाएगा, या कोई आदमी किसी अनिन्द्य पराकाष्ठा प्राप्त युवा-सुन्दरी को देख कर अध्ससा हो जाता है; ठीक उसी प्रकार भगवत्सत्ता के उस प्रकाश को देख कर चकाचौंध अवस्था में हो जाता है. किन्तु विशेष बात इस स्थिति की यह है कि इसमें संदेह या शंका का समावेश नहीं होता. उस स्थिति में पहुंच जाय पर उसको यह विचार करने का अवसर ही नहीं होता कि यह क्या है अथवा क्यों और कैसे है.
अचम्भा या स्तब्धता की अवस्था और संदेह और शंका की अवस्था में अंतर स्पष्ट हो पाना थोड़ा कठिन है. यह भ्रम रहता है कि यथार्थ में इस अभ्यासी या भक्त की अवस्था, स्तब्धता की है या संदेह की. अतः जहाँ ज्ञान की पूर्णता का समावेश है वहां स्तब्धता है, इसके विपरीत, अन्धकार व अज्ञान में जो स्थिति होती है वोह संदेह है. इसके अतिरिक्त एक सबसे बड़ा लक्षण यह भी है कि स्तब्धता चैत्य की विद्यमानता में होती है, अर्थात अभ्यासी को नाम और नामी का ज्ञान स्पष्ट व उपस्थित रहता है किन्तु संदेह और भ्रम के फलस्वरूप चैत्य का अभाव और असावधानी आवश्यक है. जो व्यक्ति अचम्भे या स्तब्धता की अवस्था में होता है उसको, उसके यथार्थ व उसके श्रोत को जानने और तादात्म्यता के अंतर्गत उसके दर्शन की ललक अपनी चरम सीमा पर होती है, किन्तु 'सदेह' की अवस्था वाला व्यक्ति लगाव के अनुमान में तुरंत ही यकायक लगाव के अभाव में उसकी वास्तविकता को जानने के चक्कर में अपनी मूर्खता-वश अधोगति का भागीदार बनता है.
अचम्भा या स्तब्धता दो तत्त्वों से मिल कर बने हैं- एक तो शारिक ज्ञान, दूसरा उसके बन जाने का कारण न जानना, अर्थात भौतिक ज्ञान तो होता है कि अमुक वस्तुएं और ऐसे बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं और उपथित हैं किन्तु यह सब रचना कैसे और क्यों हुई, यह ज्ञान नहीं होता इसलिए इसमें भ्रान्ति और संदेह दोनों का समावेश रहता है. इसमें न तो कोई अवयव ज्ञान का पाया जाता है न पूर्ण अज्ञान का ही. ऐसा लगता है कि इस अवस्था वाले व्यक्ति को ज्ञान की रचना ऐसे मिश्रित अवयवों से मिल कर हुयी है जिसमें संदेह का अंश तो उपस्थित है ही और ज्ञान के अंश होने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं. ऐसी स्थिति हमेशा, आने-जाने, आकर्षण-विकर्षण, अनेति-अनेंती और नेति-नेति की परिधिओं के अन्दर रहती है. इस प्रकार के संदेह का नाम- 'दूषित विस्मय' है. ऐसी अवस्था में प्राण के क्षेत्र में क्रिया होते समय जो उल्ल्हास होता है, वोह बहुत बार ठंडा पड़ जाता है और भौतिक सत्ता की एक-रस जड़ता, अंधकारमय बाधाओं सहित स्थूल भौतिक-चेतना में प्रकट होती है. यदि प्राण, बुद्धि या उच्चतर मन की प्रेरणा या उत्तेजना न हो तो साधारण अपरिष्कृत भौतिक चेतना की विशेषताएं होतीं है- जड़ता, तमस, मूर्खता, संकीर्णता, सीमा प्रगति के लिए अक्षमता, संदेह, अवसाद, शुष्कता और आध्यात्मिक अनुभूतियों की विस्मृति. यह सामयिक तौर पर हुआ करता है. इससे बाहर निकलनें का रास्ता यह नहीं है क़ि प्राणिक विद्रोह या चिल्ल-पों के द्वारा भौतिक सत्ता को जगाया जाय या इस अपनी दशा के लिए परिस्थितियों या अपने गुरुदेव को दोषी ठहराया जाय. क्योंकि इससे स्थिति और भी बिगड़ेगी. तमस, शुष्कता,अवसाद और जड़ता में बृद्धि होगी. एक सतत और प्रयत्नशील अभ्यासी को जानना चाहिये क़ि उसके अन्दर सार्वभौम पृकृति कोई तत्त्व प्रतिष्ठित हो रहा है, जिसे निकाल बाहर करना ही श्रेयस्कर होगा. और इसका एक ही उपाय है - अधिक से अधिक समर्पण और अभीप्सा और उसके माध्यम से मन और प्राण के परे से भागवत-शान्ति, ज्योति, शक्ति और उपस्थिति को अपने अन्दर लाया जाय. इसे हुजूरी कहते हैं.
कई बार साधक ने अनुभव किया होगा- ज्योति गहरी और गहरी प्रविष्ट होती चली गयी. तुम्हारे अन्दर भी महिमान्वित शरीर की प्रक्रिया चलती रहती है; क्यों कि तुम मेरी आध्यात्मिक संतान हो ; मेरे बिना तम्हारा अस्तित्व है ही नहीं और मैं तुम्हारे बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता. यदि कर सकते हो तो अपनी बाहरी आँखों के अंधेपन को बेध कर अपने उस शरीर को देखो जो मेरी तीव्र चेतना और क्रिया दोनों से पूर्ण तादात्म्य हो कर धरती पर एक दिव्य जीवन और दिव्य आस्था के रूप में प्रकट हो रहा है; देखो! एक शुभ्र महिमामयी कांति जिसमें धीरे धीरे बाहरी पदार्थ घुल मिल रहे हैं, अपने आप को वाह्य तत्व में प्रक्षिप्त कर रही है ताकि उसे तद्रूप कर सके. ज्योति शरीर के अंग-अंग में खेलती है, कभी आगे जाती है, तो कभी पीछे हट जाती है. कभी इस अपने ही शरीर में एक सुकुमार्य सौन्दर्य-पुंज अवतरित होता है, अपना है फिर भी सम्मोहन होता है, तो कभी एक महान शक्ति प्रकट होती हुई सी दीखती है. यहाँ तक कि कभी कभी हमारा सुपरिचित शरीर कुछ देर के लिए आँखों से ओझल हो जाता है और उसके स्थान पर शुद्ध और शाश्वत दिव्यता शेष रह जाती है.
यही ज्योति, जो अभ्यास के मध्य क्रीड़ारत होती है, कभी शुद्ध शाश्वत सफ़ेद, तो कभी हरी, और कभी स्वर्णिम-लालिमा से ढका हुआ एक झीना, किन्तु निष्चल शांत आवरण सद्रश्य, जिसके उसपार न दृष्टि ही जाती है और न जिज्ञासा. अंत में यही दृश्य शुद्ध पारदर्शी नीलिमा में परिणित हो जाता है, जो श्रेष्ठता व भगवत करुणा की प्रतिष्ठा का प्रतीक है. अभिरंजित आभा जब सत के प्रकाश से सम्भोग करती है तभी यह दृश्य आभासित होते हैं. इस ज्योतिर्मयी आभा की प्रतीकी यह है कि इसकी बीथिका का संयोग यदि स्कंध के दाहिनी ओर बाहुमूल से मिलता हो तो यह ज्योति उस देव-दूत का प्रतीक है जो कि अच्छे संस्कारों को अंकित करनें के लिए नियुक्त है. यदि स्कंध से निपट सटा हुआ न हो तो यह अपने सदगुरुदेव की है. यदि इसका प्राकट्य प्रतिमुख या पुरोभाग में हो तो प्रतिष्ठित ईश-दूत या दुसरे अवतारों की है. यदि इस ज्योति का अविर्भाव बांयी ओर से हो और स्कंध से मिला हुआ हो तो यह अभिव्यक्ति बाम-भाग के देवदूत का है जो बुरे कर्मों को लिखती है या संस्कार बनाती रहती है. यदि वोह स्कन्ध के बाहुमूल से निपट सटा हुआ नहीं है तो जान लेना चाहिए कि यह तमोगुण-मयी सत्ता की है, जिसको काल-शक्ति कहते हैं. इसी प्रकार यदि बाम दिशा से किसी छवि या आकृति का आभास हो तो यह तमो-गुण-मयी भ्रान्ति है, और यदि ऊपर या पीछे की ओर से प्रकट हो तो समझना चाहिए, यह उन देवताओं का प्रतीक है जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सम्हाल करते हैं, जैसे - विष्णु, ब्रह्मा, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि. यदि इन आभासों की दिशा, निश्चित न हो सके, या उसका ज्ञान न हो, उससे आतंकित हो अथवा छवि के लोप हो जाने के उपरान्त सतत उपस्थित का भाव शेष न रह जाय तो समझना चाहिए कि यह निम्न-तमोगुण-मयी सत्ता का खेल है. किन्तु यदि छवि के दर्शन के मध्य शान्ति आभासित हो और जब वोह आकृति लोप हो जाय तो उसके चले जाने का दुःख और पुनःमिलन की ललक हो, तो यह शद्ध शाश्वत भागवत ज्योति है और उसका प्राकट्य है. यदि बक्ष के ऊपर या नाभि के ऊपर से प्रकट हो तो यह भी मायावी जाल समझना चाहिए. किन्तु यदि ह्रदय के ऊपर से अवतरित हो तो यह उसकी सफाई के मिस है.
यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य बात और नेक सलाह यह है कि सच्चे जिज्ञासु को चाहिए कि इन द्रश्यों की न तो कल्पना करे और न इन बातों पर ध्यान ही दे. क्यों कि यह मार्ग के मध्य की बातें हैं, गंतव्य या शाश्वत सत्य से इनका कोई सरोकार नहीं. इन सबको देखता भालता हुआ निकल जाय, क्यों कि यह मारिचिकाएं हैं, जो माया का स्वरूप हैं.
कुछेक ज्ञानी कहते हैं कि जब निम्न-प्राण-मय चेतना के स्थान पर चैत्य-अभीप्सा की प्रतिष्ठा हो जाती है, और अभ्यासी अपनी असंतुष्ट इच्छाओं से होने वाली निराशा, अवसाद, असंतोष, दुःख, परिवाद(अन्याय की भावना), विद्रोह, अकर्मण्यता और तमस, शुष्कता, उदासी और साधना की समाप्ति या विराम जैसी अहंकार-केन्द्रित या उसके किसी भाग द्वारा किये गए विद्रोह से छुटकारा पा लेता है तब प्राणमय सत्ता का परात्परा-शक्ति से उत्सर्ग हो जाता है, जहां उसका उस परम सत्य के प्रति एकनिष्ट समर्पण होता है जिसमे मांगों और दावों का प्रवेश तक नहीं हो सकता. चैत्य-पुरुष, आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ भगवान् की अभीप्सा करता है. उसे जिस वस्तु की खोज है और जिसे वोह पाता है वोह प्राण या भौतिक मांगो की तुष्टि का आनंद नहीं है. सच्चे सामीप्य का अनुसंधान उसे करना होता है जिससे हृदय के अन्दर भगवान् की सदैव सतत उपस्थिति बनी रहती है और सारी प्रकृति में भगवान् का राज्य प्रकट हो जाता है; अतिमानसिक ज्योति शक्ति और चेतना की एक अविरल धारा के सद्रश्य, अपने सम्पुर्ण आवेग के साथ सम्भोग करती है और अतिमानसिक कोष पर्याप्त तीव्रता के साथ अपने आप को उसमें प्रकट करता है, अपने चारो ओर व्याप्त भगवान् के साथ चेतना और क्रिया दोनों में पूर्ण तादातम्य स्थापित हो जाता है.
इसी प्रकार संतों का भी यह विश्वास है कि जब अभ्यासी का मन व अंतःकरण मल, विक्षेप और आवरण से निर्दोष हो जाता है और निम्न-प्राण-मय वासनाएं शेष नहीं रहतीं, जाप में डूब कर चैत्य की सतत उपस्थिति रहती है तो ऐसी स्थिति में उसको एक प्रकार की तन्मयता आ जाती है और अतीन्द्रिय संवेदी मंडलों से संपर्क स्थापित हो जाता है और इस सम्बन्ध की प्रतिक्रया-स्वरुप स्रष्टि का नाद-श्रव्य हो जाता है, उसका अंतर दिव्य-ज्योति से भर जाता है और इसी आभा के बीच वोह सतपद का साक्षात्कार कर लेता है. सारे द्वंद स्वतः ही मिट जाते हैं तथा विश्वास की नित्यता उसे प्राप्त हो जाती है. इस समय वोह परमात्मसत्ता की इच्छा और आदेश, दोनों से परिचित हो चुका होता है जिसके फलस्वरूप द्रश्य और स्थूल-शरीर व इन्द्रियों से छिपी हुई बातों और गुप्त रहस्यों को देख-परख सकता है. इस स्थिति को प्राप्त साधक अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर इस असार संसार से पार हो जाता है.
कुल इन्द्रियों और अंतःकरण में जो जो उद्वेग और विचार जन्म लेंगे वे द्विकर्मक - पारखी होंगे अर्थात यदि वे घटना के अनुकूल हैं तो वोह 'सत' होंगे और यदि इसके विपरीत घट्नानुकूल न होंगे तो असत या झूट.
एक सम्प्रदाय अद्वैत-वादियों का है, जिसकी मान्यता है कि सभी जीव ब्रह्म हैं; जो कुछ है वोह सब ब्रह्म ही है. इस लिए इन लोगों की मान्यतानुसार इस सिद्धांत को मान्यता दी जाती है कि जिस प्रकार सत्पदार्थ, 'सत' के ही अद्वैत रूप हैं, उसी प्रकार असत पदार्थ भी उसी सत के अद्वैत रूप ही हैं. उनका तर्क है कि सत और असत दोनों उस एक ही स्रोत से निकले हैं और दोनों ही उसी के रूपांतर हैं अतः असत और माया को नकारा भी नहीं जा सकता है और इस प्रकार इसे भी मान्यता मिल जाती है.
सत कभी कभी मानव आकारों में भी प्रकट होता है, जैसा कि श्रीमन मुईनुद्दीन जुवैदी का संकेत है (यद्यपि कि नासमझ लोग इसे स्वीकार नहीं करते) कि समष्टियाँ और आंशिक अहंकार्मयी प्राणिक सत्ता में विवेक-परख चेतना के मध्य उनमें उस 'स्वच्छंद-सत्ता' की प्रतिष्ठा करें. परम-सत्य की प्रकृति ज्योतिर्मयी और आनंदमय है. प्राणमय सत्ता को भगवान् की सेवा में उत्सर्ग कर दिया गया और उस परम सत्ता के प्रति एकनिष्ट समर्पण कर दिया गया, तो आत्मा उस समय, एक दर्पण की स्वच्छ हो जाती है. अतः अब वहां जो कुछ भी द्रष्टिगोचर हो, वोह सकल हो या अंश, सभी कुछ यथा-योग्य देखें. वास्तविकता जब है, तो उसकी कृत्रिमता भी है; अस्तित्व जब है तो उसके गुण भी हैं. अच्छा-बुरा, प्रकाश-अन्धकार; आशय यह है की जो कुछ भी जगत है वोह सब उसी परात्परा-शक्ति की चेष्टा के परिणाम-स्वरूप है और सबके आविर्भूत और प्राकट्य का कुछ न कुछ कारण अवश्य है. वैज्ञानिक द्रष्टिकोण यह है की प्रत्येक के होने का भेद स्पष्ट हो जाय और यथा-स्थान उनका उचित प्रयोग करें. निराकार यदि है तो साकार भी है. निराकार में आस्था रखने वाले साकार से भाग कर कहीं जा नहीं सकते; कहीं न कहीं वे साकार का उदघाटन भी करते हैं, क्यों कि यह उनकी विवशता है. यह बात अलग है कि अपनी हठ-धर्मता के कारण इस सच को स्वीकार न करें. अतः आप्तजनों का यह वचन कि 'सत' कभी-कभी मानव आकृतियों में भी प्रकट होता है, मिथ्या नहीं है. अतः उस स्वच्छंद सत्ता के एक विशेष विभूति के रूप में दर्शन करना चाहिए.
इस विषय पर कि अभ्यासी की सत्य-सत्ता, को उस अतीन्द्रिय-संवेदी परात्पराशक्ति का स्पर्श-सुख और सतत उपस्थिति, निरंतर और अबाध रूप से अनुभव करती है, अथवा नहीं - तत्व-विदों का आपस में मतभेद है. एक सम्प्रदाय का दावा है कि यह सतत साक्षात उपस्थिति उस के लिए निरंतर और अबाध रूप से उपलब्ध है तो दूसरा इसका खंडन करता है. एक ब्रह्म-ज्ञानी का संकेत है कि उपस्थिति का साक्षात्कार आवृत ज्योति के सद्रश है. कुछेक आप्त-जनों का वर्चस्व है कि ज्ञानी और द्रष्टि-मार्गियों को निरंतर दर्शन होता रहता है जब कि अन्य का अपना अनुभव है कि ऐसा सदैव नहीं होता. इसी सन्दर्भ में एक तत्वग्य ब्रह्मज्ञानी महोदय का वक्तव्य है कि ज्योति की उपस्थिति आवरण के मध्य में केन्द्रित है.
साक्षात दर्शन अर्थात 'आँखों देखी गवाही' एवं विश्वास का होना, 'ज्योति' के अस्तित्व को तो अवश्य सिद्ध करती है, किन्तु यह ज्योति, मात्र क्षितिज सद्रश है; वास्तविकता नहीं है, क्यों कि सत्य-सत्ता रस, रूप, रंग, गंध और स्पर्श से परे है - योग-शास्त्र में उसे अतीन्द्रिय-संवेदी कहा गया है; और ज्योति, सूक्ष्म माया है. साक्ष्य और द्रष्टि में कुछ अंश ज्योति का है और कुछ अंश स्वाभाविकता का. अध्यात्म-ज्योति दो प्रकार की है; एक निजी आत्मिक और दूसरी स्वाभाविक, जिसमें स्थायित्व नहीं है.
आत्मज्योति सत का अलख और अगम स्वरूप है, जो देखनें समझनें और थाह लेने में नहीं आ सकता है. उसका कोई आकार नहीं है. माया में यह विशेषताएं नहीं हैं. वोह अपना प्रथक अस्तित्व रखती है, और स्वाभाविक ज्योति गुणों के सहित द्रष्टि में आती है, चाहे वोह अंतर्मुखी आँखों में आवे या बाहरी जगत में. संभवतः, भ्रम यह है कि जिस एक सम्प्रदाय का यह एक मत है कि ज्ञानी के लिए साक्षात्कार सदा-सर्वदा नहीं है, ज्ञानी वही है जिसको आत्म-ज्योति प्राप्त है, जहां नाम और रूप दोनों नहीं हैं, तब उसके लिए स्वाभाविक ज्योति अर्थात गुणों सहित प्रकाश कोई अर्थ नहीं रखता और उसके मिस ऐसी ज्योति ओझल हो जाती है अथवा अभ्यासी ऐसी ज्योति की परिधि से आगे चला जाता है. उसके लिए सचमुच साक्षात्कार नहीं है. किन्तु (अपने निजी अनुभव के आधार पर) मेरा निवेदन है कि साक्षात्कार आवश्यक है; और आत्मिक ज्योति से साक्षात्कार अर्थात 'सत' और 'यथार्थ' का है, जो चिर स्थायी है. स्वाभाविक ज्योति का साक्षात्कार उसके लिए समाप्त हो गया. ऐसा दर्शक (अभ्यासी) जो अभी स्वाभाविक ज्योति और माया की परिधि और सीमा से आगे नहीं गया है (उसके लिए) आत्मिक और स्वाभाविक दोनों ही साक्षात्कार महत्वपूर्ण हैं. प्रथम तो वोह जिसको देख रहा है और द्वितीय वोह जो आगे चल कर आएगा. सारांश यह है कि आत्मिक ज्योति के अस्तित्व को कृत भी कह सकते हैं और अकृत भी. जो है भी और नहीं भी है. स्थिति यह है कि जब मन और बुद्धि दोनों केंद्र सम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात जब चैत्य पुरुष अपनी निजी समचित्तता या अति भौतिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है, प्राणिक इच्छाओं की सत्ता में चतुर्दिक मार्जन हो जाता है और जब उपांशु अपनी स्वाभाविक अवस्था में क्रीड़ारत होता है. तब अपने ह्रदय के भीतर उस परमपुरुष की अलौकिक रूप-आभा, जिसकी ज्योति से अनंत ब्रह्मांड जग-मग हो रहे हैं, उस वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार होता है; "ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत" की यही अनुभूति है. इसके परिणाम-स्वरुप जो प्राप्ति होती है वोह जाती नहीं; हाँ यह अवश्य है - ज्योति कभी द्रष्टिगोचर होती है और कभी उसकी अनुभूति नहीं होती, कभी तो उसका प्रवाह बहुत तीव्र होता है और कभी सौम्य और सहज.
चैत्य पुरुष जब भगवान् के साथ आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ अभीप्सा के परिणाम-स्वरुप जिस ज्योति के वोह साक्षात्कार करता है तो उसकी निम्नलिखित अवस्थाएं होतीं हैं-
-बहिर्मुखी चेतना का अपने अस्तित्व में लोप हो जाता है. वोह निडर, निष्प्रभावी और उदासीन सा दिखता है;
-निजी अस्तित्व की चेतना और इस स्थूल काया का आभास लोपप्राय हो जाता है;
-चित्त की एकाग्रता एक ओर लग कर रह जाती है व शेष सभी उद्वेग शांत हो जाते हैं;
-लय की वोह अवस्था जिसमें अभ्यासी अपनी भिन्न-सत्ता की प्रतीति से परे हो जाता है.
यह सभी स्थितियां ऐसीं हैं जिनका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता. इन स्थितियों में सत्य की सत्ता के अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं होता.
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- सबसे पहले स्मरण (recollection) होता है। स्मरण का अर्थ है - स्मृति का ध्येय में तद्रूप हो जाना. यह तद्रूपता धीरे-धीरे इतनी घनीभूत हो जाती है कि यह अंतःकरण की अपनी स्वस्थ्य एवं स्वाभाविक स्थिति हो जाती है।
- दूसरी स्थिति है निश्चलता (quit); जब यह प्राप्त होती है तब मन, अपने प्राण प्यारे के सिवाय कहीं हिलता-डुलता ही नहीं। उसे छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहता।
- तीसरी स्थिति मिलन (union) है; निश्छल मन अपनें प्रभु को प्राप्त कर लेता है और तभी मिलन होता है। मिलन में आनंद की विभोर दशा की अधिकता हो जाती है।
- चौथी स्थिति में भीटर ही भीतर, निर्भरता से घिरी हुई अपूर्व उन्मत्तता (ecstasy) का अविर्भाव होता है। यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है। यह मिलन-जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है। उन्मत्तता में अपने शरीर की संभाल स्वयं हट जाती है और शिष्य अपने गुरुदेव में उसी प्रकार लय हो जाता है जिस प्रकार पानी में रंग, दूध में मिश्री या समुद्र में नमक।
- पांचवी और अंतिम स्थिति है, तन्मयता (rapt) की। यहाँ शिष्य की संज्ञा प्रेमी में परिणित हो जाती है। उपनिषद में "इस गुह्य विद्द्या" के अधिकारी होने की जो एक शर्त यह भी बताई गयी है कि "शिष्य पुत्र हो जाय और पुत्र शिष्य हो जाय"; इसी स्थिति की ऑर संकेत है। अब शिष्य में अपने गुरु के प्रति ऐसी प्रीति जाग्रत होती है कि वह उनके बिना रह ही नहीं सकता। इस प्रीति को पा कर शिष्य सर्व-शून्य एवं निरावरण हो कर, एक-मात्र अपने सदगुरुदेव का हो कर ही रह जाता है।
उस अभ्यासी (शिष्य) की मनोदशा यहाँ पर ऐसी हो जाती है कि हर समय और हर स्थान पर वोह अपने सदगुरुदेव की मधुर उपस्थिति अनुभव करता है और इसी अनुभूति में वोह सुध-बुध खो कर मस्त रहता है. प्रेम के इसी अमृत को पी कर ईसा हँसते-हँसते सूली पर चढ़ गए और मीरा जहर का प्याला भगवान् का चरनामृत समझ कर पी गयी.
सायुज्य में यह हो कि 'उनके' और 'अपने' बीच में कोई अंतर शेष न रह जाय. दुसरे जब याद दिलावें तब याद आवे.और बातें सब वही हों जो गुरुदेवजी जानते हों. यहाँ पर गुरु और शिष्य एक हो जाते हैं. परम प्रेम (दीनता) के सुधा-पान के लिए यह आवश्यक है कि जगत में द्रष्टिगोचर होने वाली भिन्नता तथा अनेक नाम-रूप में छिपी हुई 'एक' परमात्म-ज्योति से साक्षात्कार हो जाय. खंड, सीमा, परिवर्तन, म्रत्त्यु, हाहाकार और विनाश के उस पार जो प्रीतम की नगरी है और इन दीख पड़ने वाली भिन्नताओं को पार करके ही वहां जाया जा सकता है. वहां जा कर वापसी नहीं होती. कबीर की साधना में इस संसार के प्रति अटूट द्रढ़ और अजेय वैराग्य है; जो उन्हें संसार में विरमनें नहीं देता और उन्होंने इसी बल बूते पर "साईं के देश" पहुँच कर "साजन की अटारी" पर पौढ़ते हुए कहा है - "अब हम अमर भए न मरेंगे".
इस सबके अनुभव करते हुए मार्ग को तय कर परम पद तक पहुचने को "सैर" कहते हैं.
ईश्वर में स्थिति प्राप्ति के साधन.
ईश्वर में स्थिति, प्रेम और दीनता से प्राप्त की जा सकती है, आशय यह है कि सिवाय परमात्मा के अन्य सभी वस्तुओं से नितांत विरक्ति हो जावे और संसार की ऑर ध्यान न जावे. क्रिया-शक्ति प्रीति और भजन में लगी रही. और उस एकमात्र सत्ता में लय होने के लिए इस प्रकार विकल और आसक्त रहे जैसे कि विकलता पानी में डूबता प्राणी की अपने प्राण-रक्षक के लिए होती है.
मौलाना जामी (ईश्वर की दयालुता उनपर हो) की एक पुस्तक जिसमें हदीस (पवित्र वचन) देखने को मिली. उसका अनुवाद यह है कि जो मेरे प्रेम का मारा हुआ है, मैं उसके (प्रति) बयत, अर्थात समर्पण की भावना रखता हूँ और मैं स्वम उसका क्षति-पूरक हूँ. इस सन्देश के माध्यम से ईश्वर में ध्यान की विधा को उजागर किया है. वोह इस प्रकार है कि जब प्रेम; आत्मीयता, लय अवस्था और सत्य-निष्ठ होने की प्रतिष्ठा (अमानत) के बिंदु तक पहुँच जाता है तब अभ्यासी, सायुज्ज्य्ता (याफ्त) और निजी-प्रकाश की आनंदानुभूति करने में सफल हो जाता है.
यहाँ पर बयत, अर्थात समर्पण की निष्ठा से तात्पर्य है -
सायुज्ज्य्ता की स्थिति का रसास्वादन, जो ईश्वर के प्रति निजी-प्रेम में अपने अस्तित्व को मिटा देने के फलस्वरूप प्रकट और सुलभ होता है. 'जापक'-अभ्यासिओं के लिए ध्यान की विधि की ओर इंगित करते हुए संकेत है की - "भाढ़ की तपती रेत के मध्य पड़ा हुआ अनाज का दाना जैसे बार-बार भूने जाने पर भी बार-बार उछल पड़ता है, किन्तु उस रेत से बाहर नहीं जाना चाहता; उसी प्रकार इस प्रेमजन्य संताप के अतिरेक से उसका मन हट-हट कर उस संताप को सहने की अत्त्यंत सुखद वृत्ति (पड़ी लत) के कारण उसी की ओर प्रवृत्त रहता है. तात्पर्य यह है कि वियुक्त प्रिय का ध्यान आते ही चित्त संताप से विव्हल हो जाता है, फिर भी वोह बार-बार उसी का ध्यान करता रहता है. प्रेम-दशा चाहें घोर यंत्र्नामय हो जाए, पर ह्रदय उस दशा से अलग होना नहीं चाहता. एकाग्र ध्यान की यही अवस्था चरम लक्ष्य तक पहुचाने में अहम है.
खूँबहा (क्षतिपूरक) से तात्पर्य है कि उस निशित की गयी धन-राशि से है जो बधिक की ओर से, जिस व्यक्ति का वध हो गया हो, उसके घर वालों को उस क्षति के पूरक के रूप में अदा की जाती हो. ईश्वर के सन्दर्भ में इस पूर्व-लिखित वक्तव्य से यह समझना चाहिए कि यदि उसके प्रेम में किसी भक्त के जीवन की क्षति हो गयी हो तो उसके इस आत्मोत्सर्ग की क्षति-पूर्ती के रूप में ईस्वर की दिव्य-स्थिति की उपलब्धि उसे हो जाती है; अर्थात भक्त ने यदि उसकी याद में प्राण त्याग दिए हैं तो उसे भगवान् मिल जाते हैं.
ईश्वर ने अपने इसी वक्तव्य के माध्यम से ध्यान और समाधि की एक विशेष विधा को निर्दिष्ट किया है. संषेप में इसे इस प्रकार समझ लें कि उसकी याद में उसकी प्रतीक्षा की अनुभूति को साकार प्राप्त प्राप्त करें और इसी स्थिति में एकाग्रता की ऐसी स्थिरता करें कि समाधि लग जाय. हमारा प्रेम ऐसा नितांत और निजी हो जाय कि बीच में किसी भी प्रकार का स्वार्थ या प्रयोजन शेष न रह जाय, जो उस दिव्य सम्बन्ध में बाधक हो. ऐसी प्रेम-मई समाधि अभ्यासी को अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे तात्यिक और सत्त्यनिष्ठ होने की प्रतिष्ठा के चरम बिंदु तक पह्नुचाने वाली होती है. अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे का चरम-बिंदु यह है कि प्रेम की हालत में प्रियतम और प्रेमी, भक्त और भगवंत के बीच (भेद) का पर्दा उठ जाय. भक्त को यह आभास और परख शेष न रहे कि भक्त कौन है और भगवंत कौन है.
यह समाधि कबीर के इस रूपक से स्पष्ट होती है - आँखों में प्रियतम की छवि भरी हुई है, काजल की रेखा उसमें कैसे अटे? आंठो पहर, चौसंठ घढ़ी जब हरि के सिवा कोंई रहा ही नहीं, फिर नींद निगोड़ी कैसे आवे? सच्ची पतिव्रता तो वोह है जो एक क्षण के लिए भी संसार पर आँखे नहीं डालती. वोह तो अहर्निश आँखे बंद करके प्रभु के रस में डूबी रहती है.
"कबीर रेख सिन्दूर अरु, काजर दिया न जाय.
नयनन प्रीतम मिलि रहा, दूजा कहाँ समाय.
आठ पहर चौसठ घड़ी, मेरे और न कोय .
नैना माहि तू बसय, नींद को ठौर न होय.
पतिवर्ता तब जानिये, रतियु न उघरे नयन .
अंतर गति सकुची रहे, बोले मधुरे बैन."
उस सनातन सत्ता के स्पर्श में आ जाने पर मानव की अमरता व्याप्त हो जाती है. इसकी हल्की सी झांकी कबीर के इस पद में देखनें को मिलती है-
"रस गगन गुफा में अजर झरय!
बिन बाजा झंकार उठै जहँ, समुझि परै जब ध्यान धरय!!
बिन ताल जहँ कमल फुलानें, तेहिं चढ़ि हंसा केलि करय!
बिनि चन्दा उजियारी दरसे, जहँ तहँ हंसा नजर परै!!
दसवें द्वारे ताली लागी, अलख-पुरख जाको ध्यान धरै!
काल कराल निकट नहीं आवै, काम-क्रोध, मद-लोभ जरै!!
जुगन-जुगन को तृषा बुझानी, करम-भरम अध् व्याधि तारे!
कहैं कबीर सुनौ भई साधो, अमर होई कबहूँ न मरै!!"
मृत्यु रूपी इसी अंतिम क्षण की शुभ प्रेम गति को ले कर ही संसार के समग्र दर्शन, धर्म, मत, दिद्धांत,जप, ताप, पूजा, पाठ, नियम, व्रत आदि हैं कि वह अंतिम क्षण, जिसमे हम संसार से कूच कर रहे हों, प्रभुमय हो, आनंदमय हो, इसी के लिए जीवन भर अभ्यास किया जाता है. प्राण-विसर्जन की उस अंतिम बेला में बिलकुल छुट जाय, हमारे प्राणों को केवल प्रभु जी की शीतल-मधुर पावन स्पर्श अनुभव होता रहे. उस स्पर्श की शीतलता में हमारे रोम-रोम पुलकित हो उठें, होठों पर हल्की सी मुस्कान हो और उसी मुस्कान के के साथ हम विदा हों.
मृत्यु को संतों और भक्तों नें एक अपूर्व कौतूहलपूर्ण द्रष्टि से देखा है. एक और तो संसार से मुक्ति मिली, वैराग्य हुआ, दूसरी और इसे साजन के देश का निमंत्रण मिला. मृत्यु से संसार की अनित्त्यता और क्षणभंगुरता ही नहीं प्रमाणित हुयी, प्रत्युत यह भी प्रमाणित हुआ कि हम जन्म जन्म से अपने 'प्रानधन' को खोजते आ रहे हैं और हमारी खोज मृत्यु को भी लांघ कर चलती रहेगी. कबीर ने मृत्यु को "साजन के देश" का निमंत्रण माना है - "प्रीतम" का बुलावा, मिलन मंदिर के लिए प्रस्थान. मृत्यु उस "मिलन-मंदिर " का द्वार है जिसे पार कर "शीश -महल में "साईं की सेज पर पौढ़ने" को मिलेगा.
"कर ले सिंगार चतुर अलबेली, साजन के घर जाना होगा" सहज ही स्मरण हो आता है. उन्होंने तो 'अलबेली' को नहाने धोने, मांग में सिन्दूर लगा कर नयी लाल साड़ी पहनने की सलाह दी है, क्यों कि उनके विचार से यह 'मिलन' परम मिलन होगा और वहां से पुनः लौटना न होगा. "नहाले, धोले,सीस गुंधा ले, फिर वहां से नहिं आना होगा"!!
जब प्रेम इस बिंदु तक पहुँच जाता है तो प्रेमी सायुज्यता की स्थिति और आत्म प्रकाश के रसास्वादन में विभोर हो जाता है. ध्यान की यही प्रक्रिया और स्थिति पूर्ण और ध्रुव पद पर पहुँचाने वाली है. ध्यान और समाधि की जिन अवस्थाओं का विवरण ऊपर आया है वे केवल अनुभव-गम्य हैं.
यह एक प्रकार का मिलाप और योग की स्थिति है. सब से पहले वैराग्य हो जाय; जो कुछ संसार द्रश्य और श्रव्य है, उसकी और से से मुहं मोड़ ले तत्पश्चात उपासना में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय, उस परम तत्त्व के प्रति ऐसा आकर्षण व ऐसी लय अवस्था हो जाय, जिसका विवरण किसी रंग-रूप और नाम से नहीं दिया जा सकता है. वोह एक ऐसी स्थिति है जो सब का आधार है; स्वम किसी का आधार अहिं है.
इस लय अवस्था की पहली स्थिति अपने आप में बेसुध हो जाने की होती है. सब इन्द्रियाँ बेसुध हो जातीं हैं, बल्कि इस प्रकार निष्क्रिय हो जातें हैं मानो मृत्यु हो गयी हो. फिर भी मृत्यु और इस लय अवस्था के बीच यह अंतर है कि मृत्यु में तो कोई चीज़ या वास्तु अपने सामें नहीं रहती किन्तु लय अवस्था में बेसुधी की स्थिति में केवल एक लक्ष्य सामने शेष रहता है और अन्य सभी दूसरी वस्तुओं के लिए मृत्यु जैसी बेसुधी हो जाती है. लय की यह स्थिति "हुजूरी" कहलाती है.
यदि अभ्यासी की अवस्था ऐसी होने लगे जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, भले ही वोह थोड़े समय मात्र के लिए ही क्यों न हो, तो यह समझना चाहिए कि उसका सम्बन्ध विराट देश से हो गया है; जहां पर सभी तत्त्वों एवं कुल शक्तिओं का भण्डार है. ऐसे अभ्यासी को इस्लामी अध्यात्म-वाद में "वली" (ऋषी) कहते हैं.
ऋषी की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं हैं -
(१) ऐसी अवस्था हो कि थोड़े दिन उसको पर्याप्त आनंद आवे और तबीयत लगी रहे. हालत भाव विभोर एवं शरीर गदगद रहे तथा बिना प्रयास के भी तबीयत उसी ओर झुकी रहे. अपने आप को और अपने तन-बदन को भूला रहे. ऐसी अवस्था में जैसे कि नशा करके होती है. किन्तु थोड़ी देर बाद या थोड़े दिनों बाद यह अवस्था स्वम ही जाती रहे. आनंद न आवे, तबीयत ठस रहे. हर समय विचारों का झुण्ड बना रहे. तबीयत में परेशानी, तनाव व भारीपन रहे और बार बार प्रयास के उपरान्त भी तबीयत का झुकाव व लगाव उत्पन्न न हो.
(२) ऐसी अवस्था हो कि कभी जल्दी और कभी देर में मन का झुकाव असल पद की ओर हो, बेसुधी या नशा सा रहे.
(३) निरंतर सम अवस्था में रहे; घबराहट न हो, कभी बेचैनी या तनाव की स्थिति भी न हो, इसी स्थिति में स्थिरता आ जाती है. यह स्थिति स्थिति-प्रज्ञ की कहलाती है.
स्थिति-प्रज्ञ, परमभक्त ब्रह्मभूत पुरुष का गुण है; जिससे लोग उकताते नहीं और जो न लोगों से उकताता हो. जो व्यक्ति आनंद, शोक, भय, सुख और दुःख इत्त्यादिक बन्धनों से मुक्त है; सदा अपने आप में ही निश्चिन्त रहता है. तीनों गुणों से जिसका मन चंचल नहीं होता, प्रशंसा या निंदा, प्रतिष्ठा या अपमान जिसके लिए बराबर हैं और जिसने अनेक जीवधारिओं में रहने वाली आत्मा की एकता (universality) को परख कर, मस्तिष्क को सम अवस्था से सम्पूर्ण तर्क-वितर्क से परे हट कर दृड़ता व स्वेक्षा से अपने कर्म को जान लिया है और उसका पालन करता है. उसके लिए लोहा, सोना, पत्थर सभी बराबर हैं.
इन स्थितियों को क्रमशः हंस, परमहंस और संत की गतियाँ कह सकते हैं. हंस की गति में उतार-चढ़ाव लगा रहता है. परमहंस में उतार-चढ़ाव तो होता है किन्तु वोह उसको इतना भासता नहीं, उसको इसका अनुमान नहीं होता. संत की गति स्थिति-प्रज्ञ की होती है. परमसंत की गति इससे कहीं उत्तम होती है.
संतों, परमसंतों की आध्यात्मिक स्थिति का वर्णन करना अत्तयंत कठिन है. शब्दों में उनके आनंद का वर्णन क्या हो? वोह तो स्वसंवेद्य हैं, गूंगे का गुढ़ है. जिनके लिए यह जगत रह ही नहीं गया; जो सर्वत्त्र-सर्वदा भीतर-बाहर ऊपर-नीचे दायें-बाएं हर घढ़ी, हर ठौर केवल अपने मालिक का ही स्मरण व दर्शन करते हैं, उसी का स्पर्श करते हैं, उसी का रसास्वादन करते हैं और उसी के रस में स्वम छके रहते हैं, उनके सुख दिव्य आनंद का वर्णन कोई करे भी तो कैसे?
मनुष्य का जीवन एक विचित्र पहेली है. एक ओर विषयों का आनंद है और दूसरी ओर आत्मा का आनंद है. क्षणिक और अनित्त्य आनंद तथा निरंतर एवं नित्य आनंद में विवेक द्वारा भेद समझ कर सच्चे आनंद की उपलब्धि के लिए लगना चाहिए. यदि साधक भौतिक आनंद में लिपट गया तो उसकी आत्मा एक पिंजड़े में बंध गयी. वोह परमात्म आनंद को क्यों कर और कैसी जान सकेगा? यदि दिव्य आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि चाहते हो तो विषयानंद की आसक्ति से मुक्त हो जाना चाहिए. वोह परमानंद एक-एक अणु में ओतप्रोत हो रहा है. आवश्यकता है मोह का आवरण हटा कार एकांत भाव से परमात्म दर्शन और भगवत-मिलन की आकुल उत्कंठा की.
ब्रह्मसंस्पर्ष
संस्पर्श आनंद अन्तःस्थल की वोह उन्मादकारी अनुभूति है जो किसे साधक को उस परमपुरुष के अमृत-तत्त्व के स्पर्श में आ जाने से होती है एवं जिसको पा लेने पर वोह जन्म-जन्मान्तर के लिए निहाल हो जाता हो है. उसकी अमर ज्योति पल-पल और कण-कण में उद्भासित होती है. आठो पहर वोह प्रेमी साधक इसी रस में झूमता रहता है और उसका रोम-रोम प्रेमानंद में छका रहता है.
प्रकट तौर पर, उस अभ्यासी की स्थिति कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि उसको भूत, भविष्य और वर्तमान की कोई भी गति प्रभावित नहीं करती. उसे कुछ ज्ञान ही नहीं होता कि क्या हो रहा है, क्या होगा अथवा क्या होना चाहिए; एक स्थान पर यदि खड़ा है तो खड़ा हो कर रह जाता है. आशा तृष्णा कुछ भी शेष नहीं रह जाती. न कुछ पा लेने की प्रसन्नता न कुछ खो जाने का दुःख; मात्र एक प्रतिमा सी बन कर रह जाता है. किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वोह कोई सांसारिक कृत्य ही नहीं करे तथा पागल या निर्जीव बन कर रह जाय. नहीं ऐसा कदापि नहीं. वोह निश्चेष्ट या क्रियाहीन भी नहीं हो जाता. यों तो वोह सामान्य जीवधारियों की भान्ति ही रहता है किन्तु मानसिक स्थिति उसकी कुछ अवधूत जैसी हो जाती है - 'न आये की प्रसन्नता, न गए का दुःख' या न और कोइ विरोधाभास; और यदि उससे उसकी इस स्थिति की असामान्यता का कारण पूंछा जाय तो कदाचित वोह बता भी नहीं पायेगा.
यों यह एक प्रकार की उन्मत्तता का अविर्भाव है किन्तु यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है; यह मिलन्जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है. इस स्थिति में साधक की बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है, उसे परमात्मा के मिलन का आनंद प्राप्त हो जाता है और उसका हृदय उसी रस में सराबोर रहता है. वोह एक पल के लिए भी उससे बाहर नहीं आता. मुसलमान प्रत्त्यय-वादिओं (सूफिओं) ने इस स्थिति को "हैरत" की संज्ञा दी है - इसी अवस्था का वर्णन दुसरे संत-मतों और रहस्य-वाद में भी देखने को मिलता है.
जिसे प्रियतम-मिलन का रस मिल गया उसके लिए संसार के सभी रस नीरस हो गए. जिसने उस अरूप रूप को देख लिया उसकी दृष्टि संसार के रूप पर क्यों जायेगी? जिसे उसका नाम मिल गया, उसके लिए और नाम से क्या ममता? जिसे हरी के दिव्य अंग का स्पर्श प्राप्त हो गया उसे संसार के किसी भी स्पर्श के सुख का क्या अर्थ? भगवान् में एक साथ ही हमारी सभी इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं इसे ही "आठ पहर, साठों घरी, जागे हरि के ध्यान" कहा है. सदा सदैव भगवान् में जागता रहे; सर्वत्र जागरूक रहे; आवरण में उलझ न जाय, "गुढ़िओं" में फंस न जाय. गुढ़िओं को फेंकता जाय, खिलौनों पर आँखें न टिकने दे - पानी के लहरें आती जायं, उन्हें चीरता जाय; उस पार का विस्मरण न हो, प्राण-नाथ से मिलना है, यह भूले नहीं. दृष्टि स्र्वत्त्र, सदैव हरि पर ही रहे. संसार के घने आवरण को भेद कर, जगत के आकर्षण को रौन्ध्ते हुए उमंग और उल्ल्हास के साथ आगे बढ़ता चला जाय - "सोये है संसार सूँ, जागे हरि की ओर".
मन, प्राण और शरीर अनुभूति के साधन हैं. ब्रह्म-संस्पर्श का आनंद पठन-पाठन या चिंतन के द्वारा नहीं, केवल अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है. यह सर्वथा अतीन्द्रिय-संवेदी है. इसे गूंगे का गुढ़ कहा जाता है. किन्तु इस गुढ़ के स्वाद का सुख, साधारण जिव्ह्या का सुख मात्र न हो कर साक्षात, परात्परा शक्ति से संपर्क और स्पर्श का शाश्वत आनंद है; उसकी सतत उपस्थिति उसे जगत से संपर्क के समस्त संपर्कों को तार तार कर देने को बाध्य कर देती है. दूसरी ओर साधारण संसारियों के लिए उसकी यह मनोदशा सामान्य भाषा में उदासीनता कही जा सकती है - जिसका अर्थ है द्वन्द्वों के प्रति उपेक्षा. इस उदासीनता के शाब्दिक विश्लेषण के अनुसार इसका अर्थ बनता है - 'ऊपर आसीन होना', सभी भौतिक और मानसिक स्पर्शों के ऊपर होना. उदासीन अभ्यासी, कामना से मुक्त होता है. उसे समस्त भौतिक सुख-दुखों का या तो आभास ही नहीं होता और अन्यथा यदि होता भी है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके मन और शरीर मात्र को छू रहे हैं, स्वम उसे नहीं. वोह उस समय स्वम अपने मन और शरीर से भिन्न उनके ऊपर अवस्थित होता है. यह प्रशंसित प्रकार की निस्तब्धता है जो विशिष्ट साधकों को ही प्राप्त है, अन्यथा दूसरी अश्लील और दूषित है जो आम व्यक्तिओं के भाग की वस्तु है.
इस स्थिति को विस्मय और निःस्तब्धता के के अर्थों में स्पष्ट करने के मिस एक रूपक का सहारा लिया जा रहा है. एक ठेठ ग्रामीण व्यक्ति जिसने कभी अपनी झोपड़ी को नहीं छोड़ा है, यदि किसी प्रकार किसी राजसी महल में चला जाय या कलकत्ता, मुम्बई जैसे किसी बड़े शहर के जौहरियों की सोने-चांदी वालों की या बड़े-बड़े अंग्रेज़ी-पारसी सौदागरों की दुकानों पर ले जा कर खड़ा कर दिया जाय, तो वोह एक-दम हक्का-बक्का हो जाएगा, या कोई आदमी किसी अनिन्द्य पराकाष्ठा प्राप्त युवा-सुन्दरी को देख कर अध्ससा हो जाता है; ठीक उसी प्रकार भगवत्सत्ता के उस प्रकाश को देख कर चकाचौंध अवस्था में हो जाता है. किन्तु विशेष बात इस स्थिति की यह है कि इसमें संदेह या शंका का समावेश नहीं होता. उस स्थिति में पहुंच जाय पर उसको यह विचार करने का अवसर ही नहीं होता कि यह क्या है अथवा क्यों और कैसे है.
अचम्भा या स्तब्धता की अवस्था और संदेह और शंका की अवस्था में अंतर स्पष्ट हो पाना थोड़ा कठिन है. यह भ्रम रहता है कि यथार्थ में इस अभ्यासी या भक्त की अवस्था, स्तब्धता की है या संदेह की. अतः जहाँ ज्ञान की पूर्णता का समावेश है वहां स्तब्धता है, इसके विपरीत, अन्धकार व अज्ञान में जो स्थिति होती है वोह संदेह है. इसके अतिरिक्त एक सबसे बड़ा लक्षण यह भी है कि स्तब्धता चैत्य की विद्यमानता में होती है, अर्थात अभ्यासी को नाम और नामी का ज्ञान स्पष्ट व उपस्थित रहता है किन्तु संदेह और भ्रम के फलस्वरूप चैत्य का अभाव और असावधानी आवश्यक है. जो व्यक्ति अचम्भे या स्तब्धता की अवस्था में होता है उसको, उसके यथार्थ व उसके श्रोत को जानने और तादात्म्यता के अंतर्गत उसके दर्शन की ललक अपनी चरम सीमा पर होती है, किन्तु 'सदेह' की अवस्था वाला व्यक्ति लगाव के अनुमान में तुरंत ही यकायक लगाव के अभाव में उसकी वास्तविकता को जानने के चक्कर में अपनी मूर्खता-वश अधोगति का भागीदार बनता है.
अचम्भा या स्तब्धता दो तत्त्वों से मिल कर बने हैं- एक तो शारिक ज्ञान, दूसरा उसके बन जाने का कारण न जानना, अर्थात भौतिक ज्ञान तो होता है कि अमुक वस्तुएं और ऐसे बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं और उपथित हैं किन्तु यह सब रचना कैसे और क्यों हुई, यह ज्ञान नहीं होता इसलिए इसमें भ्रान्ति और संदेह दोनों का समावेश रहता है. इसमें न तो कोई अवयव ज्ञान का पाया जाता है न पूर्ण अज्ञान का ही. ऐसा लगता है कि इस अवस्था वाले व्यक्ति को ज्ञान की रचना ऐसे मिश्रित अवयवों से मिल कर हुयी है जिसमें संदेह का अंश तो उपस्थित है ही और ज्ञान के अंश होने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं. ऐसी स्थिति हमेशा, आने-जाने, आकर्षण-विकर्षण, अनेति-अनेंती और नेति-नेति की परिधिओं के अन्दर रहती है. इस प्रकार के संदेह का नाम- 'दूषित विस्मय' है. ऐसी अवस्था में प्राण के क्षेत्र में क्रिया होते समय जो उल्ल्हास होता है, वोह बहुत बार ठंडा पड़ जाता है और भौतिक सत्ता की एक-रस जड़ता, अंधकारमय बाधाओं सहित स्थूल भौतिक-चेतना में प्रकट होती है. यदि प्राण, बुद्धि या उच्चतर मन की प्रेरणा या उत्तेजना न हो तो साधारण अपरिष्कृत भौतिक चेतना की विशेषताएं होतीं है- जड़ता, तमस, मूर्खता, संकीर्णता, सीमा प्रगति के लिए अक्षमता, संदेह, अवसाद, शुष्कता और आध्यात्मिक अनुभूतियों की विस्मृति. यह सामयिक तौर पर हुआ करता है. इससे बाहर निकलनें का रास्ता यह नहीं है क़ि प्राणिक विद्रोह या चिल्ल-पों के द्वारा भौतिक सत्ता को जगाया जाय या इस अपनी दशा के लिए परिस्थितियों या अपने गुरुदेव को दोषी ठहराया जाय. क्योंकि इससे स्थिति और भी बिगड़ेगी. तमस, शुष्कता,अवसाद और जड़ता में बृद्धि होगी. एक सतत और प्रयत्नशील अभ्यासी को जानना चाहिये क़ि उसके अन्दर सार्वभौम पृकृति कोई तत्त्व प्रतिष्ठित हो रहा है, जिसे निकाल बाहर करना ही श्रेयस्कर होगा. और इसका एक ही उपाय है - अधिक से अधिक समर्पण और अभीप्सा और उसके माध्यम से मन और प्राण के परे से भागवत-शान्ति, ज्योति, शक्ति और उपस्थिति को अपने अन्दर लाया जाय. इसे हुजूरी कहते हैं.
भागवत-सत्य की ज्योति
कई बार साधक ने अनुभव किया होगा- ज्योति गहरी और गहरी प्रविष्ट होती चली गयी. तुम्हारे अन्दर भी महिमान्वित शरीर की प्रक्रिया चलती रहती है; क्यों कि तुम मेरी आध्यात्मिक संतान हो ; मेरे बिना तम्हारा अस्तित्व है ही नहीं और मैं तुम्हारे बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता. यदि कर सकते हो तो अपनी बाहरी आँखों के अंधेपन को बेध कर अपने उस शरीर को देखो जो मेरी तीव्र चेतना और क्रिया दोनों से पूर्ण तादात्म्य हो कर धरती पर एक दिव्य जीवन और दिव्य आस्था के रूप में प्रकट हो रहा है; देखो! एक शुभ्र महिमामयी कांति जिसमें धीरे धीरे बाहरी पदार्थ घुल मिल रहे हैं, अपने आप को वाह्य तत्व में प्रक्षिप्त कर रही है ताकि उसे तद्रूप कर सके. ज्योति शरीर के अंग-अंग में खेलती है, कभी आगे जाती है, तो कभी पीछे हट जाती है. कभी इस अपने ही शरीर में एक सुकुमार्य सौन्दर्य-पुंज अवतरित होता है, अपना है फिर भी सम्मोहन होता है, तो कभी एक महान शक्ति प्रकट होती हुई सी दीखती है. यहाँ तक कि कभी कभी हमारा सुपरिचित शरीर कुछ देर के लिए आँखों से ओझल हो जाता है और उसके स्थान पर शुद्ध और शाश्वत दिव्यता शेष रह जाती है.
यही ज्योति, जो अभ्यास के मध्य क्रीड़ारत होती है, कभी शुद्ध शाश्वत सफ़ेद, तो कभी हरी, और कभी स्वर्णिम-लालिमा से ढका हुआ एक झीना, किन्तु निष्चल शांत आवरण सद्रश्य, जिसके उसपार न दृष्टि ही जाती है और न जिज्ञासा. अंत में यही दृश्य शुद्ध पारदर्शी नीलिमा में परिणित हो जाता है, जो श्रेष्ठता व भगवत करुणा की प्रतिष्ठा का प्रतीक है. अभिरंजित आभा जब सत के प्रकाश से सम्भोग करती है तभी यह दृश्य आभासित होते हैं. इस ज्योतिर्मयी आभा की प्रतीकी यह है कि इसकी बीथिका का संयोग यदि स्कंध के दाहिनी ओर बाहुमूल से मिलता हो तो यह ज्योति उस देव-दूत का प्रतीक है जो कि अच्छे संस्कारों को अंकित करनें के लिए नियुक्त है. यदि स्कंध से निपट सटा हुआ न हो तो यह अपने सदगुरुदेव की है. यदि इसका प्राकट्य प्रतिमुख या पुरोभाग में हो तो प्रतिष्ठित ईश-दूत या दुसरे अवतारों की है. यदि इस ज्योति का अविर्भाव बांयी ओर से हो और स्कंध से मिला हुआ हो तो यह अभिव्यक्ति बाम-भाग के देवदूत का है जो बुरे कर्मों को लिखती है या संस्कार बनाती रहती है. यदि वोह स्कन्ध के बाहुमूल से निपट सटा हुआ नहीं है तो जान लेना चाहिए कि यह तमोगुण-मयी सत्ता की है, जिसको काल-शक्ति कहते हैं. इसी प्रकार यदि बाम दिशा से किसी छवि या आकृति का आभास हो तो यह तमो-गुण-मयी भ्रान्ति है, और यदि ऊपर या पीछे की ओर से प्रकट हो तो समझना चाहिए, यह उन देवताओं का प्रतीक है जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सम्हाल करते हैं, जैसे - विष्णु, ब्रह्मा, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि. यदि इन आभासों की दिशा, निश्चित न हो सके, या उसका ज्ञान न हो, उससे आतंकित हो अथवा छवि के लोप हो जाने के उपरान्त सतत उपस्थित का भाव शेष न रह जाय तो समझना चाहिए कि यह निम्न-तमोगुण-मयी सत्ता का खेल है. किन्तु यदि छवि के दर्शन के मध्य शान्ति आभासित हो और जब वोह आकृति लोप हो जाय तो उसके चले जाने का दुःख और पुनःमिलन की ललक हो, तो यह शद्ध शाश्वत भागवत ज्योति है और उसका प्राकट्य है. यदि बक्ष के ऊपर या नाभि के ऊपर से प्रकट हो तो यह भी मायावी जाल समझना चाहिए. किन्तु यदि ह्रदय के ऊपर से अवतरित हो तो यह उसकी सफाई के मिस है.
यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य बात और नेक सलाह यह है कि सच्चे जिज्ञासु को चाहिए कि इन द्रश्यों की न तो कल्पना करे और न इन बातों पर ध्यान ही दे. क्यों कि यह मार्ग के मध्य की बातें हैं, गंतव्य या शाश्वत सत्य से इनका कोई सरोकार नहीं. इन सबको देखता भालता हुआ निकल जाय, क्यों कि यह मारिचिकाएं हैं, जो माया का स्वरूप हैं.
सत्पद का साक्षात्कार
कुछेक ज्ञानी कहते हैं कि जब निम्न-प्राण-मय चेतना के स्थान पर चैत्य-अभीप्सा की प्रतिष्ठा हो जाती है, और अभ्यासी अपनी असंतुष्ट इच्छाओं से होने वाली निराशा, अवसाद, असंतोष, दुःख, परिवाद(अन्याय की भावना), विद्रोह, अकर्मण्यता और तमस, शुष्कता, उदासी और साधना की समाप्ति या विराम जैसी अहंकार-केन्द्रित या उसके किसी भाग द्वारा किये गए विद्रोह से छुटकारा पा लेता है तब प्राणमय सत्ता का परात्परा-शक्ति से उत्सर्ग हो जाता है, जहां उसका उस परम सत्य के प्रति एकनिष्ट समर्पण होता है जिसमे मांगों और दावों का प्रवेश तक नहीं हो सकता. चैत्य-पुरुष, आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ भगवान् की अभीप्सा करता है. उसे जिस वस्तु की खोज है और जिसे वोह पाता है वोह प्राण या भौतिक मांगो की तुष्टि का आनंद नहीं है. सच्चे सामीप्य का अनुसंधान उसे करना होता है जिससे हृदय के अन्दर भगवान् की सदैव सतत उपस्थिति बनी रहती है और सारी प्रकृति में भगवान् का राज्य प्रकट हो जाता है; अतिमानसिक ज्योति शक्ति और चेतना की एक अविरल धारा के सद्रश्य, अपने सम्पुर्ण आवेग के साथ सम्भोग करती है और अतिमानसिक कोष पर्याप्त तीव्रता के साथ अपने आप को उसमें प्रकट करता है, अपने चारो ओर व्याप्त भगवान् के साथ चेतना और क्रिया दोनों में पूर्ण तादातम्य स्थापित हो जाता है.
इसी प्रकार संतों का भी यह विश्वास है कि जब अभ्यासी का मन व अंतःकरण मल, विक्षेप और आवरण से निर्दोष हो जाता है और निम्न-प्राण-मय वासनाएं शेष नहीं रहतीं, जाप में डूब कर चैत्य की सतत उपस्थिति रहती है तो ऐसी स्थिति में उसको एक प्रकार की तन्मयता आ जाती है और अतीन्द्रिय संवेदी मंडलों से संपर्क स्थापित हो जाता है और इस सम्बन्ध की प्रतिक्रया-स्वरुप स्रष्टि का नाद-श्रव्य हो जाता है, उसका अंतर दिव्य-ज्योति से भर जाता है और इसी आभा के बीच वोह सतपद का साक्षात्कार कर लेता है. सारे द्वंद स्वतः ही मिट जाते हैं तथा विश्वास की नित्यता उसे प्राप्त हो जाती है. इस समय वोह परमात्मसत्ता की इच्छा और आदेश, दोनों से परिचित हो चुका होता है जिसके फलस्वरूप द्रश्य और स्थूल-शरीर व इन्द्रियों से छिपी हुई बातों और गुप्त रहस्यों को देख-परख सकता है. इस स्थिति को प्राप्त साधक अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर इस असार संसार से पार हो जाता है.
कुल इन्द्रियों और अंतःकरण में जो जो उद्वेग और विचार जन्म लेंगे वे द्विकर्मक - पारखी होंगे अर्थात यदि वे घटना के अनुकूल हैं तो वोह 'सत' होंगे और यदि इसके विपरीत घट्नानुकूल न होंगे तो असत या झूट.
एक सम्प्रदाय अद्वैत-वादियों का है, जिसकी मान्यता है कि सभी जीव ब्रह्म हैं; जो कुछ है वोह सब ब्रह्म ही है. इस लिए इन लोगों की मान्यतानुसार इस सिद्धांत को मान्यता दी जाती है कि जिस प्रकार सत्पदार्थ, 'सत' के ही अद्वैत रूप हैं, उसी प्रकार असत पदार्थ भी उसी सत के अद्वैत रूप ही हैं. उनका तर्क है कि सत और असत दोनों उस एक ही स्रोत से निकले हैं और दोनों ही उसी के रूपांतर हैं अतः असत और माया को नकारा भी नहीं जा सकता है और इस प्रकार इसे भी मान्यता मिल जाती है.
सत कभी कभी मानव आकारों में भी प्रकट होता है, जैसा कि श्रीमन मुईनुद्दीन जुवैदी का संकेत है (यद्यपि कि नासमझ लोग इसे स्वीकार नहीं करते) कि समष्टियाँ और आंशिक अहंकार्मयी प्राणिक सत्ता में विवेक-परख चेतना के मध्य उनमें उस 'स्वच्छंद-सत्ता' की प्रतिष्ठा करें. परम-सत्य की प्रकृति ज्योतिर्मयी और आनंदमय है. प्राणमय सत्ता को भगवान् की सेवा में उत्सर्ग कर दिया गया और उस परम सत्ता के प्रति एकनिष्ट समर्पण कर दिया गया, तो आत्मा उस समय, एक दर्पण की स्वच्छ हो जाती है. अतः अब वहां जो कुछ भी द्रष्टिगोचर हो, वोह सकल हो या अंश, सभी कुछ यथा-योग्य देखें. वास्तविकता जब है, तो उसकी कृत्रिमता भी है; अस्तित्व जब है तो उसके गुण भी हैं. अच्छा-बुरा, प्रकाश-अन्धकार; आशय यह है की जो कुछ भी जगत है वोह सब उसी परात्परा-शक्ति की चेष्टा के परिणाम-स्वरूप है और सबके आविर्भूत और प्राकट्य का कुछ न कुछ कारण अवश्य है. वैज्ञानिक द्रष्टिकोण यह है की प्रत्येक के होने का भेद स्पष्ट हो जाय और यथा-स्थान उनका उचित प्रयोग करें. निराकार यदि है तो साकार भी है. निराकार में आस्था रखने वाले साकार से भाग कर कहीं जा नहीं सकते; कहीं न कहीं वे साकार का उदघाटन भी करते हैं, क्यों कि यह उनकी विवशता है. यह बात अलग है कि अपनी हठ-धर्मता के कारण इस सच को स्वीकार न करें. अतः आप्तजनों का यह वचन कि 'सत' कभी-कभी मानव आकृतियों में भी प्रकट होता है, मिथ्या नहीं है. अतः उस स्वच्छंद सत्ता के एक विशेष विभूति के रूप में दर्शन करना चाहिए.
इस विषय पर कि अभ्यासी की सत्य-सत्ता, को उस अतीन्द्रिय-संवेदी परात्पराशक्ति का स्पर्श-सुख और सतत उपस्थिति, निरंतर और अबाध रूप से अनुभव करती है, अथवा नहीं - तत्व-विदों का आपस में मतभेद है. एक सम्प्रदाय का दावा है कि यह सतत साक्षात उपस्थिति उस के लिए निरंतर और अबाध रूप से उपलब्ध है तो दूसरा इसका खंडन करता है. एक ब्रह्म-ज्ञानी का संकेत है कि उपस्थिति का साक्षात्कार आवृत ज्योति के सद्रश है. कुछेक आप्त-जनों का वर्चस्व है कि ज्ञानी और द्रष्टि-मार्गियों को निरंतर दर्शन होता रहता है जब कि अन्य का अपना अनुभव है कि ऐसा सदैव नहीं होता. इसी सन्दर्भ में एक तत्वग्य ब्रह्मज्ञानी महोदय का वक्तव्य है कि ज्योति की उपस्थिति आवरण के मध्य में केन्द्रित है.
साक्षात दर्शन अर्थात 'आँखों देखी गवाही' एवं विश्वास का होना, 'ज्योति' के अस्तित्व को तो अवश्य सिद्ध करती है, किन्तु यह ज्योति, मात्र क्षितिज सद्रश है; वास्तविकता नहीं है, क्यों कि सत्य-सत्ता रस, रूप, रंग, गंध और स्पर्श से परे है - योग-शास्त्र में उसे अतीन्द्रिय-संवेदी कहा गया है; और ज्योति, सूक्ष्म माया है. साक्ष्य और द्रष्टि में कुछ अंश ज्योति का है और कुछ अंश स्वाभाविकता का. अध्यात्म-ज्योति दो प्रकार की है; एक निजी आत्मिक और दूसरी स्वाभाविक, जिसमें स्थायित्व नहीं है.
आत्मज्योति सत का अलख और अगम स्वरूप है, जो देखनें समझनें और थाह लेने में नहीं आ सकता है. उसका कोई आकार नहीं है. माया में यह विशेषताएं नहीं हैं. वोह अपना प्रथक अस्तित्व रखती है, और स्वाभाविक ज्योति गुणों के सहित द्रष्टि में आती है, चाहे वोह अंतर्मुखी आँखों में आवे या बाहरी जगत में. संभवतः, भ्रम यह है कि जिस एक सम्प्रदाय का यह एक मत है कि ज्ञानी के लिए साक्षात्कार सदा-सर्वदा नहीं है, ज्ञानी वही है जिसको आत्म-ज्योति प्राप्त है, जहां नाम और रूप दोनों नहीं हैं, तब उसके लिए स्वाभाविक ज्योति अर्थात गुणों सहित प्रकाश कोई अर्थ नहीं रखता और उसके मिस ऐसी ज्योति ओझल हो जाती है अथवा अभ्यासी ऐसी ज्योति की परिधि से आगे चला जाता है. उसके लिए सचमुच साक्षात्कार नहीं है. किन्तु (अपने निजी अनुभव के आधार पर) मेरा निवेदन है कि साक्षात्कार आवश्यक है; और आत्मिक ज्योति से साक्षात्कार अर्थात 'सत' और 'यथार्थ' का है, जो चिर स्थायी है. स्वाभाविक ज्योति का साक्षात्कार उसके लिए समाप्त हो गया. ऐसा दर्शक (अभ्यासी) जो अभी स्वाभाविक ज्योति और माया की परिधि और सीमा से आगे नहीं गया है (उसके लिए) आत्मिक और स्वाभाविक दोनों ही साक्षात्कार महत्वपूर्ण हैं. प्रथम तो वोह जिसको देख रहा है और द्वितीय वोह जो आगे चल कर आएगा. सारांश यह है कि आत्मिक ज्योति के अस्तित्व को कृत भी कह सकते हैं और अकृत भी. जो है भी और नहीं भी है. स्थिति यह है कि जब मन और बुद्धि दोनों केंद्र सम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात जब चैत्य पुरुष अपनी निजी समचित्तता या अति भौतिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है, प्राणिक इच्छाओं की सत्ता में चतुर्दिक मार्जन हो जाता है और जब उपांशु अपनी स्वाभाविक अवस्था में क्रीड़ारत होता है. तब अपने ह्रदय के भीतर उस परमपुरुष की अलौकिक रूप-आभा, जिसकी ज्योति से अनंत ब्रह्मांड जग-मग हो रहे हैं, उस वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार होता है; "ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत" की यही अनुभूति है. इसके परिणाम-स्वरुप जो प्राप्ति होती है वोह जाती नहीं; हाँ यह अवश्य है - ज्योति कभी द्रष्टिगोचर होती है और कभी उसकी अनुभूति नहीं होती, कभी तो उसका प्रवाह बहुत तीव्र होता है और कभी सौम्य और सहज.
चैत्य पुरुष जब भगवान् के साथ आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ अभीप्सा के परिणाम-स्वरुप जिस ज्योति के वोह साक्षात्कार करता है तो उसकी निम्नलिखित अवस्थाएं होतीं हैं-
-बहिर्मुखी चेतना का अपने अस्तित्व में लोप हो जाता है. वोह निडर, निष्प्रभावी और उदासीन सा दिखता है;
-निजी अस्तित्व की चेतना और इस स्थूल काया का आभास लोपप्राय हो जाता है;
-चित्त की एकाग्रता एक ओर लग कर रह जाती है व शेष सभी उद्वेग शांत हो जाते हैं;
-लय की वोह अवस्था जिसमें अभ्यासी अपनी भिन्न-सत्ता की प्रतीति से परे हो जाता है.
यह सभी स्थितियां ऐसीं हैं जिनका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता. इन स्थितियों में सत्य की सत्ता के अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं होता.
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