रविवार, 13 फ़रवरी 2011

प्रकाशकीय

परमपिता परमात्मा, श्री श्री गुरुदेव, श्रीमन महात्मा रामचन्द्रजी (श्री श्री लालाजी) महाराज का एक उत्क्रष्ठ लेख, जिसका ज्यों का त्यों प्रकाशन 'कमाले इंसानी' शीर्षक से दो बार उनके पौत्र महत्मा अखिलेश कुमार जी द्वारा किया जा चुका है -प्रथम तो वर्ष १९६० (ईसवी) में एवं, दूसरी बार उसी का द्वितीय संसकरण उनके जन्म शताब्दी वर्ष-१९७३(ईसवी) में. इस प्रकार इसकी दो हज़ार प्रतियाँ पाठकों के बीच पह्नुच चुकीं हैं।

अब इस बार, उसी को मूल सामिग्री एवं स्रोत मान कर, यह हिंदी रूपान्तर, उसी के शोध-संस्करण के रूप में 'उत्तर पथ' शीर्षक से सुधी पाठकों के बीच पहुँच रहा है।

श्रीयुत संत, पूज्यपाद लालाजी महाराज के समय में भौतिक साधनों का अभाव था, किन्तु अपने भक्तों के प्रति उनकी चिंता उतावलेपन की सीमा तक थी। सामूहिक-सत्संग के अवसरों पर जो भी 'बात-चीत' होती, उनके "बयान" होते, उन्हें वे लिख कर पढ़ा करते थे। बाद में इन्ह्नी लेखों की प्रतियां, भाई-बहिनों में, वितरित की जातीं थीं। 'कमाले इंसानी' शीर्षक से प्रकाशित लेख भी इसी श्रंखला का एक क्रम रहा है।

फतेहगढ़ (उत्तर प्रदेश) स्थित, हिंदी-सूफी पीठ के अधुना प्रभारी, श्री दिनेश कुमार जी, जो क़ि श्रीयुत संत श्री श्री लालाजी महाराज के पौत्र हैं। उन्हों ने इस प्रकाशन की स्वीकृति मात्र ही प्रदान नहीं की वरन यह पूरा शोध-प्रबंध उन्हीं की देख-रेख एवं निर्देशन में हुआ है। अतः इस पुस्तक में दी गयी सामिग्री सम्बंधित कोई भी आपत्ति, जिज्ञासा अथवा शंका के समाधान के लिए प्रकाशन संस्था को न लिख कर सीधे उन्हीं से संपर्क किया जाए। इ-मेल <laalaajinilayam@gmail.com>

यद्यपि की नक्श्बंदिया-तरीकत में, "किसी बात का दावा न करना", "किसी बात का वादा न करना" इत्यादि की मनाही है। फिर भी इस सिलसिले की "सार-रूप अभिव्यक्ति स्वरुप" यह विवेचना की जाती रही है। "मालिक की सतत उपस्थिति" (constant presence of Master) ही यहाँ की साधना का मूल है। अभिप्राय यह है की इस कृति के पाठ के मध्य, मालिक कृपा करें, और यदि कहीं उनकी सतत-उपस्थिति की अनुभूति पाठकों को हो जाए तो इस प्रकाशन का लक्ष्य भी पूरा हो। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें