लक्ष्य प्राप्ति का प्रमुख मार्ग - सदाचरण
किसी भी प्रकार की चमत्कार प्राप्ति की इच्छा से विरत रहना चाहिए और जैसा अभ्यास बताया गया है, उसके बारे में चिंता करनी चाहिए.
सूफी संतों के अनुसार चित्त की एकाग्रता का होना एक आवश्यक अर्ह्यता है. जब तक ह्रदय स्वच्छ न हो उस समय तक कार्य संपन्न नहीं होता. ह्रदय का डावांडोल रहना एक ऐसी बाधा है जो काम बनने नहीं देती. यदि ह्रदय के दर्पण को ठहराव न हो तो मुखाकृति क्यों कर स्पष्ट हो सके. सबसे बड़ा दुःख द्वान्दावस्था है. तात्पर्य यह है कि दो अलग - अलग स्थितियों से अन्तःकरन में व्याकुलता रहना. यही स्थिति, दुःख का सबसे बड़ा कारण है. भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति ही पाप का कारण है और यही दुई है जो ऐक्य भावना के सर्वथा विपरीत है. अद्वैत-वाद क्या है, और द्वैत क्या है?
आँखों में, ह्रदय में, प्राण में, रोम-रोम में बस प्रीतम की ही छवि, प्रीतम की ही धुन छाई रहती है. उस समय संसार बस अपने साजन "हरि" की ही परछाईं के रूप में हेई रह जाता है, संसार का संसारत्व मिट जाता है, अपनें राम के नाते सभी कुछ सुहावना प्रतीत होने लगता है. सती के सामान प्रभु में अचल प्रेम हो जाता है और सब कुछ "सिया-राम मय" हो जाता है. संसार को मारने, जगत को मिटाने का सबसे यही सुन्दर साधन है कि सब कुछ भगवान् में समर्पित कर दिया जाय, सब का महत्व हरि से जोड़ दिया जाय. उस समय संसार नहीं रहता, केवल हरि रह जाते हैं.
यह न द्वैत है न अद्वैत. पत्नी के लिए पति, द्वैत और अद्वैत से परे का आनंद ले क़र आता है. उसमें द्वैत का आनंद और अद्वैत की विरति, धूप-छाँव की भांति घुली-मिली रहती है. पत्नी का कोई निजी व्यक्तित्व नहीं होता; वोह पति की अर्धांगिनी बन जाती है, उसी में विलय हो जाती है. इस अर्थ में तो वोह अद्वैत है. परन्तु पत्नी का धर्म, पति को सुख पहुंचाना, उसके सुख-सम्भोग को पूरा करना भी तो है, इस अर्थ में वोह द्वैत है. इसे द्वैत की अद्वैतता और अद्वैत के द्वैतता कह सकते हैं.
उस सनातन दिव्य सत्ता के स्पर्श में आ जाना, उसे सर्वत्र और सर्वदा अनुभव करना ही मानव-जीवन का चरम उद्वेश्य है. यही अनात्म का आत्म में प्रवेश करना है और इसे कहते हैं आत्म-साक्षात्कार. उपनिषदों ने 'आत्मानं विद्धि' अर्थात 'अपने को जानो' को ही "डंके की चोट" कहा है. हमारे ऋषि-मुनियों ने भी बार बार इसे ही दोहराया है. भगवान् से यदि परिचय नहीं हुआ तो यह जन्म व्यर्थ गया. सांस-सांस में "सांईं" का स्मरण न हुआ तो संसार में आना व्यर्थ हुआ. यही ऋषि-मुनि, संत-महात्माओं ने बार-बार सुझाया है. भगवान् के अतिरिक्त, सार वस्तु कोई है ही नहीं. हरि से ह्रदय का ग्रंथि-बंधन न हुआ तो जीवन से क्या लाभ? संतों ने अपने भीतर भगवान् की झांकी पायी और समस्त चराचर में उसी एक परमात्म सत्ता का साक्षात्कार किया. इस अमृत मंथन से जो कुछ उन्हें मिला वे प्रसाद रूप में छोड़ गए.इन्ही के क्रमवद्ध संकलन को दर्शन-शास्त्र कहते हैं.
शास्त्रीय पुस्तकों में जिस चक्र को जिस विधि और युक्ति से बेधनें के लिए अभिहित किया गया है उसी के अनुसार अभ्यास करें और उसके अतिरिक्त किसी दूसरी ओर ध्यान न जाय. अपने आचरण में ऐसी आस्था और लगन होनी चाहिए की अभीष्ट की प्राप्ति के बिना चैन न मिले.
[इसी बात को पुनः इस प्रकार समझ लें कि] साधक को चाहिए कि यदि वोह किसी अभ्यास को कर रहा है तो सर्वप्रथम उसे चाहिए कि वोह उस साधना की प्रक्रिया और प्रयोग का विधान, पुस्तकों में देखे और जिस अभ्यास में वोह क्रियारत है उससे उसका मिलान करके देखे कि वोह उन सिद्धांतों के अनुकूल है या नहीं. यदि वोह शास्त्रानुसार सही मार्ग पर अग्रसर है तो अपनी एकाग्रचित्तता को पूर्ण निष्ठा और आस्था के साथ इसी अभ्यास को अंगीकार कर ले और गंतव्य से पूर्व विश्राम न ले.
किन्तु यह अनुरक्ति भी सुगम नहीं है. इसको प्राप्त करने में प्रायः मृत्यु से साक्षात्कार जैसी मनोस्थिति हो जाती है. अतः किसी भी प्रकार की दुविधा में न पड़ जाँय और साधन सिद्धि में किसी प्रकार की आशंका न करें. क्यों कि अधिकतर ऐसे व्यक्ति देखनें में आये हैं कि जिस साधन पर वे अधिकार करने जा रहे हैं, उस के अभ्यास में जब उपयुक्त प्रकार की भयावह अनुभूति उन्हें होती है तो वे दुविधा में पड़ जाते हैं कि अब आगे इसे करें या न करें और पुनः अभ्यास को करने तथा दूसरे अन्य कामों पर उसको वरीयता देते हुए घबराते हैं.
मंतव्य यह है कि इस दिव्यानुभूति और अवस्था की प्राप्ति में ही व्यक्ति की गरिमा है. अतः मेरा पुनः साग्रह निवेदन है कि अभ्यासी अपनी पूर्ण आस्था से अपने आप को इस ओर प्रेरित करे कि वोह अपने अन्य दायित्वों व कर्तव्यों या दूसरी चिंताओं से मुक्त हो, एकेश्वर-वाद के सूत्र की ओर उन्मुख हो और निर्दिष्ट जाप, ध्यान व प्रेम के अभ्यास में तत्पर रहे. कुछ दिन भजन, पूजन, पाठ, अनुष्ठान के कर्मकांड आदि में संलग्न रह कर सुफल लाभ करें; साधन मार्ग के विघ्नों से सावधानी-पूर्वक बचें और रात-दिन अपने आप को लय अवस्था में लाने का प्रयत्न करें, तब आशा है कि उस आदि-शक्ति का उन्मेष उस व्यक्ति को अपने अहम् से मुक्त करा कर सामीप्यता और सारूप्यता की सीमा तक पहुंचा दे. उस स्थिति में वोह केवल उस ईश्वर को और उसके गुणों को देखेगा. उसे सब ओर उसी का प्रभाव दिखाई देगा और सम्पूर्ण कृतित्व उसी का प्रतीत होगा.
जिस क्षण हमारा यह अनुभव तीव्र और व्यापक हो जाता है; हम अपनी आत्मा के सत्य-स्वरूप में पहुंचते हैं और वहां स्थित हो कर सृष्टि पर दृष्टि डालते हैं तो सनातन रास-रस की कुछ झलक मिलती है. इसी को आत्म-रमण या आत्म-रति कहते हैं. आत्मा का आत्मा से रमण, प्राणेश्वर कृष्ण का राधा रूपिणी आत्मा में रमण यही है. यही भूमा का आनंद है, यही "रसो वै सः" है. यही एकमात्र रस है. यही चन्दन और पानी का संयोग है, जिसकी सुगंधि, जिसकी बास अंग-अंग में विश्व के कण-कण में समाई हुयी है. यही दीपक और बाती का संयोग है जिसका तेज, जिसका प्रकाश, जिसकी ज्योति चराचर को दिन-रात जगमग किये हुए है.
यह आनंद, यह सुगंधि, यह ज्योति हम सभी के हृदयों में छिपी हुयी है. मिलन तो सर्वत्र हो रहा है - "सब घट हौं बिहरौं". इसी प्रकार; "सब घट मेरा सांयियाँ, सूनी सेज न कोय". आत्मा की कोई भी सेज सूनी नहीं है. 'वोह' सब में बिहर रहा है, रमण कर रहा है. सर्वत्र रास छिड़ा हुआ हुआ है.
ह्रदय चक्र विवरण
जो महापुरुष प्रतिष्ठा-सम्पन्न हैं, अर्थात जिन्हें साक्षात्कार हो कर उस स्थिति की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे व्यक्ति जो अवतारों के उत्तराधिकारी और पीठासीन अधिष्ठाता (अहले तम्कीन और कायम मुकाम) कहलाने योग्य हैं; यदि कोई व्यक्ति इन आप्त पुरुषों की राह पर चलना चाहे तो वस्तुतः बिना चक्र-विद्या, अर्थात 'कमलों' का ज्ञान प्राप्त किये उनका मार्ग सुलभ हो पाना संभव नहीं है. सीधा मार्ग वोह है, जिसमें न कोई कष्ट है और न कोई भटकाव. यह बिना चक्रों और 'कमलों' के ज्ञान के असम्भव और सारहीन भी है. तात्पर्य यह है कि चक्रविद्या अर्थात "मंजिलों" और आकाशों का ज्ञान परमात्मा की बड़ी देन है जो ईश्वर ने सूफी संतों को दी है.
इस स्थूल और पिंड-शरीर के हृदयाकाश में पांच केंद्र स्थापित किये गए हैं जो इस शरीर के श्रेष्ठ-लोक अर्थात 'अंड' के पांच केंद्र निर्दिष्ट किये गए हैं; ये केंद्र इस प्रकार हैं -
०१- ह्रदय चक्र
०२- आत्मा चक्र
०३- शेष चक्र
०४- गुप्त चक्र
०५- प्रकट चक्र
हज़रत ख्वाजा शाह बहाउद्दीन साहब नक्शबंद (ईश्वर की उन पर कृपा हो) से पूर्वगामी संत और महात्मा, गुदा-चक्र को ले कर अभ्यास प्रारम्भ किया-कराया करते थे. किन्तु आपने आदेश दिया कि आगे से, निम्न व मर्त्य-लोक के स्थूल चक्रों पर अभ्यास कराना छोड़ दिया जाय. ह्रदय चक्र के दिव्य आकाश के चक्रों को जागृत किया जाय और उसका क्रम इस प्रकार निश्चित किया कि ह्रदय चक्र से प्रारम्भ करके क्रम-बार, एक के पश्चात दुसरे, उन सब पर शक्तिपात किया जाय और जब इसकी इति हो जाय तब प्राणबिंदु के स्थान पर जिसको प्राण-वायु भी कहते हैं, प्रारम्भ किया जाय.
पुराने नक्शबंदी संत जिनका कि हज़रत शेख अहमद मुजद्दिद अल्फ्सानी (ईश्वर की उन पर कृपा हो) से संपर्क नहीं है, ऐसा ही कहते रहे हैं. शाह बहाउद्दीन नक्शबंद (ईश्वर की दयालुता उन पर हो) की वाणी है -
"अव्वले माँ आखिरे हर मुतहिस्त;
आखिरे माँ जेबे तमन्ना तिहीस्त"
(दुसरे आप्त पुरुषों व संतों के मार्ग में ब्रह्म-विद्या की शिक्षा का जो चरम बिंदु है, हम वहां से प्रारम्भ करते हैं, और हम जहां इति करते हैं, वहां की स्थिति यह है कि हमारी जेबें (pockets) और संचिकायें, सभी प्रकार की वासनाओं, आकाक्षाओं और इच्छाओं से शून्य होती हैं, वहां कुछ भी नहीं होता).
इस श्रंखला में आप के बाद जो संत हुए वे कुछ न कुछ संशोधन और सरलीकरण करते आये और जिस परिपक्वता का ज्ञान उन्हें चक्र-विद्या से होता गया, वे उसी प्रकार निर्बाधता, आसानी व कम-से-कम समय लगने के विचार से निर्दोष संशोधनों के द्वारा निर्बाधता तथा सरलता को अपनाते गए.
इन्ही सुधारवादी संतों के क्रम में हुए एक महान संत, जिनका नाम भी इस सिलसिले के नाम के साथ जुड़ कर इसका नाम - 'नाक्श्बंदिया-मुजद्ददिया' हो गया. आप का शुभ नाम नाम था हज़रत शेख अहमद मुजद्दिद अल्फ्सानी सरहिन्दी (ईश्वर की उन पर दया हो). सबसे बड़ा और महत्व-पूर्ण संशोधन आपने अभ्यास की विधा में आविष्कार किया जो कि आगे चल कर उपयोगी सिद्ध हुआ.
आपने ह्रदय चक्र (क्षेत्र) के आकाश, अर्थात दिव्य सत्ता के मात्र एक चक्र, ह्रदय को ही पर्याप्त समझा व जिसके 'विचार' पर आत्म-शक्ति का दक्ष आवेग प्रवाहित करने का अनुदेश इंगित किया. अन्य चक्र इसकी परिधि में आ गए. इसके बाद तुरंत ही प्राण-वायु और प्राण-बिंदु को ले कर वहां पर प्रथम चरण स्थापित करना व तत्पश्चात दुसरे चरण का उरूज़ सह्स्त्रदल्कमल व त्रिकुटी के स्थान पर निर्दिष्ट किया.
हृदयाकाश के निम्नलिखित पांच स्थान महत्वपूर्ण हैं -
(०१)
ह्रदय चक्र - बाईं ओर बक्षोज के नीचे की ओर जहां हृदय की धड़कन का आभास होता है.
(०२)
आत्मा चक्र - दाहिनी ओर बक्षोज के नीचे.
(०३)
शेष चक्र - हृदय चक्र के थोड़ा ऊपर की ओर.
(०४)
गुप्त चक्र - आत्मा चक्र के ऊपर की ओर.
(०५)
प्रकट चक्र - गुप्त चक्र और शेष चक्र के ऊपर की ओर, मध्य में. हिचकी भर आने पर जिस स्थान पर उसका आभास होता है.
बाईं ओर हृदय की धड़कन का आभास होता है; इस कारण से यहाँ पर धड़कन और (उसकी) ध्वनि अधिक प्रतीत होती है. दाहिनी ओर यह अधिक स्पष्ट नहीं प्रतीत होती, अन्यथा आभास सा होता है की धड़कन है किन्तु ऐसी अशक्त कि कठिनाई से पता चल पाता है और किन्ही अभ्यासियों को इसका पता नहीं भी चलता है. शेष चक्र की स्थिति का कभी आभास होता है और कभी नहीं भी हो पाता.
यह हृदयाकाश ही प्रमुख साधना का स्थान है, जहां आत्मा (परमात्मा) का निवास है. इस आकाश को इसी लिए साधना का केंद्र मानते हैं.
सुरति
मुंडकोपनिषद में एक प्रसंग आया है कि महर्षि शौनक, विधि-पूर्वक श्रंग्विराऋषि की शरण में गए और वहां जा कर उन्होंने प्रश्न किया - "भगवन! किसको जान लेने पर सब-कुछ जाना हुआ हो जाता है?" इस पर श्रंग्विरा ऋषि ने निर्दिष्ट किया - "जानने योग्य विद्याएँ दो हैं - एक 'अपरा' और दूसरी 'परा'. इनमें से 'अपरा' विद्या तो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष हैं और परा वोह है जिससे उस अक्षर ब्रह्म को जाना जाता है." यह कह कर उस अक्षर-ब्रह्म को समझाने के लिए श्रंग्विराऋषि ने उस गुण और धर्मों का वर्णन करते हुए कहा - "जो इन्द्रियों द्वारा अगोचर है, पकड़ने में आने वाला नहीं है, जिसका कोई गोत्र नहीं है, वर्ण नहीं है, जो आँख-कान तथा हाथ-पैर से रहित है, नित्य व्यापक, सर्वत्र परिपूर्ण, अत्यंत सूक्ष्म और सर्वथा अविनाशी है. उसको धीर पुरुष देखते हैं, वोह समस्त भूतों का परम कारण है".
यदि कोई यह जिज्ञासा करे की ब्रह्म जो स्वम बिना किसी आधार के चेष्टारत है, जो मन बुद्धि की सीमा से परे है, उसका ज्ञान क्यों कर होने लगा. क्यों कि जो तथ्य बुद्धि व्यापार के आयामों के अंतर्गत, और बोधगम्य है वोह पृकृति है, स्रष्टि है और छाया की भाँति हमेशा स्थिर नहीं रहता. जिसका आधार मन बुद्धि और इन्द्रियाँ हैं, वोह संसार है, माया है जिसका अस्तित्व निरंतर स्थिर नहीं रहता. शाश्वतता का गुण तो सत्पुरुष का है जिसको मन, बुद्धि व इन्द्रियों के माध्यम से जाना नहीं जा सकता है; अस्तु वोह निर्माण की सीमा से परे है.
जिज्ञासा महत्वहीन नहीं है. प्रश्न स्वाभाविक सीधासादा और तर्कपूर्ण है. किन्तु उपनिषद की उपर्युक्त वाणी में एक भेद है. करता प्रसंग में "धीर पुरुष" की बात कही गयी है, यह वोह प्रज्ञा-पुत्र है जिसनें अपनी निजी सत्ता की प्रतीति से परे की स्थिति प्राप्त कर ली है, वोह जो शुद्ध बुद्धि का स्वामी है. शुद्ध बुद्धि का लक्षण यह है कि उसमें परमात्मा का आश्रय, भगवान् का भरोसा अक्षुण्य रूप से बना रहता है. शुद्ध बुद्धि जगत को न देख कर जगत के स्वामी को देखती है. उसे प्रपंच का आवरण ढक नहीं सकता, माया की मोहिनी उसे मुग्ध नहीं कर सकती, क्यों कि उसे परमात्मा का प्रकाश, मायापति का बल प्राप्त है. प्रपंच को बेध कर, ससीम को चीर कर शुद्ध बुद्धि की विशुभ्र किरणें अविच्छिन्न रूप से परमात्म पद में प्रवाहित होती रहतीं हैं. शुद्ध बुद्धि, हरि के सिवा किसी का वरण ही नहीं करती, किसी की ओर देखती ही नहीं, कुछ स्वीकार ही नहीं करती. शुद्ध बुद्धि का यह स्वाभाविक स्वरूप है.
बुद्धि की यह स्वाभाविकता तभी तक अक्षुण्य रहती है जब तक साधक सतत, सतर्क एवं सावधान हो कर, अहर्निश भीतर से जागरूक हो कर, प्रभु के स्मरण, चिंतन, ध्यान का सहारा ले कर सदा सदैव अपने उद्वेश का ध्यान रखता है और उस की प्राप्ति के लिए निरंतर तत्पर रहता है.
इसमें भेद और रहस्य है तो मात्र इतना कि इस स्थिति में बोधगम्यता का अभाव है न कि अभाव की बोधगम्यता.(इद्राक का अदम है न कि अदम का इद्राक).
सत्पुरुष की स्थिति में अक्षुण्यता और शाश्वतता दोनों हैं जिसे जिज्ञासु, अभ्यास के माध्यम से प्रात कर लेता है. अभ्यास के रहस्य को समझनें के लिए यह जान लेना अनिवार्य है कि दो तत्वों के मिलाप और सम्पर्क के लिए, एक तीसरे अभिकर्ता की आवश्यकता होती है. जिसको मनोयोग और सुरत या 'सुरति' कहते हैं.
सूफी संतमत की साधना-पद्यति में जिज्ञासुओं को इस "सुरति" शब्द को गहराई से समझ लेना चाहिए. व्याकरण के अनुसार 'रति' में 'सु' प्रत्यय लगा देने से (सु+रति) 'सुरति' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है, भोग-विलास, काम-केलि, सम्भोग, अनुराग, स्नेह.
अर्थ की इसी व्यापकता के तहत, कबीर-साधना के तात्विक स्वरूप का दर्शन निहित है -
"पियु परिचय तब जानिये, पियु से हिलमिल होय.
पियु की लाली मुख परै, परगट दीसै सोय."
"सब घट मेरा सांइया, सूनी सेज न कोय.
बलिहारी वा घट्ट की, जा घट परगट होय"
"नयनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय.
पलकों की चिक डारि के, पियु को लिया रिझाय"
"नयनों अंतर आंव नू, नयन झाँपि तेहि लेवि.
ना मैं देखौं और को, ना तोहि देखन देंव".
"ज्यों तिरिया पीहर बसै, सुरति रहै पिय माहिँ.
ऐसे जा जग में रहै, हरि को भूलत नाहिँ."
'सुरति', मूलतः 'स्मृति' का अपभ्रंश रूप है. नाथ सम्प्रदाय में शब्दोंन्मुख चित्त को "सुचित" कहा गया है. सुरति के साथ यह अर्थ भी जुड़ गया है. इस प्रकार 'कबीर' में 'शब्दोंन्मुख' चित्त को भी 'सुरति' कहा गया है. लगभग सभी संतों ने 'सुरति' को जीवात्मा का प्रतीक मान लिया है और उसको जीवात्मा रूपी दुल्हन के रूप में भी देखा है. इसी से "सुरति-कमल" की कल्पना "सहस्त्रार-कमल" से भी ऊपर की गयी है. 'शब्द' सुरति-योग का अंतिम प्राप्तव्य है.
हमारे शरीर के अन्दर कोई वस्तु है जो इसके सम्पूर्ण अंग, नस नाड़ियों को शक्ति देती है और हमको जीवित रखती है. हम केवल उसके कारण जीवित हैं और जीवित रह कर काम-काज करते हैं. यह वस्तु हमारी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बनावट की मूल बन कर सब में धार के रूप में फ़ैली हुयी है और रक्त मांस आदि को गति दे रही है. इसी का नाम 'सुरति' है.
इसी मनोयोग और सुरति के उतार-चढ़ाव के माध्यम से जीव और ब्रह्म अथवा माया और ब्रह्म का सम्बन्ध होता है. यहाँ साधक जिस क्षण लय अवस्था, अर्थात उसकी निजी सत्ता भी उस अपार आनंद राशि में लय हो जाती है, उस समय जो चेतना उसे, उस परमात्म-सत्ता की ओर उन्मुख और प्रेरित करती है, वही तीसरा अभिकर्ता जिसकी क्रिया और गति दोहरी होती है. इसी को पुनः समझने के लिए और सरल रूप में रख सकते हैं.
# अभिकर्ता, जो संकल्प शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके संपर्क स्थापित कराने की क्रिया करता है, उसे चैत्य-
पुरुष कहते हैं.
# जो इस दिव्य-सम्बन्ध की स्थापना के संकल्प का करता है, वोह अभ्यासी या साधक है.
# जो समग्र श्रद्धा और दिव्य सम्बन्ध की स्थापना का केंद्र है, वोह समस्त चराचर का स्वामी, ईश्वर और
परमात्मा है.
लय अवस्था की स्थिति में यही सुरत (सुरति) और संकल्प शक्ति की ऊर्जा, अपने चारो-ओर व्याप्त भगवान् से सम्बन्ध स्थापित कराती है. यह ह्रदय के अन्तःपुर की लीला है. यही एकांत आनंद है, यही एकांत मिलन है, यही हमारा हरि के साथ अपना अनोखा "रास" (रहस्य) है. अपने भीतर समा कर उस छवि को निरखते हुए, प्रभु के पद संचारण की मधुर प्रक्रिया के अनुसार ही, उसकी प्रतिध्वनि के रूप में, तब हमारे प्राण-प्राण "रुन-झुन, रुन-झुन की झंकार" में अपनी गति को मिला कर, उसके आलिंगन में बंध कर, नृत्य-सम्मोहन में तल्लीन हो जाते हैं.
अहर्निश का यह मधुर मिलन हृदय के रेशे-रेशे में ओत-प्रोत होता है. बाहर-भीतर केवल प्रीतम ही रह जाता है. आँखें मूँद कर भीतर के संसार में, आँखे खोल कर बाहर की दुनिया में जहां भी द्रष्टि जाती है, केवल हरि ही हरि रह जाते हैं. स्वम भक्त की निजी सत्ता भी उस अपार आनंद-राशि में लय हो जाती है. उसे अपनी भिन्न सत्ता का कभी बोध ही नहीं होता.
स्मरण और समर्पण
निश्चेतन विश्व में अंतरात्मा एक ज्योतिर्मय बिंदु है. श्रद्धा अंतरात्मा की गति है.
सद्गुगुरु के चरणों की नख-द्युति हमारे कोटि-कोटि जन्मों की संस्कारगत वासना को नष्ट करके हमें सच्चे अध्यात्म-पथ में प्रेरित और अग्रसारित कर देती है. गुरु-चरणों का आश्रय लेना ही सर्वोच्च साधन है. शिष्य में अध्यात्मिक लगन और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए. इसी उच्चतर चेतना को उतारने के मिस, शिष्य सदगुरु की महत्तर ज्योति में, सर्वांगपूर्ण आत्मसमर्पण और उस सत्ता के प्रति एकान्तिक अत्मोदघातन करता है, सत्संग करता है जो धर्म की भावनाओं व संवेदनों के सर्वथा अनुरूप है. श्री गुरु में निहित उस चिन्मय सत्ता का लाभ, शिष्य को चाहे आमने-सामने प्राप्त हो अथवा किसी अन्य आत्मिक माध्यम से हो, इसी चैत्य सत्ता के कारण ही मिलता है. श्री गुरु की चैतन्यमयी शक्ति और संकल्पशक्ति के प्रताप से ही शिष्य की संसार की समग्र व्याधियां मिट जातीं हैं और हृदय में अथाह प्रेम उपजता है.
साधना का यह मार्ग सबसे सुगम एवं दोषरहित है, सहज और शीघ्र लाभकारी है. किन्तु प्रायः ऐसे तामसिक एवं निष्क्रिय व्यक्ति भी मिल सकते हैं जो गुरु की सत्ता में विश्वास नहीं रखते और बिना सहारे ही उस दिव्य सत्ता की स्थिति को प्राप्त कर लेना चाहते हैं. सूफी साधुओं का यह दृढ़ विश्वास है कि जिस व्यक्ति का कोई इष्ट या गुरु नहीं, उसका गुरु, शैतान होता है. अतः प्रत्येक जिज्ञासु को चाहिए कि समर्थ सदगुरु को ढूंढें. किन्तु इस खोज में बड़ी कठिनाई होती है. साधारण जिज्ञासु यह निश्चय करनें में अपने आप को सक्षम नहीं पाता कि गुरु, समर्थ सदगुरु है या कोई ढोंगी. वोह उस पुरुष की चैत्य-सत्ता (साहिबे हिम्मत) से परिचित नहीं हो पाता. इस प्रकार अज्ञानता की स्थिति में सक्षम को अक्षम और अक्षम को सक्षम समझ कर दोनों ही स्थितियों में वोह जिज्ञासु अनिष्ट का ही भागीदार बनता है.
महामना समर्थगुरु सरफुद्दीन मनेरी (ईश्वर की उन पर दया हो) का इस विषय पर उपलब्ध एक सन्देश इस प्रकार है - "अंततः ईश्वर की निरंतर यह इच्छा रही है कि कोई भी काल और युग उसकी राह से परिचित आप्त -पुरुषों से न रिक्त रहा है और न भविष्य में रहेगा". अतः सच्चे जिज्ञासुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि जो भी सम-कालीन आप्त-पुरुष इस मार्ग पर अग्रसर हों और संतसदगुरु की प्रतिष्ठा से संपन्न हों, उनके पास निष्ठा-पूर्वक उपस्थित हों और उनकी आज्ञा और सानिध्य प्राप्त साधना में निर्विकार भाव से पर्याप्त काल तक चेष्टा-रत रहें. बीच-बीच में आत्मविश्लेषण भी करता रहे कि भांति भांति के भ्रम और अनेकानेक विचार हृदय को निरंतर ऊहापोह की स्थिति में बनाए रखते थे, वे कुछ कम हुए या नहीं अथवा आंतरिक स्थिति में कुछ परिवर्तन आया या ज्यों के त्यों अपनी पूर्व-वत स्थिति में ही हैं.
साधना का प्रधान धर्म है, ईश्वरोन्मुख होना. समग्र कर्म, सभी व्यापार, समस्त जीवन का प्रतिपल, हृदय का रेशा रेशा, शरीर का रोम रोम अपने इष्ट को अर्पण होना चाहिए.
श्रीगुरु तो स्वम भगवान् का स्वरूप हैं, उन्हें देखते ह्रदय उनका हो जाता है. जब अपने सत्य-स्वरूप का बोध हुआ तभी पियु को मैं अच्छी लगी. गुरु की दया से आत्मा अपने परम-पुरुष में मिल गयी. उस आनंद का क्या कहना? मुक्ति; मुक्ति तो वहां चेरी बन कर पानी भरती है. कर्मों का बंधन स्वम छिन्न-भिन्न हो जाता है. कर्मों का आश्रय तो अविद्या ही है. जब स्वम अविद्या ही मिट गयी, तो कर्मों का क्या पूछ्नाँ. वहां तो बस प्रेम ही प्रेम है. जब सच्चे प्रीतम को पा लिया तो आवागमन का झगड़ा कैसा.
भावनाओं और संवेदनों में जब इस प्रकार का विश्वास जड़ पकड़नें लगे और ऐसी अनुभूतियाँ बलवती जान पड़ें कि इस हाड़-मांस के पुतले को गुरु ने साधना-मार्ग में लगा कर कृतकृत्य कर दिया है तो ऐसे महापुरुष के प्रति जिनके लीला-विलास से यह परिवर्तन आया है, सारे मिथ्या तत्व का परित्याग करके उनके समक्ष सर्वांगपूर्ण आत्मसमर्पण करके अपने आप को धन्य कर लें.
और यदि, ईश्वर न करे, जिन महापुरुष को हमनें 'गुरु-रूप' में वरण किया है उनके सानिध्य में पर्याप्त काल तक सेवारत रहे, और इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी आंतरिक-स्थिति में लेश-मात्र भी परिवर्तन नहीं आया तो बिना किसी अन्यथा भाव और विचार के यह समझ लेना चाहिए कि हमारा भाग इस द्वार पर नहीं था और नतमस्तक हो, विदा ले कर अपनी खोज के मार्ग प़र अग्रसर, आगे बढ़ जाना चाहिए. अनुशासन की द्रष्टि से यहाँ विशेष अनुपालनीय तथ्य यह है कि इन पूर्व-लिखित महापुरुष के प्रति कोई अवज्ञा या दूषित विचार ले कर उनके द्वार से नहीं आना चाहिए क्यों कि ऐसा करना शालीनता के प्रतिकूल है.
सर्वांगीण आत्मदान (बै'अत)
जिह्वया और वाणी को बिना प्रयोग किये, प्रश्न करना परमार्थ का लक्षण है और बिना जिह्वया खोले उसका समाधान प्रस्तुत कर देना गुरु का विशेषण है. इस प्रक्रिया को द्रढ़ करने के लिए आवश्यक है कि शिष्य अपने अंतःकरण में समग्र संकल्प-शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके गुरु के प्रति आकर्षित होने की विवशता को प्राप्त करे. यह बिना दोनो पक्षों की और से सर्वांगीर्ण आत्मदान (बै'अत) के अम्भव नहीं हो पाता. यह एक अनिवार्य औपचारिकता (रस्म) है. गुरु की सेवा में दोनों ही प्रकार के जिज्ञासु - एक तो वे जो इस उपरोक्त औपचारिकता से संपन्न हैं और दुसरे वे जो साधारण जिज्ञासु उपस्थित होते हैं. इन सभी की आंतरिक भावनाओं का प्रतिबिम्ब गुरु के ह्रदय पर पड़ता है और उसी के अनुसार वे संतवर मुखरित हुआ करते हैं. गुरु की वाणी, शिष्य संस्कार (बै'अत की रस्म) से संपन्न जिज्ञासुओं के लिए आचरण बन कर, वोह उच्चतर चेतना को उतारती चली जाती है, जब कि दुसरे अन्य साधारण जिज्ञासु के लिए वोह मात्र साधारण कथन ही होती है और वे उससे विशेष लाभान्वित नहीं हो पाते.
विचारों का प्रभाव, किसी भी लक्ष्य पर तीन प्रकार से पड़ा करता है - दर्शन, श्रवण और कथन. अध्यात्म क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए सर्वांगीर्ण आत्म दान की रस्म अनिवार्य घोषित करने की व्यवस्था इसी कारण की गयी है कि प्रत्येक अवस्था के दर्शन, श्रवण और कथन के समय सदैव साक्षी की उपस्थिति बनी रहे. साक्षी, तीन हैं - अपना मन, गुरु-लक्ष्य और मालिक का निज-रूप. निज-रूप ही सच्चा साक्षी है. गुरु उसी दृष्टि से उपदेश किया करता है किन्तु जिसका इन तीनों में से एक से भी सम्बन्ध नहीं होता वे उसको नहीं समझाया करते हैं, न उसका विश्वास ही कर पाते हैं क्यों कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से अपनी आंतरिक भावनाओं को कल्पना और भ्रम समझता आया है. निजस्वरूप की साक्षी का उसको न ज्ञान है न विश्वास. अतः उसे किसी ऐसे साक्षी की आवश्यकता होती है जो उसके शून्य और द्रश्य, दोनों के तात्विक स्वरूप को स्पष्ट कर सके. साक्षी ही शिष्य को बनाता है जो साक्षी को स्वीकार करे, वही हुतात्मा (शहीद) है. हुतात्मा वोह है जो ईश्वर की साक्षी, गुरु की साक्षी और अंतरात्मा की साक्षी को स्वीकार करे. यह तीनों ही अभ्यासी के संतोष के लिए आवश्यक हैं.
गुरु शाश्वत सांत्वना का उदगम है. शिष्य को उससे जोड़ने के लिए भावना रूप में एक संस्कार अपेक्षित है जिसे सर्वांगीण आत्मदान कहते हैं; इसमें होता है, समग्र आत्मदान - इस पिंडी-काया, मनोमय सत्ता और प्राणमय सत्ता का. शिष्य को चाहिए कि वोह श्री गुरु की ओर अपने को खोले रक्खे और उसके साथ पूर्ण एकत्व बनाए रक्खे. उनके संस्पर्श के प्रति अपने को सम्पूर्णरूप से नमनशील बनाए ताकि वे उससे शीघ्रता से बढ़ती हुई परिपूर्णता की ओर ले जा सके.
जब कोई सच्चा जिज्ञासु, किसी आप्त पुरुष (बुज़ुर्ग) के पास अभ्यास सीखने के निमित्त उपस्थित हो तो उस महामना को चाहिए की उसको, नित्य-प्रति, तीन दिन तक उपवास रखने का आदेश रखने का आदेश दे, यदि हो सके तो नितांत निराहार रक्खे, अन्यथा फल और दूध ग्रहण अकरने की अनुशंसा की जाती है. यदि इस्लाम धर्म का अनुयायी है तो एक सहस्त्र बार
"ला इलाह इल्लिल्लाह" (कोई नहीं है बड़ा, सिवाय ईश्वर के), मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित मन्त्र का जाप करें, तत्पश्चात
दुरूद शरीफ 'स्तुति और प्रणाम' -
"अल्ला हुम्मा स्वल्ले अला सैय्यदना मोहम्मदिन,
मादनिल-जूदे-वलक़रम व आलही व सल्लम"
के मन्त्र के जाप की संस्तुति करें. तीसरी रात्रि में स्नान करके और उपरुक्त प्रकार पवित्र हो कर के सदगुरु (शेख) की प्रतिष्ठा में उपस्थित हों उस समय उसको आदेश दें की वोह पवित्र-कुरान की प्रथम प्रार्थना(सूरे फातिअहः) -
"अऊजु बिल्लाहि मि नश शैत्वानिर्र रजीम !!
बिस्मिल्लाहिर्र रह मानिर्र रहीम !
अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन !
अर रह मानिर रहीम, मालिकि यौमिद्दीन !
ईयाक अबुदु व ईयाक नस्तयी न !
इह दि नस सिरातल मुस्तकीम !
सिरातल लज़ीन अन अम्त अलैहिम ;
गै रिल मगजूबे अलैहिम व लज्जु आल्लीन !!
आमीन!!"
(अनुवाद - पापात्मा शैतान से बचने के लिए मैं परमात्मा की शरण लेता हूँ. प्रथम स्मरण करता हूँ अल्लाह का जो अत्यंत कृपालु व दयालु है. हर प्रकार की स्तुति भगवान् के ही योग्य है.
वह परमपिता परमात्मा सम्पूर्ण विश्व का पालन-पोषण करने वाला, उद्धारक परम दयालु एवं परम कृपालु है. न्याय के दिन का वही मालिक है.
प्रभो! हम आप की ही आराधना करते हैं और आपकी ही शरण एवं सहायता के प्रार्थी हैं. हे दयानिधे! हमें उस प्रशस्त मार्ग पर ले चलिए जिस पर चल कर साधक आपकी कृपा, दया व प्रसन्नता के अधिकारी बने हैं, उस मार्ग पर नहीं जिस पर चल कर मनुष्य आपकी अप्रसन्नता और आपके दंड के भागी बने हैं अथवा जो भूले, भटके हुए हैं. ऐसा ही हो !!!)
तदोपरांत, 'शपथ लेने का मन्त्र' (oath of allegiance) और तन्मयता का मन्त्र (दोनों गोपनीय रक्खे गए हैं) इत्यादि गुरु द्वारा पढ़ी गयी इबारत को दोराएं (पढ़ें) और उनके श्री चरणों में शिष्य दोजानू बैठे. तब उसकी भावनाओं और संवेदनों से प्रभावित हो कर सदगुरु को चाहिए कि वोह परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता से सुसज्जित व चैतन्यमयी शक्ति के स्रोत से प्रवाहित वाणी में उच्चारण करे - "तूने सर्वांगीण आत्मदान किया मुझ वयोगत (ज़ईफ़) के हाथ पर और मेरे गुरुजनों के हाथ पर 'हज़रत पैगम्बर' (ईश्वर की उन पर दयालुता और पूर्णता हो) और उस देवता के हाथ पर जो सब को पवित्रता और प्रतिष्ठा देने वाला है, तू यह प्रण कर कि शरीर में रक्त की अंतिम बूँद तक सतत और सम्पूर्ण रूप से दिव्य सत्य का वरण और मित्थ्या का परित्याग करेगा". स्वम अपनी ओर से शुद्धतर प्रेम व समग्र श्रृद्धा उस परमेश्वर के प्रति समर्पित करेगा. इस क्रिया में गुरु अपना दाहिना हाथ शिष्य के दाहिने हाथ पर रक्खे रहे. इसके उपरान्त शिष्य को चाहिए कि वोह सम्पूर्ण संकल्प शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके इस प्रकार उच्चारण करे - "मैंने सर्वांगीण आत्मदान किया और स्वीकार किया कि धर्म के सिद्धांत और मार्ग पर निरंतर अग्रसर रहूँगा और अपने चारों ओर व्याप्त भगवान्, व उस भागवत प्रभाव के प्रति और उसके अक्षर प्रेम के प्रति अपना ह्रदय देता हूँ". इसके बाद गुरु अपनी गुदड़ी (खिर्कः) से शिष्य को धन्य करे (उसे पहना दे). तत्पश्चात शिष्य को एकांत में बिठा कर गुरु मन्त्र दे जो उसके संस्कारों और प्रवृत्ति के अनुकूल हो. इसे गुरु-प्रदत्त नाम भी कहते हैं.
गुरुमुख से प्राप्त नाम ही साधक का सर्वस्व है. नाम के रस में साधक सदैव छका रहता है. नाम एक विचित्र चिन्गारी है. आगे आगे यह संसार के सघन बन को जलाती जाती है और पीछे से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की वाटिका हरी-भरी होती जाती है.
यह एक ऐसा रहस्य-वादी आन्दोलन है जहां इश्वर से व्यक्तिगत संपर्क की पद्यति पर आधारित भक्ति, श्रद्धा,प्रार्थना और अध्यात्मिक-जीवन पर बल दिया जाता है. यहाँ सिलसिले को प्रमुख साधन मानते हैं. 'सिलसिले' से आशय है - 'सम्बन्ध', 'कड़ी'; एक गुरु के माध्यम से क्रमवार ऊपर चढ़ते हुए, उनके गुरु, उनके गुरु. पुनः उनके गुरु, इस प्रकार जो परम गुरु या आदिगुरू, स्वम परमेश्वरी सत्ता है, उससे सम्बन्ध स्थापित हो जाता है. अधुना गुरु अपना सम्बन्ध अपने गुरु एवं दादा-गुरुओं से स्थापित करा देता है अपनी शक्ति, क्षमता तथा साधन-सम्पन्नता के लिए अपने सिलसिले के इन आप्त-पुरुषों के प्रति दृष्टि लगाए रहता है. इस प्रकार वोह 'गुरुडम' और 'गद्दीवाद' से उत्पन्न अहंकार से बचा रहता है. जो कुछ उसके माध्यम से दुआ, आरोग्य, या अन्य चमत्कार आदि होते हैं, उसे वोह अपनें गुरु एवं दादा-गुरुओं (hierarchy) की शक्ति एवं कृतित्व मानता है. अपने आप को तो केवल निमित्तमात्र समझता है. इस प्रकार उसका अहंकार उसके आड़े नहीं आता. दूसरी ओर वोह अपने गुरु, दादा-गुरु के गुण-गान करते हुए और उनके नाम को उजागर करते हुए, सिलसिले का निःसंकोच प्रचार-प्रसार करता है.
पूर्ववर्ती विधा के अनुसार इस्लाम के सिद्धांतों को स्वीकार करने जा रहे जिज्ञासु की श्रृद्धांजलि अधुना गुरु के माध्यम से सीधे 'प्रतिष्ठित ईशदूत' (हज़रत पैगम्बर) के हाथ पर स्वीकार की जाती थी. इतना ही नहीं सर्वांगीण आत्मदान (बयत) की स्वीकृति के लिए गुरु को परम्परा के आप्तजनों से स्वप्न अथवा दिव्य-चेतना में उसकी आज्ञा भी प्राप्त करनी होती थी. इस सत्य को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेने में तनिक भी अविश्वास नहीं करना चाहिए क्यों कि इस नक्श्बंदिया सिसिले का पूर्ववर्ती नाम ही "ओवैसी', जिसका अर्थ-साधक अभिप्राय है - 'सिलसिले के आप्तजनों की मुक्त-आत्माओं से आध्यात्मिक-रूप से लाभान्वित होना'. हज़रत ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंद (ईश्वर की दया उन पर हो ) स्वम हज़रत ख्वाजा अब्दुलखालिक गुज्दवानी (उनसे ईश्वर प्रसन्न हों) के उवैसी थे.