रविवार, 13 फ़रवरी 2011

प्रकाशकीय

परमपिता परमात्मा, श्री श्री गुरुदेव, श्रीमन महात्मा रामचन्द्रजी (श्री श्री लालाजी) महाराज का एक उत्क्रष्ठ लेख, जिसका ज्यों का त्यों प्रकाशन 'कमाले इंसानी' शीर्षक से दो बार उनके पौत्र महत्मा अखिलेश कुमार जी द्वारा किया जा चुका है -प्रथम तो वर्ष १९६० (ईसवी) में एवं, दूसरी बार उसी का द्वितीय संसकरण उनके जन्म शताब्दी वर्ष-१९७३(ईसवी) में. इस प्रकार इसकी दो हज़ार प्रतियाँ पाठकों के बीच पह्नुच चुकीं हैं।

अब इस बार, उसी को मूल सामिग्री एवं स्रोत मान कर, यह हिंदी रूपान्तर, उसी के शोध-संस्करण के रूप में 'उत्तर पथ' शीर्षक से सुधी पाठकों के बीच पहुँच रहा है।

श्रीयुत संत, पूज्यपाद लालाजी महाराज के समय में भौतिक साधनों का अभाव था, किन्तु अपने भक्तों के प्रति उनकी चिंता उतावलेपन की सीमा तक थी। सामूहिक-सत्संग के अवसरों पर जो भी 'बात-चीत' होती, उनके "बयान" होते, उन्हें वे लिख कर पढ़ा करते थे। बाद में इन्ह्नी लेखों की प्रतियां, भाई-बहिनों में, वितरित की जातीं थीं। 'कमाले इंसानी' शीर्षक से प्रकाशित लेख भी इसी श्रंखला का एक क्रम रहा है।

फतेहगढ़ (उत्तर प्रदेश) स्थित, हिंदी-सूफी पीठ के अधुना प्रभारी, श्री दिनेश कुमार जी, जो क़ि श्रीयुत संत श्री श्री लालाजी महाराज के पौत्र हैं। उन्हों ने इस प्रकाशन की स्वीकृति मात्र ही प्रदान नहीं की वरन यह पूरा शोध-प्रबंध उन्हीं की देख-रेख एवं निर्देशन में हुआ है। अतः इस पुस्तक में दी गयी सामिग्री सम्बंधित कोई भी आपत्ति, जिज्ञासा अथवा शंका के समाधान के लिए प्रकाशन संस्था को न लिख कर सीधे उन्हीं से संपर्क किया जाए। इ-मेल <laalaajinilayam@gmail.com>

यद्यपि की नक्श्बंदिया-तरीकत में, "किसी बात का दावा न करना", "किसी बात का वादा न करना" इत्यादि की मनाही है। फिर भी इस सिलसिले की "सार-रूप अभिव्यक्ति स्वरुप" यह विवेचना की जाती रही है। "मालिक की सतत उपस्थिति" (constant presence of Master) ही यहाँ की साधना का मूल है। अभिप्राय यह है की इस कृति के पाठ के मध्य, मालिक कृपा करें, और यदि कहीं उनकी सतत-उपस्थिति की अनुभूति पाठकों को हो जाए तो इस प्रकाशन का लक्ष्य भी पूरा हो। 

कृतिकार का संछिप्त जीवन-वृत्त

सूफी रहस्यवाद में "प्रसर्जन के सिद्दांत" के अंतर्गत परात्पर-सत्ता जो हमारे लिए पूर्णरूप से अव्यक्त है, गुणों के आधार पर, २८ नाम बताए गए हैं और उनसे प्रवृत्त २८ ही रूप भी हैं; इनमें अंतिम और पराकाष्ठा को प्राप्त स्वरुप को "इन्सानुल कामिल" की संज्ञा दी गयी है। लक्षणों के आधार पर "इन्सानुल कामिल" और "स्थित-प्रज्ञ" दोनों एक दूसरे के पर्याय जान पड़ते हैं। इस उत्क्रष्ट कृति के लेखक, परम संत सदगुरु महात्मा रामचन्द्रजी (लालाजी) महाराज, स्वयं जिसके सुस्पष्ट हस्ताक्षर हैं।

लालाजी की अंतर-ज्योति को, एक प्रदीप्त-सूफी संत एवं समर्थ सदगुरु, हज़रत शाह ख्वाजा मौलवी फजल अहमद खां साहेब (रहमतुल्ला-अलेहि) रायपुरी ने जगाया था, जो कि नक्श्बंदिया-मुजद्ददिया-मज्हरिया सिलसिले के  तत्कालीन स्तम्भ माने जाते हैं। उन महामना के साथ आपके इस दिव्य एवं पवित्र सम्बन्ध के विषय में एक विशेष महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि धर्म-मर्यादा के इतिहास में यह प्रथम उदाहरण प्रस्तुत हुआ कि इन दोनों के बीच 'गुरु-शिष्य सम्बन्ध की स्थापना बिना औपचारिक धर्म-परिवर्तन किये हुए २२ जून १८९६ को संपन्न हुई। इतना ही नहीं ११ अक्तूबर १८९६ को आपके सदगुरुदेव ने आपको पूर्ण गुरु एवं आचार्य पद भी प्रदान किया  और दक्षिणा-स्वरूप यह वचन लिया कि जिस प्रकार मालिक के नाम पर उनके साथ किया गया, वैसे ही वे भी दीन-दुखी प्राणियों का उपकार व उद्धार, निष्काम-प्रेम व निःस्वार्थ भाव से करते रहें। अपने गुरुदेव के आदेश का आपने अक्षरशः पालन किया तथा उसका सुफल आज भली भांति सुस्पष्ट है। आपने अपने प्रीतम के नाम पर वोह आनंदमयी लीला की कि कदाचित ही किसी अन्य संत को ऐसा सौभाग्य मिला हो।

आपका जन्म ०३ फरबरी (बसंत पंचमी) सन १८७३ को एक अवधूत संत के आशीर्वाद स्वरुप फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) में एक अधौलिया (सक्सेना-कायस्थ) परिवार में हुआ। सात वर्ष की अवस्था में आपकी मानस-भक्ता माँ (श्रीमती दुर्गा देवी) और लगभग बीस वर्ष की अवस्था में आपके पिता, चौधरी हरबक्श राय अधौलिया का स्वर्गवास हो गया। अंग्रेजी मिडिल पास करके आप सरकारी नौकरी में आ गए और तीस जून १९२८ को सेवा निवृत्ति ली।

आप दो भाई थे; छोटे भाई महात्मा रघुबर दयाल जी, मात्र आपके अनुज ही नहीं प्रत्युत सही अर्थों में आपके अनुयायी भी थे। इस परम्परा में "राम-भरत की जोड़ी" की भाँति, आप स्वयं "लालाजी" और आपके छोटे भाई "चच्चाजी" के उपनाम से स्मरण किये जाते हैं। महात्मा रामचंद्र जी महाराज, पूर्ण योगी और ब्रह्म-वेत्ता ही नहीं थे, वरन पूर्ण सद्गुरु भी थे. योग की उच्चातिउच्च अवस्थाओं को प्राप्त करने के समस्त साधनों पर उनका पूर्ण अधिकार था। तत्त्व-ज्ञान के मार्ग के विभिन्न गली-कूंचों से वे भली भाँति परिचित थे। एक कुशल वैद्य की भाँति वे अपने शिष्य को उसकी प्रक्रति आदि के अनुकूल सीधे तथा सहज मार्ग पर लगा देते थे, जिससे वोह उत्तरोत्तर उत्कृष्ट दशाओं को प्राप्त करता जाता था।

इतना ही नहीं, वह  प्रभु के विशेष प्रतिभाशाली भक्त थे। गुप्त-रहस्यों की सरल भाषा में विवेचना करने की उनमें अपूर्व सामर्थ्य थी। परम गुह्य विषयों का चित्र सा खींच कर रख देते थे। उनका वर्ण्य विषय आलोचना की सीमा से परे है, क्योंकि वह अनुभवगम्य है। अनुभव-हीन, कोरा आलोचक भटक कर अपना ही उपहास कराएगा। विषय गंभीर है, अतएव, अच्छी प्रकार से समझनें के लिए बार-बार पढने की आवश्यकता है। उनका दार्शनिक ज्ञान केवल हिन्दू धर्म और परम्परा तक ही सीमित नहीं था - वे इस्लाम दर्शन के भी प्रकांड पंडित थे। उनके ग्रंथों में दोनों का अपूर्व और अद्भुत समन्वय हुआ है। ब्रह्म-विद्या के विभिन्न रत्नों को किसने कैसे सजाया है, इसकी झांकी दिखानें का श्रेय श्री श्री लालाजी महाराज को ही प्राप्त है।
वर्ष १९३१ के अगस्त माह की चोदहवीं तारीख देर-रात्रि तक श्रीमान लालाजी महाराज प्रत्यक्ष रूप से धरती पर दिव्य-शक्ति की साक्षात ज्योति के सद्र्श आलोकित होते रहे और भौतिक जीवन की अंतिम  तक श्वाँस तक पीढ़ित मानवता के लिए समर्पित भाव से कार्य करते रहे हैं, पुनः उसी परम सत्ता में विलीन हो कर आज भी उसी कार्य में निमग्न और विद्यमान हैं।

 प्रणति
 इस उत्कृष्ट कृति के लेखक परम संत सद्गुरु श्रीमन महात्मा रामचन्द्रजी महाराज, नक्श्बंदिया-मुजद्ददिया-मज़हरिया सिलसिले के हिदी-सूफी-कुल की फतेहगढ़ स्थित पीठ के आदिगुरू एवं प्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। इस पुस्तक में आपने प्रत्त्यय-वादी साधना पद्यति का सूक्ष्म अनुभव-आधृत विवरण प्रस्तुत किया है। फलस्वरूप साधकों के लिए यह  पुस्तक बड़ी महत्त्वपूर्ण है तथा उनके साधन -मार्ग के दिन-प्रतिदिन के मार्गदर्शन का अनिवार्य पाठ है। 

पूर्व प्रकाशित दो संस्करणों में जहाँ एक ओर विषय-वार वर्गीकरण का अभाव था, अरबी-फ़ारसी बहुल  उर्दू भाषा, जिसे समझने में सामान्य पाठक अपने को असमर्थ पाता था, वहीँ दूसरी ओर बीच-बीच में पर्याप्त महत्त्वपूर्ण सामिग्री छूट जाने से पाठ का तारतम्य  टूटता था, इत्यादि इत्यादि।  इसी प्रकार की अनेकों कठिनाइयों को इंगित करते हुए पत्र आते रहे और निरंतर यह दबाव डाला जाता रहा कि इसका पूर्ण और अबाधित पाठ उपलब्ध कराया जाए। यह सब कुछ जुटा पाने में बहुत समय लग गया। यह कहना कठिन है कि पाठकों की आशापेक्षाओं के अनुरूप यह बन पाया या नहीं, अतः  इस  उपहार को क्रपया स्वीकार करें और हमारे मार्ग-दर्शन का क्रम अविछिन्न बनाए रक्खें।

इस कार्य के सम्पादन में बड़ी घबराहट रही है  कि कहीं किसी स्थान पर ऐसी कोई भूल या भ्रान्ति न उपस्थित हो जाए जो मूल पाठ एवं मंतव्य को बाधित कर दे। अतैव इस  कार्य में सतत, परमपिता श्री श्री दादागुरु भगवान् श्री लालाजी महाराज से आंतरिक प्रार्थना चलती रही है कि दया व कृपा बनाए रक्खें जिससे जैसा वे चाहतें हैं वैसा ही सम्पादन हो तथा अपने प्रमाद के कारण कहीं कोई भूल या भ्रान्ति न हो जाए.

प्रणति की इस बेला में सर्वप्रथम सिलसिले के दो महान स्तम्भ सद्र्श संतों को सादर स्मरण करना मेरा कर्तव्य एवं दायित्व बनता है, जिन्होंने एक क्रान्ति की तथा इस अमृत को धर्म और जाति के बन्धनों से मुक्त करके मानव मात्र  के लिए सुलभ बनाया।

श्रद्धा बिंदु श्रीमन मौलाना फज्ल अहमद खां साहेब रायपुरी (ईष्वर की कृपा उनपर हो) जो दादागुरु श्री श्री लालाजी महाराज के दयालुगुरु थे, जिन्होंने उन्हें यह अमृत पिलाया तथा बिना भेद-भाव के यह संजीवनी  पीड़ित मानवता में वितरित करने का आदेश दिया।

श्रीमन श्रद्धेय शाह कलीमुल्लाह साहेब जहानाबादी (ईष्वर की उनपर कृपा हो) बड़े उच्च कोटि के संत  एवं दिव्य विभूति हुए हैं - उन्होंने यह स्पष्ट किया क़ि अभ्यास के क्रियान्वयन में पूर्व-वत चली आ  रही अरबी की तकनीकी शब्दावली के प्रयोग का बंधन नहीं है। हिन्दू भाइओं  को   हिंदी नामों, ईरानी भाइओं को फारसी के नामों, अंग्रेज़ी भाइओं को अंग्रेजी के नामों, बंगाली भाइओं को बँगला के नामों का प्रयोग बताना चाहिए और उनकी भाषा और आस्था के अनुसार शिक्षा देंनी चाहिए।

इस प्रकार यह गुह्य विद्या दादागुरु महात्मा रामचंद्र जी तथा उनकी शिष्य परम्परा के अधिकार प्राप्त  पीठासीन आचार्यों द्वारा ऐसी शिक्षा पद्यति एवं कर्म-काण्ड को अपनाया गया क़ि अब तो किसी-किसी संकुल के अभ्यासिओं को देख कर यह आभास भी नहीं होता क़ि यह "परम्परा कभी मुसलमान-सूफियों की अपनी ही धरोहर थी।

यहाँ पर प्रणाम और श्रद्धांजलि के इस क्रम में अपने श्वसुर श्री-श्रीमन महात्मा जगमोहन नरायण जी को सादर नमन करती हूँ। इस कार्य (work) के साथ दादागुरु श्रीमन श्री श्री लालाजी महाराज के संछिप्त  जीवन-व्रत्त देने की इच्छा एवं अपेच्छा हुई, जिसको मैं स्वम भी लिख सकती थी - मुझे एक युक्ति सूझी, दादागुरुदेव की ही एक अन्य पुस्तक "तत्त्व प्रबोधिनी" में प्राक्कथन शीर्षक से लिखा गया आपका संछिप्त जीवनवृत्त मुझे मिल गया जो श्री श्री श्वसुर जी महात्मा जगमोहन नरायण द्वारा लिखा गया है। मैनें यह उचित समझा क़ि इस कृति के लिए, स्वयम न लिख कर उसको ही इसके अनुकूल किंचित परिवर्तन कर प्रयोग कर लूँ। सचमुच मैं अपने आप को उन महान दिव्य-विभूति के समक्ष बड़ी दीन एवं अकिंचन अनुभव करती हूँ, कदाचित नीरांजन के इस महत्त्वपूर्ण दायित्त्व का निर्वाह न कर पाती। नीरांजन करने वाला भी तो कोई समर्थ पुजारी ही होना चाहिए। मैनें इसी द्रष्टि से यह धृष्टता की है। मैं  आभार स्वीक्रति के साथ क्षमा-प्रार्थिनी भी हूँ। अपनी पुत्र-वधु की गुस्ताखी को स्नेही श्वसुर क्षमा करे।

अपनी रचनाओं में मुझे अपने विद्या-गुरु, डॉ. ब्रजबासी लाल जी (उरई), पूर्व कुलपति बुंदेलखंड विश्वविद्यालय तथा अपने पतिदेव श्री दिनेश कुमार जी का सक्रिय सहयोग मिलता रहा है। इन महानुभावों के आग्रह-वश मै इस आभार को मनसा पूरा कर लेती थी, किन्तु आज ऐसा अनुभव कर रही हूँ कि यह मेरी भूल थी; दायित्त्व निर्वाह तो करना ही चाहिए था - अतएव क्षमा याचना सहित आभार व्यक्त कर रही हूँ। यह आभार इस प्रार्थना के रूप में व्यक्त करना चाहती हूँ- 

"परमपिता परमात्मा श्री श्री दादागुरुदेव लालाजी महाराज की इन दोनों विभुतिओं पर विशेष दया व कृपा हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में फैज़ व करम से इनको समस्त ऊंचाइया तथा उपलब्धियां सुलभ हों, जिससे यह महानुभाव सिलसिले की सेवा के आदर्श उपस्थित कर सकें". 
सम्मानित पाठकजन भी अपनी भाव-भावनाओं के साथ मेरे साथ हैं. हम लोगों की प्रार्थना एवं याचना स्वीकार हो और ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!ऐसा ही हो!!!
दादागुरु श्रीमान महात्मा जी के संकुल में अन्य सभी आचार्यों एवं उनके "मिशन" के प्रचार-प्रसार में रत सभी बहिन-भाईओं के प्रति सादर नमन करती हुई,
स्नेह-कांक्षी 
सुमन    

उपोदघात

इस विनीत साधु  ने दर्शन-शास्त्र और विभन्न धर्मों के विश्वासों का, जहां तक उसके विवेक ने सहायता की है, पर्याप्त अध्यन व अनुशीलन किया है, किन्तु अंततः (अपने) सद्गुरुजनों के विश्वासों और साधन-तत्त्वों को ऐसा पाया है कि जिन पर द्रड़ता पूर्वक आरूढ़ रहने ही से अंतिम समय तक जीवन तत्त्व की प्राप्ति की संभावना है।
 
मैं स्वीकार करता हूँ कि इस समय तक, मैं उन साधन तत्त्वों और विश्वासों पर पूर्ण आस्थावान, जैसा की अपेक्षित था नहीं भी रहा हूँ; किन्तु ह्रदय से कृतसंकल्प अवश्य रहा हूँ। खेद है की मेरे मित्रों और मेरे सहयोगिओं में से एक ने भी यह साहस नहीं किया कि इन विश्वासों को स्वीकार करता अथवा उन पर आस्थावान होने का निश्चय ही करता। इसमें समस्त दोष मैंने अपने आप में ही पाया कि अब तक इन विश्वासों की मैंने लिखित व्याख्या उनके समक्ष प्रस्तुत नहीं की; यद्यपि मौखिक रूप से उनकी चर्चा होती रही है और मुझे ज्ञात नहीं की उनमे से कुछेक ने भी स्वीकार और अंगीकार किया है।

स्पष्ट है कि आने वाली संताने बल व आकार(शक्ति और सामर्थ्य) में अपने पूर्वजों से वंशानुगत दुर्बल ही होतीं चली जातीं हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिकता और सदाचार में भी, नित्य-प्रति ह्रास ही हो रहा है। किन्तु यह सिद्धांत सार्वभौम नहीं है। उस परमपिता परमात्मा की रचना असीमित है। जब चाहे, कभी भी, अपने अति दुर्बल माँ-बाप से, ऐसा ह्रष्ट-पुष्ट नवजवान जन्म ले सकता है, कि जैसा पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ हो।

संसारीजन चटक-नाटक, वाहय आडम्बर और माया की झलक के भूखे हैं। उनके लिए केवल आंतरिक अभ्यास एक भारी बोझ है, अपनी पुरानी कुटेवों को त्याग कर धर्म सम्बन्धी शिष्टाचारों का वरन कर लेना ऐसा दुसह्य कार्य हो गया है कि एक-एक पग उठाना कठिन है। गिरते हैं, पड़ते हैं, भागते हैं और मुहँ छुपाने का प्रयास करते हैं। कितने ही भाग गए और न जाने कौन-कौन भागने को तैयार हो रहे हैं। किन्तु अभी भी थोड़ी सी संख्या जो अब तक टिकी हुई दिखाई देती है वोह इतनी प्रतिष्ठा-संपन्न और गौरवमयी है कि इसकी तुलना दूसरे सम्प्रदायों के सदस्यों से वे ही कर सकते हैं जो तत्त्व-द्रष्टा हैं या वे महापुरुष जो इस मार्ग के सिद्धानों से परिचित हैं और यहाँ के सद्गुरुजनों के सत्संग का लाभ उठा चुके हैं।

ऐसा क्या कारण है क़ि पर्याप्त समय व्यतीत हो गया किन्तु हम हिदी-सुफिओं का यह कुल अभी तक एक प्रतिष्ठित निष्ठा के रूप में उभर कर नहीं आ सका; न इसका कोई प्रकट अस्तित्तव है, न कोई आश्रम या आस्थान, न कोई लिखित सिद्धांत हैं, न कोई कोष अथवा कोई वित्तीय आधार। कारण जो प्रगट और स्पष्ट है, वोह यह क़ि आधारभूत सिद्धांतों, धार्मिक आस्था और उसकी आचार-संहिता की इस कुल के आधारभूत संतों की इक्छा के विपरीत जहां तक और जिस सीमा तक संभव हुआ है, लेश-मात्र भी परिवर्तन करने का साहस नहीं किया गया है। किन्तु, अब हमारे प्रेमी और सहयोगिओं में अधिकाधिक सज्जनों ने यह प्रस्ताव रक्खा है और यदा-कदा वे ऐसे सुझाव देते रहे हैं क़ि माया के स्थूल-रूप की झलक भी, इस कुल की शिक्षा और सिद्धांतों के मध्य सम्मिलित कर दी जाए। उनका संकेत यह है क़ि मौखिक उपदेशों को लिपिबद्ध कर दिया जाए; अर्थात उन्हें पुस्तकों और सामयिकिओं का स्वरूप दे दिया जाए।

अतः इस सेवक के मित्रों व सहयोगिओं ने अनेक बार यह प्रस्ताव रक्खा है की कुछ-न-कुछ लिखना अवश्य चाहिए। उनकी इक्छा यह है कि जो चर्चा और गोष्ठियां समय-समय पर आयोजित शिविरों एवं कार्यशालाओं के मध्य होतीं हैं वोह मस्तिष्क में अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहतीं और न शत-प्रति-शत अभ्यासी उस समय उपस्थित ही होते हैं, इस लिए अनुपस्थित भाई- बहिनों और आगे के समय में आने वाले अभ्यासिओं तक, इन्हें पहुंचाने का कुछ उद्योग किया जाना चाहिए।


अब प्रयास और साहस यह किया जाता है कि आज कल के नव-जवान जो उर्दू-फ़ारसी के मर्म और इस ज्ञान से अनभिज्ञ हैं या अधिक जानकारी नहीं रखते, उनके समक्ष उनकी गृहणशीलता  और सामर्थ्य के अनुसार साधारण बोल-चाल में कुछ विषय-सामिग्री सम्प्रस्तुत कर दी जाय, जिससे कि लाभ की कोई सूरत उनके सामने आ जाय। परमात्मा मुझे इस प्रयास में सफल करे और पढ़नें वाले क्षमता प्रदत्त हों।


अभीप्सा सिद्ध हो और -
ऐसा ही हो! ऐसा ही हो!! ऐसा ही हो!!!


फतेहगढ़ उ. प्र.                                                                                                           
२१ जून १९२८ 
                                                                                                          स्नेहाकान्क्षी
                                                                                                          फकीर रामचंद्र
                                                                                                                                                                          

उपनिषद्-सर्ग

उद्देश्य 
'मानव जीवन का उद्येश्य यह है की वोह सारे कर्म-धर्म, युक्ताहार-विहार की दृष्टि से पूरा करते हुए सत्पुरुष के ध्रुव-पद पर पहुँच सके और वहां पहुंच कर ईश्वर में स्थित हो जाय'

ईश्वर - स्थिति की चार अवस्थाएं हैं-
- उनके लोक में पहुंच जाय, जिसे सालोक्यता कहते हैं.
- उनके समीप पहुँच जाय, जिसे सामीप्यता कहते हैं.
-उनके रूप को प्राप्त कर ले- जिसे सारुप्यता कहते हैं.
-उनके अस्तित्व में लीन हो जाय, जिसे सायुज्यता कहते हैं..

"सालोक्य" वोह है कि गुरुदेव को अपने "नगर" में बसा लें या स्वयं "गुरु-के-नगर" में बस जायँ। हमारे हज़रत किबला कहा करते थे - 

"दो ही रस्ते हैं वफ़ा के, आजमा कर देख लो 
खुद किसी के हो रहो, या अपना बना कर देख लो"


ब्रजवासी गोपिकाएं सालोक्य्ता और सामीप्यता की स्थिति में थीं, राधा सारूप्यता की स्थिति में थीं जो "राधा भई मधाई" की स्थिति को प्राप्त कर, अर्थात कृष्ण रूप में हो कर राधा का वियोग अनुभव करते हुए, राधा-राधा पुकारतीं थीं।

'सामीप्य' वह है कि सदगुरुदेव की भीतरी बातें अपने अन्दर आने लगें. उनके विचार अपने में उठनें लगें. इसी को नन्मय्ता भी कहते हैं. प्रणव, धनुष और जीवात्मा 'बाण' के सद्रश है; ब्रह्म उसका लक्ष्य है। सतत व सावधान साधक के द्वारा वह लक्ष्य भेदा जाने योग्य है; अस्तु अभ्यासी के लिए उचित है कि उस लक्ष्य को बेध कर बाण की ही भाँति उस में तन्मय हो जाए।


'सारुप्य' में उस के बाहरी भाव, रंग, रूप अपने में प्रगट हों। यह वह स्थिति है जिसमें अभ्यासी परमात्मा में अखंड विश्वास और श्रद्धा रखते हुए उसी "एक" में निवास करने लगता है। और, जैसी कि श्रद्धा और आस्था उस परम प्रभु के प्रति हो, वैसी ही भावना 'सद्गुरु' के प्रति भी जाग्रत हो जाए। हम सूफिओं के कुल में, अभ्यासी जब इस स्थिति को प्राप्त हो जाता है तब ही उसे "बैत" या दीक्षित करते हैं; इससे पहले नहीं। इस प्रकार सर्वात्म-समर्पण के अनंतर भक्त, भगवान् में लय हो जाता है, वह तद्रूप, तदाकार, एक और अभिन्न हो जाता है। परिणय या सम्बन्ध, जिसे सूफिओं की बोल-चाल में "निःस्वत" कहा गया है, इसी स्थिति से जुड़ा हुआ है। यह वह दिव्य अनुभूति है जिसमें स्वयं भक्त की निजी सत्ता भी उस अपार आनंद-राशि (समर्थ-सद्गुरु) में लय और समाहित हो जाती है। उसे (शिष्य या भक्त) को अपनी भिन्न सत्ता का बोध होता ही नहीं। "आध्यात्मिक-परिणय" हुए बिना प्रभु में हमारा वस्तविक समर्पण हो ही नहीं सकता।

"निःस्बत" या ब्रह्म-संस्पर्श की निम्नलिखित पांच स्थितियां हैं -
- सबसे पहले स्मरण (recollection) होता है। स्मरण का अर्थ है - स्मृति का ध्येय में तद्रूप हो जाना. यह तद्रूपता धीरे-धीरे इतनी घनीभूत हो जाती है कि यह अंतःकरण की अपनी स्वस्थ्य एवं स्वाभाविक स्थिति हो जाती है।
- दूसरी स्थिति है निश्चलता (quit); जब यह प्राप्त होती है तब मन, अपने प्राण प्यारे के सिवाय कहीं हिलता-डुलता ही नहीं। उसे छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहता।
- तीसरी स्थिति मिलन (union) है; निश्छल मन अपनें प्रभु को प्राप्त कर लेता है और तभी मिलन होता है। मिलन में आनंद की विभोर दशा की अधिकता हो जाती है।
- चौथी स्थिति में भीटर ही भीतर, निर्भरता से घिरी हुई अपूर्व उन्मत्तता (ecstasy) का अविर्भाव होता है। यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है। यह मिलन-जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है। उन्मत्तता में अपने शरीर की संभाल स्वयं हट जाती है और शिष्य अपने गुरुदेव में उसी प्रकार लय हो जाता है जिस प्रकार पानी में रंग, दूध में मिश्री या समुद्र में नमक।
- पांचवी और अंतिम स्थिति है, तन्मयता (rapt) की। यहाँ शिष्य की संज्ञा प्रेमी में परिणित हो जाती है। उपनिषद में "इस गुह्य विद्द्या" के अधिकारी होने की जो एक शर्त यह भी बताई गयी है कि "शिष्य पुत्र हो जाय और पुत्र शिष्य हो जाय"; इसी स्थिति की ऑर संकेत है। अब शिष्य में अपने गुरु के प्रति ऐसी प्रीति जाग्रत होती है कि वह उनके बिना रह ही नहीं सकता। इस प्रीति को पा कर शिष्य सर्व-शून्य एवं निरावरण हो कर, एक-मात्र अपने सदगुरुदेव का हो कर ही रह जाता है।

उस अभ्यासी (शिष्य) की मनोदशा यहाँ पर ऐसी हो जाती है कि हर समय और हर स्थान पर वोह अपने सदगुरुदेव की मधुर उपस्थिति अनुभव करता है और इसी अनुभूति में वोह सुध-बुध खो कर मस्त रहता है. प्रेम के इसी अमृत को पी कर ईसा हँसते-हँसते सूली पर चढ़ गए और मीरा जहर का प्याला भगवान् का चरनामृत समझ कर पी गयी.

सायुज्य  में  यह हो कि 'उनके' और 'अपने' बीच में कोई अंतर शेष न रह जाय. दुसरे जब याद दिलावें तब याद आवे.और बातें सब वही हों जो गुरुदेवजी जानते हों. यहाँ पर गुरु और शिष्य एक हो जाते हैं. परम प्रेम (दीनता) के सुधा-पान के लिए यह आवश्यक है कि जगत में द्रष्टिगोचर होने वाली भिन्नता तथा अनेक नाम-रूप में छिपी हुई 'एक' परमात्म-ज्योति से साक्षात्कार हो जाय. खंड, सीमा, परिवर्तन, म्रत्त्यु, हाहाकार और विनाश के उस पार जो प्रीतम की नगरी है और इन दीख पड़ने वाली भिन्नताओं को पार करके ही वहां जाया जा सकता है. वहां जा कर वापसी नहीं होती. कबीर की साधना में इस संसार के प्रति अटूट द्रढ़ और अजेय वैराग्य है; जो उन्हें संसार में विरमनें नहीं देता और उन्होंने इसी बल बूते पर "साईं के देश" पहुँच कर "साजन की अटारी" पर पौढ़ते हुए कहा है - "अब हम अमर भए न मरेंगे".

इस सबके अनुभव करते हुए मार्ग को तय कर परम पद तक पहुचने को "सैर" कहते हैं.

 ईश्वर में स्थिति प्राप्ति के साधन.

ईश्वर में स्थिति, प्रेम और दीनता से प्राप्त की जा सकती है, आशय यह है कि सिवाय परमात्मा के अन्य सभी वस्तुओं से नितांत विरक्ति हो जावे और संसार की ऑर ध्यान न जावे. क्रिया-शक्ति प्रीति और भजन में लगी रही. और उस एकमात्र सत्ता में लय होने के लिए इस प्रकार विकल और आसक्त रहे जैसे कि विकलता पानी में डूबता प्राणी की अपने प्राण-रक्षक के लिए होती है.

मौलाना जामी (ईश्वर की दयालुता उनपर हो) की एक पुस्तक जिसमें हदीस (पवित्र वचन) देखने को मिली. उसका अनुवाद यह है कि जो मेरे प्रेम का मारा हुआ है, मैं उसके (प्रति) बयत, अर्थात समर्पण की भावना रखता हूँ और मैं स्वम उसका क्षति-पूरक हूँ. इस सन्देश के माध्यम से ईश्वर में ध्यान की विधा को उजागर किया है. वोह इस प्रकार है कि जब प्रेम; आत्मीयता, लय अवस्था और सत्य-निष्ठ होने की प्रतिष्ठा (अमानत) के बिंदु तक पहुँच जाता है तब अभ्यासी, सायुज्ज्य्ता (याफ्त) और निजी-प्रकाश की आनंदानुभूति करने में सफल हो जाता है.

यहाँ पर बयत, अर्थात समर्पण की निष्ठा से तात्पर्य है -
सायुज्ज्य्ता की स्थिति का रसास्वादन, जो ईश्वर के प्रति निजी-प्रेम में अपने अस्तित्व  को  मिटा देने के फलस्वरूप प्रकट और सुलभ होता है. 'जापक'-अभ्यासिओं के लिए ध्यान की विधि की ओर इंगित करते हुए संकेत है की - "भाढ़ की तपती रेत के मध्य पड़ा हुआ अनाज का दाना जैसे बार-बार भूने जाने पर भी बार-बार उछल पड़ता है, किन्तु उस रेत से बाहर नहीं जाना चाहता; उसी प्रकार इस प्रेमजन्य संताप के अतिरेक से उसका मन हट-हट कर उस संताप को सहने की अत्त्यंत सुखद वृत्ति (पड़ी लत) के कारण उसी की ओर प्रवृत्त रहता है. तात्पर्य यह है कि वियुक्त प्रिय का ध्यान आते ही चित्त संताप से विव्हल हो जाता है, फिर भी वोह बार-बार उसी का ध्यान करता रहता है. प्रेम-दशा चाहें घोर यंत्र्नामय हो जाए, पर ह्रदय उस दशा से अलग होना नहीं चाहता. एकाग्र ध्यान की यही अवस्था चरम लक्ष्य तक पहुचाने में अहम है.

खूँबहा (क्षतिपूरक) से तात्पर्य है कि उस निशित की गयी धन-राशि से है जो बधिक की ओर से, जिस व्यक्ति का वध हो गया हो, उसके घर वालों को उस क्षति के पूरक के रूप में अदा की जाती हो. ईश्वर के सन्दर्भ में इस पूर्व-लिखित वक्तव्य से यह समझना चाहिए कि यदि उसके प्रेम में किसी भक्त के जीवन की क्षति हो गयी हो तो उसके इस आत्मोत्सर्ग की क्षति-पूर्ती के रूप में ईस्वर की दिव्य-स्थिति की उपलब्धि उसे हो जाती है; अर्थात भक्त ने यदि उसकी याद में प्राण त्याग दिए हैं तो उसे भगवान् मिल जाते हैं.

ईश्वर ने अपने इसी वक्तव्य के माध्यम से ध्यान और समाधि की एक विशेष विधा को निर्दिष्ट किया है. संषेप में इसे इस प्रकार समझ लें कि उसकी याद में उसकी प्रतीक्षा की अनुभूति को साकार प्राप्त  प्राप्त करें और इसी स्थिति में एकाग्रता की ऐसी स्थिरता करें कि समाधि लग जाय. हमारा प्रेम ऐसा नितांत और निजी हो जाय कि बीच में किसी भी प्रकार का स्वार्थ या प्रयोजन शेष न रह जाय, जो उस दिव्य सम्बन्ध में बाधक हो. ऐसी प्रेम-मई  समाधि अभ्यासी को अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे तात्यिक और सत्त्यनिष्ठ होने की प्रतिष्ठा के चरम बिंदु तक पह्नुचाने वाली होती है. अपनी अलग सत्ता की प्रतीति से परे का चरम-बिंदु यह है कि प्रेम की हालत में प्रियतम और प्रेमी, भक्त और भगवंत के बीच (भेद) का पर्दा उठ जाय. भक्त को यह आभास और परख शेष न रहे कि भक्त कौन है और भगवंत कौन है.

यह समाधि कबीर के इस रूपक से स्पष्ट होती है - आँखों में प्रियतम की छवि भरी हुई है, काजल की रेखा उसमें कैसे अटे? आंठो पहर, चौसंठ घढ़ी जब हरि के सिवा कोंई रहा ही नहीं, फिर नींद निगोड़ी कैसे आवे? सच्ची पतिव्रता तो वोह है जो एक क्षण के लिए भी संसार पर आँखे नहीं डालती. वोह तो अहर्निश आँखे बंद करके प्रभु के रस में डूबी रहती है.

"कबीर रेख सिन्दूर अरु, काजर दिया न जाय.
नयनन प्रीतम मिलि रहा, दूजा कहाँ समाय.
आठ पहर चौसठ घड़ी, मेरे और न कोय .
नैना माहि तू बसय, नींद को ठौर न होय.
पतिवर्ता तब जानिये, रतियु न उघरे नयन .
अंतर गति सकुची रहे, बोले मधुरे बैन."

उस सनातन सत्ता के स्पर्श में आ जाने पर मानव की अमरता व्याप्त हो जाती है. इसकी हल्की सी झांकी कबीर के इस  पद में देखनें को मिलती है-

"रस गगन गुफा में अजर झरय!
बिन बाजा झंकार उठै जहँ, समुझि परै जब ध्यान धरय!!
बिन ताल जहँ कमल फुलानें, तेहिं चढ़ि हंसा केलि करय!
बिनि चन्दा उजियारी दरसे, जहँ तहँ हंसा नजर परै!!
दसवें द्वारे ताली लागी, अलख-पुरख जाको ध्यान धरै!
काल कराल निकट नहीं आवै, काम-क्रोध, मद-लोभ जरै!!
जुगन-जुगन को तृषा बुझानी, करम-भरम अध् व्याधि तारे!
कहैं कबीर सुनौ भई साधो, अमर होई कबहूँ न मरै!!"

इस "अमरता" के लिए 'सत्य-निष्ठ होने की प्रतिष्ठा' से अपेक्षित है कि जन्म के समय, व्यक्ति के साथ, ईश्वर की ओर से प्रेम की धार प्रवाहित की जाती है. वोह नितांत निश्छल और निष्कपट होती है. इस की तुलना अबोध बालक के प्रेम से की जा सकती है. ऐसा निष्कपट और निश्छल प्रेम ईश्वर की ओर से धरोहर के रूप में सौंपा जाता है और जिसके लिए हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि मालिक की ऑर से जब भी वोह वापस माँगा जाय, ज्यों-का-त्यों वापस कर दिया जाय. अब देखा यह जाता है क़ि इंसान म्रत्त्यु के समय क्या ईश्वर के प्रति ऐसा ही निश्छल और निष्कपट प्रेम वापस ले कर जा रहा है, जैसा क़ि उसको संसार में आते समय बतौर धरोहर के सौंपा गया था? यदि ऐसा नहीं तो यह धोखा है, ईश्वर के प्रति विश्वासघात है.

मृत्यु  रूपी इसी अंतिम क्षण की शुभ प्रेम गति को ले कर ही संसार के समग्र दर्शन, धर्म, मत, दिद्धांत,जप, ताप, पूजा, पाठ, नियम, व्रत आदि हैं कि वह अंतिम क्षण, जिसमे हम संसार से कूच कर रहे हों, प्रभुमय हो, आनंदमय हो, इसी के लिए जीवन भर अभ्यास किया जाता है. प्राण-विसर्जन की उस अंतिम बेला में बिलकुल छुट जाय, हमारे प्राणों को केवल प्रभु जी की शीतल-मधुर पावन स्पर्श अनुभव होता रहे. उस स्पर्श की शीतलता में हमारे रोम-रोम पुलकित हो उठें, होठों पर हल्की सी मुस्कान हो और उसी मुस्कान के के साथ हम विदा हों.

मृत्यु  को संतों और भक्तों नें एक अपूर्व कौतूहलपूर्ण द्रष्टि से देखा है. एक और तो संसार से मुक्ति मिली, वैराग्य हुआ, दूसरी और इसे साजन के देश का निमंत्रण मिला. मृत्यु से संसार की अनित्त्यता और क्षणभंगुरता ही  नहीं प्रमाणित हुयी, प्रत्युत यह भी प्रमाणित हुआ कि हम जन्म जन्म से अपने 'प्रानधन' को खोजते आ रहे हैं और हमारी खोज मृत्यु को भी लांघ कर चलती रहेगी. कबीर ने मृत्यु को "साजन के देश" का निमंत्रण माना है - "प्रीतम" का बुलावा, मिलन मंदिर के लिए प्रस्थान. मृत्यु उस "मिलन-मंदिर " का द्वार है जिसे पार कर "शीश -महल में "साईं की सेज पर पौढ़ने" को मिलेगा.

"कर ले सिंगार चतुर अलबेली, साजन के घर जाना होगा" सहज ही स्मरण हो आता है. उन्होंने तो 'अलबेली' को नहाने धोने, मांग में सिन्दूर लगा कर नयी लाल साड़ी पहनने की सलाह दी है, क्यों कि उनके विचार से यह 'मिलन' परम मिलन होगा और वहां से पुनः लौटना न होगा. "नहाले, धोले,सीस गुंधा ले, फिर वहां से नहिं आना होगा"!! 

जब प्रेम इस बिंदु तक पहुँच जाता है तो प्रेमी सायुज्यता की स्थिति और आत्म प्रकाश के रसास्वादन में विभोर हो जाता है. ध्यान की यही प्रक्रिया और स्थिति पूर्ण और ध्रुव पद पर पहुँचाने वाली है. ध्यान और समाधि की जिन अवस्थाओं का विवरण ऊपर आया है वे केवल अनुभव-गम्य हैं.

यह एक प्रकार का मिलाप और योग की स्थिति है. सब से पहले वैराग्य हो जाय; जो कुछ संसार द्रश्य और श्रव्य है, उसकी और से से मुहं मोड़ ले तत्पश्चात उपासना में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय, उस परम तत्त्व के प्रति ऐसा आकर्षण व ऐसी लय अवस्था हो जाय, जिसका विवरण किसी रंग-रूप और नाम से नहीं दिया जा सकता है. वोह एक ऐसी स्थिति है जो सब का आधार है; स्वम किसी का आधार अहिं है.

इस लय अवस्था की पहली स्थिति अपने आप में बेसुध हो जाने की होती है. सब इन्द्रियाँ बेसुध हो जातीं हैं, बल्कि इस प्रकार निष्क्रिय हो जातें हैं मानो मृत्यु  हो गयी हो. फिर भी मृत्यु और इस लय अवस्था के बीच यह अंतर है कि मृत्यु में तो कोई चीज़ या वास्तु अपने सामें नहीं रहती किन्तु लय अवस्था में बेसुधी की स्थिति में केवल एक लक्ष्य सामने शेष रहता है और अन्य सभी दूसरी वस्तुओं के लिए मृत्यु जैसी बेसुधी हो जाती है. लय की यह स्थिति "हुजूरी" कहलाती है.

यदि अभ्यासी की अवस्था ऐसी होने लगे जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, भले ही वोह थोड़े समय मात्र के लिए ही क्यों न हो, तो यह समझना चाहिए कि उसका सम्बन्ध विराट देश से हो गया है; जहां पर सभी तत्त्वों एवं कुल शक्तिओं का भण्डार है. ऐसे अभ्यासी को इस्लामी अध्यात्म-वाद में "वली" (ऋषी) कहते हैं.

ऋषी की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं हैं -

(१) ऐसी अवस्था हो कि थोड़े दिन उसको पर्याप्त आनंद आवे और तबीयत लगी रहे. हालत भाव विभोर एवं शरीर गदगद रहे तथा बिना प्रयास के भी तबीयत उसी ओर झुकी रहे. अपने आप को और अपने तन-बदन को भूला रहे. ऐसी अवस्था में जैसे कि नशा करके होती है. किन्तु थोड़ी देर बाद या थोड़े दिनों बाद यह अवस्था स्वम ही जाती रहे. आनंद न आवे, तबीयत ठस रहे. हर समय विचारों का झुण्ड बना रहे. तबीयत में परेशानी, तनाव व भारीपन रहे और बार बार प्रयास के उपरान्त भी तबीयत का झुकाव व लगाव उत्पन्न न हो.

(२) ऐसी अवस्था हो कि कभी जल्दी और कभी देर में मन का झुकाव असल पद की ओर हो, बेसुधी या नशा सा रहे.

(३) निरंतर सम अवस्था में रहे; घबराहट न हो, कभी बेचैनी या तनाव की स्थिति भी न हो, इसी स्थिति में स्थिरता आ जाती है. यह स्थिति स्थिति-प्रज्ञ की कहलाती है.

स्थिति-प्रज्ञ, परमभक्त ब्रह्मभूत पुरुष का गुण है; जिससे लोग उकताते नहीं और जो न लोगों से उकताता हो. जो व्यक्ति आनंद, शोक, भय, सुख और दुःख इत्त्यादिक बन्धनों से मुक्त है; सदा अपने आप में ही निश्चिन्त रहता है. तीनों गुणों से जिसका मन चंचल नहीं होता, प्रशंसा या निंदा, प्रतिष्ठा या अपमान जिसके लिए बराबर हैं और जिसने अनेक जीवधारिओं में रहने वाली आत्मा की एकता (universality) को परख कर, मस्तिष्क को सम अवस्था से सम्पूर्ण तर्क-वितर्क से परे हट कर दृड़ता व स्वेक्षा से अपने कर्म को जान लिया है और उसका पालन करता है. उसके लिए लोहा, सोना, पत्थर सभी बराबर हैं.

इन स्थितियों को क्रमशः हंस, परमहंस और संत की गतियाँ कह सकते हैं. हंस की गति में उतार-चढ़ाव लगा रहता है. परमहंस में उतार-चढ़ाव तो होता है किन्तु वोह उसको इतना भासता नहीं, उसको इसका अनुमान नहीं होता. संत की गति स्थिति-प्रज्ञ की होती है. परमसंत की गति इससे कहीं उत्तम होती है.

संतों, परमसंतों की आध्यात्मिक स्थिति का वर्णन करना अत्तयंत कठिन है. शब्दों में उनके आनंद का वर्णन क्या हो? वोह तो स्वसंवेद्य हैं, गूंगे का गुढ़ है. जिनके लिए यह जगत रह ही नहीं गया; जो सर्वत्त्र-सर्वदा भीतर-बाहर ऊपर-नीचे दायें-बाएं हर घढ़ी, हर ठौर केवल अपने मालिक का ही स्मरण व दर्शन करते हैं, उसी का स्पर्श करते हैं, उसी का रसास्वादन करते हैं और उसी के रस में स्वम छके रहते हैं, उनके सुख दिव्य आनंद का वर्णन कोई करे भी तो कैसे?

मनुष्य का जीवन एक विचित्र पहेली है. एक ओर विषयों का आनंद है और दूसरी ओर आत्मा का आनंद है. क्षणिक और अनित्त्य आनंद तथा निरंतर एवं नित्य आनंद में विवेक द्वारा भेद समझ कर सच्चे आनंद की उपलब्धि के लिए लगना चाहिए. यदि साधक भौतिक आनंद में लिपट गया तो उसकी आत्मा एक पिंजड़े में बंध गयी. वोह परमात्म आनंद को क्यों कर और कैसी जान सकेगा? यदि दिव्य आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि चाहते हो तो विषयानंद की आसक्ति से मुक्त हो जाना चाहिए. वोह परमानंद एक-एक अणु में ओतप्रोत हो रहा है. आवश्यकता है मोह का आवरण हटा कार एकांत भाव से परमात्म दर्शन और भगवत-मिलन की आकुल उत्कंठा की.

ब्रह्मसंस्पर्ष

संस्पर्श आनंद अन्तःस्थल की वोह उन्मादकारी अनुभूति है जो किसे साधक को उस परमपुरुष के अमृत-तत्त्व के स्पर्श में आ जाने से होती है एवं जिसको पा लेने पर वोह जन्म-जन्मान्तर के लिए निहाल हो जाता हो है. उसकी अमर ज्योति पल-पल और कण-कण में उद्भासित होती है. आठो पहर वोह प्रेमी साधक इसी रस में झूमता रहता है और उसका रोम-रोम प्रेमानंद में छका रहता है.

प्रकट तौर पर, उस अभ्यासी की स्थिति कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि उसको भूत, भविष्य और वर्तमान की कोई भी गति प्रभावित नहीं करती. उसे कुछ ज्ञान ही नहीं होता कि क्या हो रहा है, क्या होगा अथवा क्या होना चाहिए; एक स्थान पर यदि खड़ा है तो  खड़ा हो कर रह जाता है. आशा तृष्णा कुछ भी शेष नहीं रह जाती. न कुछ पा लेने की प्रसन्नता न कुछ खो जाने का दुःख; मात्र एक प्रतिमा सी बन कर रह जाता है. किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वोह कोई सांसारिक कृत्य ही नहीं करे तथा पागल या निर्जीव बन कर रह जाय. नहीं ऐसा कदापि नहीं. वोह निश्चेष्ट या क्रियाहीन भी नहीं हो जाता. यों तो वोह सामान्य जीवधारियों की भान्ति ही रहता है किन्तु मानसिक स्थिति उसकी कुछ अवधूत जैसी हो जाती है - 'न आये की प्रसन्नता, न गए का दुःख' या न और कोइ विरोधाभास; और यदि उससे उसकी इस स्थिति की असामान्यता का कारण पूंछा जाय तो  कदाचित वोह बता भी नहीं पायेगा.

यों यह एक प्रकार की उन्मत्तता का अविर्भाव है किन्तु यह उन्मत्तता सर्वथा अलौकिक है; यह मिलन्जन्य आनंद एवं आत्म-विस्मृति की विभोर दशा है. इस स्थिति में साधक की बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है, उसे परमात्मा के मिलन का आनंद प्राप्त हो जाता है और उसका हृदय उसी रस में सराबोर रहता है. वोह एक पल के लिए भी उससे बाहर नहीं आता. मुसलमान प्रत्त्यय-वादिओं (सूफिओं) ने इस स्थिति को "हैरत" की संज्ञा दी है - इसी अवस्था का वर्णन दुसरे संत-मतों और रहस्य-वाद में भी देखने को मिलता है.

जिसे प्रियतम-मिलन का रस मिल गया उसके लिए संसार के सभी रस नीरस हो गए. जिसने उस अरूप रूप को देख लिया उसकी दृष्टि संसार के रूप पर क्यों जायेगी? जिसे उसका नाम मिल गया, उसके लिए और नाम से क्या ममता? जिसे हरी के दिव्य अंग का स्पर्श प्राप्त हो गया उसे संसार के किसी भी स्पर्श के सुख का क्या अर्थ? भगवान् में एक साथ ही हमारी सभी इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं इसे ही "आठ पहर, साठों घरी, जागे हरि के ध्यान" कहा है. सदा सदैव भगवान् में जागता रहे; सर्वत्र जागरूक रहे; आवरण में उलझ न जाय, "गुढ़िओं" में फंस न जाय. गुढ़िओं को फेंकता जाय, खिलौनों पर आँखें न टिकने दे - पानी के लहरें आती जायं, उन्हें चीरता जाय; उस पार का विस्मरण न हो, प्राण-नाथ से मिलना है, यह भूले नहीं. दृष्टि स्र्वत्त्र, सदैव हरि पर ही रहे. संसार के घने आवरण को भेद कर, जगत के आकर्षण को रौन्ध्ते हुए उमंग और उल्ल्हास के साथ आगे बढ़ता चला जाय - "सोये है संसार सूँ, जागे हरि की ओर".

मन, प्राण और शरीर अनुभूति के साधन हैं. ब्रह्म-संस्पर्श का आनंद पठन-पाठन या चिंतन के द्वारा नहीं, केवल अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है. यह सर्वथा अतीन्द्रिय-संवेदी है. इसे गूंगे का गुढ़ कहा जाता है. किन्तु इस गुढ़ के स्वाद का सुख, साधारण जिव्ह्या का सुख मात्र न हो कर साक्षात, परात्परा शक्ति से संपर्क और स्पर्श का शाश्वत आनंद है; उसकी सतत उपस्थिति उसे जगत से संपर्क के समस्त संपर्कों को तार तार कर देने को बाध्य कर देती है. दूसरी ओर साधारण संसारियों के लिए उसकी यह मनोदशा सामान्य भाषा में उदासीनता कही जा सकती है - जिसका अर्थ है द्वन्द्वों के प्रति उपेक्षा. इस उदासीनता के शाब्दिक विश्लेषण के अनुसार इसका अर्थ बनता है - 'ऊपर आसीन होना', सभी भौतिक और मानसिक स्पर्शों के ऊपर होना. उदासीन अभ्यासी, कामना से मुक्त होता है. उसे समस्त भौतिक सुख-दुखों का या तो आभास ही नहीं होता और अन्यथा यदि होता भी है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके मन और शरीर मात्र को छू रहे हैं, स्वम उसे नहीं. वोह उस समय स्वम अपने मन और शरीर से भिन्न उनके ऊपर अवस्थित होता है. यह प्रशंसित प्रकार की निस्तब्धता है जो विशिष्ट साधकों को ही प्राप्त है, अन्यथा दूसरी अश्लील और दूषित है जो आम व्यक्तिओं के भाग की वस्तु है.

इस स्थिति को विस्मय और निःस्तब्धता के के अर्थों में स्पष्ट करने के मिस एक रूपक का सहारा लिया जा रहा है. एक ठेठ ग्रामीण व्यक्ति जिसने कभी अपनी झोपड़ी को नहीं छोड़ा है, यदि किसी प्रकार किसी राजसी महल में चला जाय या कलकत्ता, मुम्बई जैसे किसी बड़े शहर के जौहरियों की सोने-चांदी वालों की या बड़े-बड़े अंग्रेज़ी-पारसी सौदागरों की दुकानों पर ले जा कर खड़ा कर दिया जाय, तो वोह एक-दम हक्का-बक्का हो जाएगा, या कोई आदमी किसी अनिन्द्य पराकाष्ठा प्राप्त युवा-सुन्दरी को देख कर अध्ससा हो जाता है; ठीक उसी प्रकार भगवत्सत्ता के उस प्रकाश को देख कर चकाचौंध अवस्था में हो जाता है. किन्तु विशेष बात इस स्थिति की यह है कि इसमें संदेह या शंका का समावेश नहीं होता. उस स्थिति में पहुंच जाय पर उसको यह विचार करने का अवसर ही नहीं होता कि यह क्या है अथवा क्यों और कैसे है.

अचम्भा या स्तब्धता की अवस्था और संदेह और शंका की अवस्था में अंतर स्पष्ट हो पाना थोड़ा कठिन है. यह भ्रम रहता है कि यथार्थ में इस अभ्यासी या भक्त की अवस्था, स्तब्धता की है या संदेह की. अतः जहाँ ज्ञान की पूर्णता का समावेश है वहां स्तब्धता है, इसके विपरीत, अन्धकार व अज्ञान में जो स्थिति होती है वोह संदेह है. इसके अतिरिक्त एक सबसे बड़ा लक्षण यह भी है कि स्तब्धता चैत्य की विद्यमानता में होती है, अर्थात अभ्यासी को नाम और नामी का ज्ञान स्पष्ट व उपस्थित रहता है किन्तु संदेह और भ्रम के फलस्वरूप चैत्य का अभाव और असावधानी आवश्यक है. जो व्यक्ति अचम्भे या स्तब्धता की अवस्था में होता है उसको, उसके यथार्थ व उसके श्रोत को जानने और तादात्म्यता के अंतर्गत उसके दर्शन की ललक अपनी चरम सीमा पर होती है, किन्तु 'सदेह' की अवस्था वाला व्यक्ति लगाव के अनुमान में तुरंत ही यकायक लगाव के अभाव में उसकी वास्तविकता को जानने के चक्कर में अपनी मूर्खता-वश अधोगति का भागीदार बनता है.

अचम्भा या स्तब्धता दो तत्त्वों से मिल कर बने हैं- एक तो शारिक ज्ञान, दूसरा उसके बन जाने का कारण न जानना, अर्थात भौतिक ज्ञान तो होता है कि अमुक वस्तुएं और ऐसे बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं और उपथित हैं किन्तु यह सब रचना कैसे और क्यों हुई, यह ज्ञान नहीं होता इसलिए इसमें भ्रान्ति और संदेह दोनों का समावेश रहता है. इसमें न तो कोई अवयव ज्ञान का पाया जाता है न पूर्ण अज्ञान का ही. ऐसा लगता है कि इस अवस्था वाले व्यक्ति को ज्ञान की रचना ऐसे मिश्रित अवयवों से मिल कर हुयी है जिसमें संदेह का अंश तो उपस्थित है ही और ज्ञान के अंश होने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं. ऐसी स्थिति हमेशा, आने-जाने, आकर्षण-विकर्षण, अनेति-अनेंती और नेति-नेति की परिधिओं के अन्दर रहती है. इस प्रकार के संदेह का नाम- 'दूषित विस्मय' है. ऐसी अवस्था में प्राण के क्षेत्र में क्रिया होते समय जो उल्ल्हास होता है, वोह बहुत बार ठंडा पड़ जाता है और भौतिक सत्ता की एक-रस जड़ता, अंधकारमय बाधाओं सहित स्थूल भौतिक-चेतना में प्रकट होती है. यदि प्राण, बुद्धि या उच्चतर मन की प्रेरणा या उत्तेजना न हो तो साधारण अपरिष्कृत भौतिक चेतना की विशेषताएं होतीं है- जड़ता, तमस, मूर्खता, संकीर्णता, सीमा प्रगति के लिए अक्षमता, संदेह, अवसाद, शुष्कता और आध्यात्मिक अनुभूतियों की विस्मृति. यह सामयिक तौर पर हुआ करता है. इससे बाहर निकलनें का रास्ता यह नहीं है क़ि प्राणिक विद्रोह या चिल्ल-पों के द्वारा भौतिक सत्ता को जगाया जाय या इस अपनी दशा के लिए परिस्थितियों या अपने गुरुदेव को दोषी ठहराया जाय. क्योंकि इससे स्थिति और भी बिगड़ेगी. तमस, शुष्कता,अवसाद और जड़ता में बृद्धि होगी. एक सतत  और प्रयत्नशील अभ्यासी को जानना चाहिये क़ि उसके अन्दर सार्वभौम पृकृति कोई तत्त्व प्रतिष्ठित हो रहा है, जिसे निकाल बाहर करना ही श्रेयस्कर होगा. और इसका एक ही उपाय है - अधिक से अधिक समर्पण और अभीप्सा और उसके माध्यम से मन और प्राण के परे से भागवत-शान्ति, ज्योति, शक्ति और उपस्थिति को अपने अन्दर लाया जाय. इसे हुजूरी कहते हैं.

भागवत-सत्य की ज्योति 

कई बार साधक ने अनुभव किया होगा- ज्योति गहरी और गहरी प्रविष्ट होती चली गयी. तुम्हारे अन्दर भी महिमान्वित शरीर की प्रक्रिया चलती रहती है; क्यों कि तुम मेरी आध्यात्मिक संतान हो ; मेरे बिना तम्हारा अस्तित्व है ही नहीं और मैं तुम्हारे बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता. यदि कर सकते हो तो अपनी बाहरी आँखों के अंधेपन को बेध कर अपने उस शरीर को देखो जो मेरी तीव्र चेतना और क्रिया दोनों से पूर्ण तादात्म्य हो कर धरती पर एक दिव्य जीवन और दिव्य आस्था के रूप में प्रकट हो रहा है; देखो! एक शुभ्र महिमामयी कांति जिसमें धीरे धीरे बाहरी पदार्थ घुल मिल रहे हैं, अपने आप को वाह्य तत्व में प्रक्षिप्त कर रही है ताकि उसे तद्रूप कर सके. ज्योति शरीर के अंग-अंग में खेलती है, कभी आगे जाती है, तो कभी पीछे हट जाती है. कभी इस अपने ही शरीर में एक सुकुमार्य सौन्दर्य-पुंज अवतरित होता है, अपना है फिर भी सम्मोहन होता है, तो कभी एक महान शक्ति प्रकट होती हुई सी दीखती है. यहाँ तक कि कभी कभी हमारा सुपरिचित शरीर कुछ देर के लिए आँखों से ओझल हो जाता है और उसके स्थान पर शुद्ध और शाश्वत दिव्यता शेष रह जाती है.

यही ज्योति, जो अभ्यास के मध्य क्रीड़ारत होती  है, कभी शुद्ध शाश्वत सफ़ेद, तो कभी हरी, और कभी स्वर्णिम-लालिमा से ढका हुआ एक झीना, किन्तु निष्चल शांत आवरण सद्रश्य, जिसके उसपार न दृष्टि ही जाती है और न जिज्ञासा. अंत में यही दृश्य शुद्ध पारदर्शी नीलिमा में परिणित हो जाता है, जो श्रेष्ठता व भगवत करुणा की प्रतिष्ठा का प्रतीक है. अभिरंजित आभा जब सत के प्रकाश से सम्भोग करती है तभी यह दृश्य आभासित होते हैं. इस ज्योतिर्मयी आभा की प्रतीकी यह है कि इसकी बीथिका का संयोग यदि स्कंध के दाहिनी ओर बाहुमूल से मिलता हो तो यह ज्योति उस देव-दूत का प्रतीक है जो कि अच्छे संस्कारों को अंकित करनें के लिए नियुक्त है. यदि स्कंध से निपट सटा हुआ न हो तो यह अपने सदगुरुदेव की है. यदि इसका प्राकट्य प्रतिमुख या पुरोभाग में हो तो प्रतिष्ठित ईश-दूत या दुसरे अवतारों की है. यदि इस ज्योति का अविर्भाव बांयी ओर से हो और स्कंध से मिला हुआ हो तो यह अभिव्यक्ति बाम-भाग के देवदूत का है जो बुरे कर्मों को लिखती है या संस्कार बनाती रहती है. यदि वोह स्कन्ध के बाहुमूल से निपट सटा हुआ नहीं है तो जान लेना चाहिए कि यह तमोगुण-मयी सत्ता की है, जिसको काल-शक्ति कहते हैं. इसी प्रकार यदि बाम दिशा से किसी छवि या आकृति का आभास हो तो यह तमो-गुण-मयी भ्रान्ति है, और यदि ऊपर या पीछे की ओर से प्रकट हो तो समझना चाहिए, यह उन देवताओं का प्रतीक है जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सम्हाल करते हैं, जैसे - विष्णु, ब्रह्मा, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि. यदि इन आभासों की दिशा, निश्चित न हो सके, या उसका ज्ञान न हो, उससे आतंकित हो अथवा छवि के लोप हो जाने के उपरान्त सतत उपस्थित का भाव शेष न रह जाय तो समझना चाहिए कि यह निम्न-तमोगुण-मयी सत्ता का खेल है. किन्तु यदि छवि के दर्शन के मध्य शान्ति आभासित हो और जब वोह आकृति लोप हो जाय तो उसके चले जाने का दुःख और पुनःमिलन की ललक हो, तो यह शद्ध शाश्वत भागवत ज्योति है और उसका प्राकट्य है. यदि बक्ष के ऊपर या नाभि के ऊपर से प्रकट हो तो यह भी मायावी जाल समझना चाहिए. किन्तु यदि ह्रदय के ऊपर से अवतरित हो तो यह उसकी सफाई के मिस है.

यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य बात और नेक सलाह यह है कि सच्चे जिज्ञासु को चाहिए कि इन द्रश्यों की न तो कल्पना करे और न इन बातों पर ध्यान ही दे. क्यों कि यह मार्ग के मध्य की बातें हैं, गंतव्य या शाश्वत सत्य से इनका कोई सरोकार नहीं. इन सबको देखता भालता हुआ निकल जाय, क्यों कि यह मारिचिकाएं हैं, जो माया का स्वरूप हैं.

सत्पद का साक्षात्कार

कुछेक ज्ञानी कहते हैं कि जब निम्न-प्राण-मय चेतना के स्थान पर चैत्य-अभीप्सा की प्रतिष्ठा हो जाती है, और अभ्यासी अपनी असंतुष्ट इच्छाओं से होने वाली निराशा, अवसाद, असंतोष, दुःख, परिवाद(अन्याय की भावना), विद्रोह, अकर्मण्यता और तमस, शुष्कता, उदासी और साधना की समाप्ति या विराम जैसी अहंकार-केन्द्रित या उसके किसी भाग द्वारा किये गए विद्रोह से छुटकारा पा लेता है तब प्राणमय सत्ता का परात्परा-शक्ति से उत्सर्ग हो जाता है, जहां उसका उस परम सत्य के प्रति एकनिष्ट समर्पण होता है जिसमे मांगों और दावों का प्रवेश तक नहीं हो सकता. चैत्य-पुरुष, आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ भगवान् की अभीप्सा करता है. उसे जिस वस्तु की खोज है और जिसे वोह पाता है वोह प्राण या भौतिक मांगो की तुष्टि का आनंद नहीं है. सच्चे सामीप्य का अनुसंधान उसे करना होता है जिससे हृदय के अन्दर भगवान् की सदैव सतत उपस्थिति बनी रहती है और सारी प्रकृति में भगवान् का राज्य प्रकट हो जाता है; अतिमानसिक ज्योति शक्ति और चेतना की एक अविरल धारा के सद्रश्य, अपने सम्पुर्ण आवेग के साथ सम्भोग करती है और अतिमानसिक कोष पर्याप्त तीव्रता के साथ अपने आप को उसमें प्रकट करता है, अपने चारो ओर व्याप्त भगवान् के साथ चेतना और क्रिया दोनों में पूर्ण तादातम्य स्थापित हो जाता है.

इसी प्रकार संतों का भी यह विश्वास है कि जब अभ्यासी का मन व अंतःकरण मल, विक्षेप और आवरण से निर्दोष हो जाता है और निम्न-प्राण-मय वासनाएं शेष नहीं रहतीं, जाप में डूब कर चैत्य की सतत उपस्थिति रहती है तो ऐसी स्थिति में उसको एक प्रकार की तन्मयता आ जाती है और अतीन्द्रिय संवेदी मंडलों से संपर्क स्थापित हो जाता है और इस सम्बन्ध की प्रतिक्रया-स्वरुप स्रष्टि का नाद-श्रव्य हो जाता है, उसका अंतर दिव्य-ज्योति से भर जाता है और इसी आभा के बीच वोह सतपद का साक्षात्कार कर लेता है. सारे द्वंद स्वतः ही मिट जाते हैं तथा विश्वास की नित्यता उसे प्राप्त हो जाती है. इस समय वोह परमात्मसत्ता की इच्छा और आदेश, दोनों से परिचित हो चुका होता है जिसके फलस्वरूप द्रश्य और स्थूल-शरीर व इन्द्रियों से छिपी हुई बातों और गुप्त रहस्यों को देख-परख सकता है. इस स्थिति को प्राप्त साधक अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर इस असार संसार से पार हो जाता है.

कुल इन्द्रियों और अंतःकरण में जो जो उद्वेग और विचार जन्म लेंगे वे द्विकर्मक - पारखी होंगे अर्थात यदि वे घटना के अनुकूल हैं तो वोह 'सत' होंगे और यदि इसके विपरीत घट्नानुकूल न होंगे तो असत या झूट.

एक सम्प्रदाय अद्वैत-वादियों का है, जिसकी मान्यता है कि सभी जीव ब्रह्म हैं; जो कुछ है वोह सब ब्रह्म ही है. इस लिए इन लोगों की मान्यतानुसार इस सिद्धांत को मान्यता दी जाती है कि जिस प्रकार सत्पदार्थ, 'सत' के ही अद्वैत रूप हैं, उसी प्रकार असत पदार्थ भी उसी सत के अद्वैत रूप ही हैं. उनका तर्क है कि सत और असत दोनों उस एक ही स्रोत से निकले हैं और दोनों ही उसी के रूपांतर हैं अतः असत और माया को नकारा भी नहीं जा सकता है और इस प्रकार इसे भी मान्यता मिल जाती है.

सत कभी कभी मानव आकारों में भी प्रकट होता है, जैसा कि श्रीमन मुईनुद्दीन जुवैदी का संकेत है (यद्यपि कि नासमझ लोग इसे स्वीकार नहीं करते) कि समष्टियाँ और आंशिक अहंकार्मयी प्राणिक सत्ता में विवेक-परख चेतना के मध्य उनमें उस 'स्वच्छंद-सत्ता' की प्रतिष्ठा करें. परम-सत्य की प्रकृति ज्योतिर्मयी और आनंदमय है. प्राणमय सत्ता को भगवान् की सेवा में उत्सर्ग कर दिया गया और उस परम सत्ता के प्रति एकनिष्ट समर्पण कर दिया गया, तो आत्मा उस समय, एक दर्पण की स्वच्छ हो जाती है. अतः अब वहां जो कुछ भी द्रष्टिगोचर हो, वोह सकल हो या अंश, सभी कुछ यथा-योग्य देखें. वास्तविकता जब है, तो उसकी कृत्रिमता भी है; अस्तित्व जब है तो उसके गुण भी हैं. अच्छा-बुरा, प्रकाश-अन्धकार; आशय यह है की जो कुछ भी जगत है वोह सब उसी परात्परा-शक्ति की चेष्टा के परिणाम-स्वरूप है और सबके आविर्भूत और प्राकट्य का कुछ न कुछ कारण अवश्य है. वैज्ञानिक द्रष्टिकोण यह है की प्रत्येक के होने का भेद स्पष्ट हो जाय और यथा-स्थान उनका उचित प्रयोग करें. निराकार यदि है तो साकार भी है. निराकार में आस्था रखने वाले साकार से भाग कर कहीं जा नहीं सकते; कहीं न कहीं वे साकार का उदघाटन भी करते हैं, क्यों कि यह उनकी विवशता है. यह बात अलग है कि अपनी हठ-धर्मता के कारण इस सच को स्वीकार न करें. अतः आप्तजनों का यह वचन कि 'सत' कभी-कभी मानव आकृतियों में भी प्रकट होता है, मिथ्या नहीं है. अतः उस स्वच्छंद सत्ता के एक विशेष विभूति के रूप में दर्शन करना चाहिए.

इस विषय पर कि अभ्यासी की सत्य-सत्ता, को उस अतीन्द्रिय-संवेदी परात्पराशक्ति का स्पर्श-सुख और सतत उपस्थिति, निरंतर और अबाध रूप से अनुभव करती है, अथवा नहीं - तत्व-विदों का आपस में मतभेद है. एक सम्प्रदाय का दावा है कि यह सतत साक्षात उपस्थिति उस  के लिए निरंतर और अबाध रूप से उपलब्ध है तो दूसरा इसका खंडन करता है. एक ब्रह्म-ज्ञानी का संकेत है कि उपस्थिति का साक्षात्कार आवृत ज्योति के सद्रश है. कुछेक आप्त-जनों का वर्चस्व है कि ज्ञानी और द्रष्टि-मार्गियों को निरंतर दर्शन होता रहता है जब कि अन्य का अपना अनुभव है कि ऐसा सदैव नहीं होता. इसी सन्दर्भ में एक तत्वग्य ब्रह्मज्ञानी महोदय का वक्तव्य है कि ज्योति की उपस्थिति आवरण के मध्य में केन्द्रित है.

साक्षात दर्शन अर्थात 'आँखों देखी गवाही' एवं विश्वास का होना, 'ज्योति' के अस्तित्व को तो अवश्य सिद्ध करती है, किन्तु यह ज्योति, मात्र क्षितिज सद्रश है; वास्तविकता नहीं है, क्यों कि सत्य-सत्ता रस, रूप, रंग, गंध और स्पर्श से परे है - योग-शास्त्र में उसे अतीन्द्रिय-संवेदी कहा गया है; और ज्योति, सूक्ष्म माया है. साक्ष्य और द्रष्टि में कुछ अंश ज्योति का है और कुछ अंश स्वाभाविकता का. अध्यात्म-ज्योति दो प्रकार की है; एक निजी आत्मिक और दूसरी स्वाभाविक, जिसमें स्थायित्व नहीं है.

आत्मज्योति सत का अलख और अगम स्वरूप है, जो देखनें समझनें और थाह लेने में नहीं आ सकता है. उसका कोई आकार नहीं है. माया में यह विशेषताएं नहीं हैं. वोह अपना प्रथक अस्तित्व रखती है, और स्वाभाविक ज्योति गुणों के सहित द्रष्टि में आती है, चाहे वोह अंतर्मुखी आँखों में आवे या बाहरी जगत में. संभवतः, भ्रम यह है कि जिस एक सम्प्रदाय का यह एक मत है कि ज्ञानी के लिए साक्षात्कार सदा-सर्वदा नहीं है, ज्ञानी वही है जिसको आत्म-ज्योति प्राप्त है, जहां नाम और रूप दोनों नहीं हैं, तब उसके लिए स्वाभाविक ज्योति अर्थात गुणों सहित प्रकाश कोई अर्थ नहीं रखता और उसके मिस ऐसी ज्योति ओझल हो जाती है अथवा अभ्यासी ऐसी ज्योति की परिधि से आगे चला जाता है. उसके लिए सचमुच साक्षात्कार नहीं है. किन्तु (अपने निजी अनुभव के आधार पर) मेरा निवेदन है कि साक्षात्कार आवश्यक है; और आत्मिक ज्योति से साक्षात्कार अर्थात 'सत' और 'यथार्थ' का है, जो चिर स्थायी है. स्वाभाविक ज्योति का साक्षात्कार उसके लिए समाप्त हो गया. ऐसा दर्शक (अभ्यासी) जो अभी स्वाभाविक ज्योति और माया की परिधि और सीमा से आगे नहीं गया है (उसके लिए) आत्मिक और स्वाभाविक दोनों ही साक्षात्कार महत्वपूर्ण हैं. प्रथम तो वोह जिसको देख रहा है और द्वितीय वोह जो आगे चल कर आएगा. सारांश यह है कि आत्मिक ज्योति के अस्तित्व को कृत भी कह सकते हैं और अकृत भी. जो है भी और नहीं भी है. स्थिति यह है कि जब मन और बुद्धि दोनों केंद्र सम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात जब चैत्य पुरुष अपनी निजी समचित्तता या अति भौतिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है, प्राणिक इच्छाओं  की सत्ता में चतुर्दिक मार्जन हो जाता है और जब उपांशु अपनी स्वाभाविक अवस्था में क्रीड़ारत होता है. तब अपने ह्रदय के भीतर उस परमपुरुष की अलौकिक रूप-आभा, जिसकी ज्योति से अनंत ब्रह्मांड जग-मग हो रहे हैं, उस वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार होता है; "ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत" की यही अनुभूति है. इसके परिणाम-स्वरुप जो प्राप्ति होती है वोह जाती नहीं; हाँ यह अवश्य है - ज्योति कभी द्रष्टिगोचर होती है और कभी उसकी अनुभूति नहीं होती, कभी तो उसका प्रवाह बहुत तीव्र होता है और कभी सौम्य और सहज.

चैत्य पुरुष जब भगवान् के साथ आंतरिक ऐक्य और समर्पण के साथ अभीप्सा के परिणाम-स्वरुप जिस ज्योति के वोह साक्षात्कार करता है तो उसकी निम्नलिखित अवस्थाएं होतीं हैं-

-बहिर्मुखी चेतना का अपने अस्तित्व में लोप हो जाता है. वोह निडर, निष्प्रभावी और उदासीन सा दिखता है;
-निजी अस्तित्व की चेतना और इस स्थूल काया का आभास लोपप्राय हो  जाता है;
-चित्त की एकाग्रता एक ओर लग कर रह जाती है व शेष सभी उद्वेग शांत हो जाते हैं;
-लय की वोह अवस्था जिसमें अभ्यासी अपनी भिन्न-सत्ता की प्रतीति से परे हो जाता है.

यह सभी स्थितियां ऐसीं हैं जिनका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता. इन स्थितियों में सत्य की सत्ता के अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं होता.

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अन्तः सलिला सर्ग

लक्ष्य प्राप्ति का प्रमुख मार्ग - सदाचरण 

किसी भी प्रकार की चमत्कार प्राप्ति की इच्छा से विरत रहना चाहिए और जैसा अभ्यास बताया गया है, उसके बारे में चिंता करनी चाहिए.

सूफी संतों के अनुसार चित्त की एकाग्रता का होना एक आवश्यक अर्ह्यता है. जब तक ह्रदय स्वच्छ न हो उस समय तक कार्य संपन्न नहीं होता. ह्रदय का डावांडोल रहना एक ऐसी बाधा है जो काम बनने नहीं देती. यदि ह्रदय के दर्पण को ठहराव न हो तो मुखाकृति क्यों कर स्पष्ट हो सके. सबसे बड़ा दुःख द्वान्दावस्था है. तात्पर्य यह है कि दो अलग - अलग स्थितियों से अन्तःकरन में व्याकुलता रहना. यही स्थिति, दुःख का सबसे बड़ा कारण है. भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति ही पाप का कारण है और यही दुई है जो ऐक्य भावना के सर्वथा विपरीत है. अद्वैत-वाद क्या है, और द्वैत क्या है?

आँखों में, ह्रदय में, प्राण में, रोम-रोम में बस प्रीतम की ही छवि, प्रीतम की ही धुन छाई रहती है. उस समय संसार बस अपने साजन "हरि" की ही परछाईं के रूप में हेई रह जाता है, संसार का संसारत्व मिट जाता है, अपनें राम के नाते सभी कुछ सुहावना प्रतीत होने लगता है. सती के सामान प्रभु में अचल प्रेम हो जाता है और सब कुछ "सिया-राम मय" हो जाता है. संसार को मारने, जगत को मिटाने का सबसे यही सुन्दर साधन है कि सब कुछ भगवान् में समर्पित कर दिया जाय, सब का महत्व हरि से जोड़ दिया जाय. उस समय संसार नहीं रहता, केवल हरि रह जाते हैं.

यह न द्वैत है न अद्वैत. पत्नी के लिए पति, द्वैत और अद्वैत से परे का आनंद ले क़र आता है. उसमें द्वैत का आनंद और अद्वैत की विरति, धूप-छाँव की भांति घुली-मिली रहती है. पत्नी का कोई निजी व्यक्तित्व नहीं होता; वोह पति की अर्धांगिनी बन जाती है, उसी में विलय हो जाती है. इस अर्थ में तो वोह अद्वैत है. परन्तु पत्नी का धर्म, पति को सुख पहुंचाना, उसके सुख-सम्भोग को पूरा करना भी तो है, इस अर्थ में वोह द्वैत है. इसे द्वैत की अद्वैतता और अद्वैत के द्वैतता कह सकते हैं.

उस सनातन दिव्य सत्ता के स्पर्श में आ जाना, उसे सर्वत्र और सर्वदा अनुभव करना ही मानव-जीवन का चरम उद्वेश्य है. यही अनात्म का आत्म में प्रवेश करना है और इसे कहते हैं आत्म-साक्षात्कार. उपनिषदों ने 'आत्मानं  विद्धि' अर्थात 'अपने को जानो' को ही "डंके की चोट" कहा है. हमारे ऋषि-मुनियों ने भी बार बार इसे ही दोहराया है. भगवान् से यदि परिचय नहीं हुआ तो यह जन्म व्यर्थ गया. सांस-सांस में "सांईं" का स्मरण न हुआ तो संसार में आना व्यर्थ हुआ. यही ऋषि-मुनि, संत-महात्माओं ने बार-बार सुझाया है. भगवान् के अतिरिक्त, सार वस्तु कोई है ही नहीं. हरि से ह्रदय का ग्रंथि-बंधन न हुआ तो जीवन से क्या लाभ? संतों ने अपने भीतर भगवान् की झांकी पायी और समस्त चराचर  में उसी एक परमात्म सत्ता का साक्षात्कार किया. इस अमृत मंथन से जो कुछ उन्हें मिला वे प्रसाद रूप में छोड़ गए.इन्ही के क्रमवद्ध संकलन को दर्शन-शास्त्र कहते हैं.

शास्त्रीय पुस्तकों में जिस चक्र को जिस विधि और युक्ति से बेधनें के लिए अभिहित किया गया है उसी के अनुसार अभ्यास करें और उसके अतिरिक्त किसी दूसरी ओर ध्यान न जाय. अपने आचरण में ऐसी आस्था और लगन होनी चाहिए की अभीष्ट की प्राप्ति के बिना चैन न मिले.

[इसी बात को पुनः इस प्रकार समझ लें कि] साधक को चाहिए कि यदि वोह किसी अभ्यास को कर रहा है तो सर्वप्रथम उसे चाहिए कि वोह उस साधना की प्रक्रिया और प्रयोग का विधान, पुस्तकों में देखे और जिस अभ्यास में वोह क्रियारत है उससे उसका मिलान करके देखे कि वोह उन सिद्धांतों के अनुकूल है या नहीं. यदि वोह शास्त्रानुसार सही मार्ग पर अग्रसर है तो अपनी एकाग्रचित्तता को पूर्ण निष्ठा और आस्था के साथ इसी अभ्यास को अंगीकार कर ले और गंतव्य से पूर्व विश्राम न ले.

किन्तु यह अनुरक्ति भी सुगम नहीं है. इसको प्राप्त करने में प्रायः मृत्यु से साक्षात्कार जैसी मनोस्थिति हो जाती है. अतः किसी भी प्रकार की दुविधा में न पड़ जाँय और साधन सिद्धि में किसी प्रकार की आशंका न करें. क्यों  कि अधिकतर ऐसे व्यक्ति देखनें में आये हैं कि जिस साधन पर वे अधिकार करने जा रहे हैं, उस के अभ्यास में जब उपयुक्त प्रकार की भयावह अनुभूति उन्हें होती है तो वे दुविधा में पड़ जाते हैं कि अब आगे इसे करें या न करें और पुनः अभ्यास को करने तथा दूसरे अन्य कामों पर उसको वरीयता देते हुए घबराते हैं.

मंतव्य यह है कि इस दिव्यानुभूति और अवस्था की प्राप्ति में ही व्यक्ति की गरिमा है. अतः मेरा पुनः साग्रह  निवेदन है कि अभ्यासी अपनी पूर्ण आस्था से अपने आप को इस ओर प्रेरित करे कि वोह अपने अन्य दायित्वों व कर्तव्यों या दूसरी चिंताओं से मुक्त हो, एकेश्वर-वाद के सूत्र की ओर उन्मुख हो और निर्दिष्ट जाप, ध्यान व प्रेम के अभ्यास में तत्पर रहे. कुछ दिन भजन, पूजन, पाठ, अनुष्ठान के कर्मकांड आदि में संलग्न रह कर सुफल लाभ करें; साधन मार्ग के विघ्नों से सावधानी-पूर्वक बचें और रात-दिन अपने आप को लय अवस्था में लाने का प्रयत्न करें, तब आशा है कि उस आदि-शक्ति का उन्मेष उस व्यक्ति को अपने अहम् से मुक्त करा कर सामीप्यता और सारूप्यता की सीमा तक पहुंचा दे. उस स्थिति में वोह केवल उस ईश्वर को और उसके गुणों को देखेगा. उसे सब ओर उसी का प्रभाव दिखाई देगा और सम्पूर्ण कृतित्व उसी का प्रतीत होगा.

जिस क्षण हमारा यह अनुभव तीव्र और व्यापक हो जाता है; हम अपनी आत्मा के सत्य-स्वरूप में पहुंचते हैं और वहां स्थित हो कर सृष्टि पर दृष्टि डालते हैं तो सनातन रास-रस की कुछ झलक मिलती है. इसी को आत्म-रमण या आत्म-रति कहते हैं. आत्मा का आत्मा से रमण, प्राणेश्वर कृष्ण का राधा रूपिणी आत्मा में रमण यही है. यही भूमा का आनंद है, यही "रसो वै सः" है. यही एकमात्र रस है. यही चन्दन और पानी का संयोग है, जिसकी सुगंधि, जिसकी बास अंग-अंग में विश्व के कण-कण में समाई हुयी है. यही दीपक और बाती का संयोग है जिसका तेज, जिसका प्रकाश, जिसकी ज्योति चराचर को दिन-रात जगमग किये हुए है.

यह आनंद, यह सुगंधि, यह ज्योति हम सभी के हृदयों में छिपी हुयी है. मिलन तो सर्वत्र हो रहा है - "सब घट हौं बिहरौं". इसी प्रकार; "सब घट मेरा सांयियाँ, सूनी सेज न कोय". आत्मा की कोई भी सेज सूनी नहीं है. 'वोह' सब में बिहर रहा है, रमण कर रहा है. सर्वत्र रास छिड़ा हुआ हुआ है.

ह्रदय चक्र विवरण 

जो महापुरुष प्रतिष्ठा-सम्पन्न हैं, अर्थात जिन्हें साक्षात्कार हो कर उस स्थिति की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे व्यक्ति जो अवतारों के उत्तराधिकारी और पीठासीन अधिष्ठाता (अहले तम्कीन और कायम मुकाम) कहलाने योग्य हैं; यदि कोई व्यक्ति इन आप्त पुरुषों की राह पर चलना चाहे तो वस्तुतः बिना चक्र-विद्या, अर्थात 'कमलों' का ज्ञान प्राप्त किये उनका मार्ग सुलभ हो पाना संभव नहीं है. सीधा मार्ग वोह है, जिसमें न कोई कष्ट है और न कोई भटकाव. यह बिना चक्रों और 'कमलों' के ज्ञान के असम्भव और सारहीन भी है. तात्पर्य यह है कि चक्रविद्या अर्थात "मंजिलों" और आकाशों का ज्ञान परमात्मा की बड़ी देन है जो ईश्वर ने सूफी संतों को दी है.

इस स्थूल और पिंड-शरीर के हृदयाकाश में पांच केंद्र स्थापित किये गए हैं जो इस शरीर के श्रेष्ठ-लोक अर्थात 'अंड' के पांच केंद्र निर्दिष्ट किये गए हैं; ये केंद्र इस प्रकार हैं -
०१- ह्रदय चक्र
०२- आत्मा चक्र
०३- शेष चक्र
०४- गुप्त चक्र
०५- प्रकट चक्र
हज़रत ख्वाजा शाह बहाउद्दीन साहब नक्शबंद (ईश्वर की उन पर कृपा हो) से पूर्वगामी संत और महात्मा, गुदा-चक्र को ले कर अभ्यास प्रारम्भ किया-कराया करते थे. किन्तु आपने आदेश दिया कि आगे से, निम्न व मर्त्य-लोक के स्थूल चक्रों पर अभ्यास कराना छोड़ दिया जाय. ह्रदय चक्र के दिव्य आकाश के चक्रों को जागृत किया जाय और उसका क्रम इस प्रकार निश्चित किया कि ह्रदय चक्र से प्रारम्भ करके क्रम-बार, एक के पश्चात दुसरे, उन सब पर शक्तिपात किया जाय और जब इसकी इति हो जाय तब प्राणबिंदु के स्थान पर जिसको प्राण-वायु भी कहते हैं, प्रारम्भ किया जाय.

पुराने नक्शबंदी संत जिनका कि हज़रत शेख अहमद मुजद्दिद अल्फ्सानी (ईश्वर की उन पर कृपा हो) से संपर्क नहीं है, ऐसा ही कहते रहे हैं. शाह बहाउद्दीन नक्शबंद (ईश्वर की दयालुता उन पर हो) की वाणी है -

"अव्वले माँ आखिरे हर मुतहिस्त;
आखिरे माँ जेबे तमन्ना तिहीस्त"

(दुसरे आप्त पुरुषों व संतों के मार्ग में ब्रह्म-विद्या की शिक्षा का जो चरम बिंदु है, हम वहां से प्रारम्भ करते हैं, और हम जहां इति करते हैं, वहां की स्थिति यह है कि हमारी जेबें (pockets) और संचिकायें, सभी प्रकार की वासनाओं, आकाक्षाओं और इच्छाओं से शून्य होती हैं, वहां कुछ भी नहीं होता).

इस श्रंखला में आप के बाद जो संत हुए वे कुछ न कुछ संशोधन और सरलीकरण करते आये और जिस परिपक्वता का ज्ञान उन्हें चक्र-विद्या से होता गया, वे उसी प्रकार निर्बाधता, आसानी व कम-से-कम समय लगने के विचार से निर्दोष संशोधनों के द्वारा निर्बाधता तथा सरलता को अपनाते गए.

इन्ही सुधारवादी संतों के क्रम में हुए एक  महान संत, जिनका नाम भी इस सिलसिले के नाम के साथ जुड़ कर इसका नाम - 'नाक्श्बंदिया-मुजद्ददिया' हो गया. आप का शुभ नाम नाम था हज़रत शेख अहमद मुजद्दिद अल्फ्सानी सरहिन्दी (ईश्वर की उन पर दया हो). सबसे बड़ा और महत्व-पूर्ण संशोधन आपने अभ्यास की विधा में आविष्कार किया जो कि आगे चल कर उपयोगी सिद्ध हुआ.

आपने ह्रदय चक्र (क्षेत्र) के आकाश, अर्थात दिव्य सत्ता के मात्र एक चक्र, ह्रदय को ही पर्याप्त समझा व जिसके 'विचार' पर आत्म-शक्ति का दक्ष आवेग प्रवाहित करने का अनुदेश इंगित किया. अन्य चक्र इसकी परिधि में आ गए. इसके बाद तुरंत ही प्राण-वायु और प्राण-बिंदु को ले कर वहां पर प्रथम चरण स्थापित करना व तत्पश्चात दुसरे चरण का उरूज़ सह्स्त्रदल्कमल व त्रिकुटी के स्थान पर निर्दिष्ट किया.

हृदयाकाश के निम्नलिखित पांच स्थान महत्वपूर्ण हैं -
(०१) ह्रदय चक्र - बाईं ओर बक्षोज के नीचे की ओर जहां हृदय की धड़कन का आभास होता है.
(०२) आत्मा चक्र - दाहिनी ओर बक्षोज के नीचे.
(०३) शेष चक्र - हृदय चक्र के थोड़ा ऊपर की ओर.
(०४) गुप्त चक्र - आत्मा चक्र के ऊपर की ओर.
(०५) प्रकट चक्र - गुप्त चक्र और शेष चक्र के ऊपर की ओर, मध्य में. हिचकी भर आने पर जिस स्थान पर उसका आभास होता है.

बाईं ओर हृदय की धड़कन का आभास होता है; इस कारण से यहाँ पर धड़कन और (उसकी) ध्वनि अधिक प्रतीत होती है. दाहिनी ओर यह अधिक स्पष्ट नहीं प्रतीत होती, अन्यथा आभास सा होता है की धड़कन है किन्तु ऐसी अशक्त कि कठिनाई से पता चल पाता है और किन्ही अभ्यासियों को इसका पता नहीं भी चलता है. शेष चक्र की स्थिति का कभी आभास होता है और कभी नहीं भी हो पाता.

यह हृदयाकाश ही प्रमुख साधना का स्थान है, जहां आत्मा (परमात्मा) का निवास है. इस आकाश को इसी लिए साधना का केंद्र मानते हैं.

सुरति

मुंडकोपनिषद में एक प्रसंग आया है कि महर्षि शौनक, विधि-पूर्वक  श्रंग्विराऋषि  की शरण में गए और वहां जा कर उन्होंने प्रश्न किया - "भगवन! किसको जान लेने पर सब-कुछ जाना हुआ हो जाता है?" इस पर श्रंग्विरा ऋषि ने निर्दिष्ट किया - "जानने योग्य विद्याएँ दो हैं - एक 'अपरा' और दूसरी 'परा'. इनमें से 'अपरा' विद्या तो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष हैं और परा वोह है जिससे उस अक्षर ब्रह्म को जाना जाता है." यह कह कर उस अक्षर-ब्रह्म को समझाने के लिए श्रंग्विराऋषि ने उस गुण और धर्मों का वर्णन करते हुए कहा - "जो इन्द्रियों द्वारा अगोचर है, पकड़ने में आने वाला नहीं है, जिसका कोई गोत्र नहीं है, वर्ण नहीं  है, जो आँख-कान तथा हाथ-पैर से रहित है, नित्य व्यापक, सर्वत्र परिपूर्ण, अत्यंत सूक्ष्म और सर्वथा अविनाशी है. उसको धीर पुरुष देखते हैं, वोह समस्त भूतों का परम कारण है".

यदि कोई यह जिज्ञासा करे की ब्रह्म जो स्वम बिना किसी आधार के चेष्टारत है, जो मन बुद्धि की सीमा से परे है, उसका ज्ञान क्यों कर होने लगा. क्यों कि जो तथ्य बुद्धि व्यापार के आयामों के अंतर्गत, और बोधगम्य है वोह पृकृति है, स्रष्टि है और छाया की भाँति हमेशा स्थिर नहीं रहता. जिसका आधार मन बुद्धि और इन्द्रियाँ हैं, वोह संसार है, माया है जिसका अस्तित्व निरंतर स्थिर नहीं रहता. शाश्वतता का गुण तो सत्पुरुष का है जिसको मन, बुद्धि व इन्द्रियों के माध्यम से जाना नहीं जा सकता है; अस्तु वोह निर्माण की सीमा से परे है.

जिज्ञासा महत्वहीन नहीं है. प्रश्न स्वाभाविक सीधासादा और तर्कपूर्ण है. किन्तु उपनिषद की उपर्युक्त वाणी में एक भेद है. करता प्रसंग में "धीर पुरुष" की बात कही गयी है, यह वोह प्रज्ञा-पुत्र है जिसनें अपनी निजी सत्ता की प्रतीति से परे की स्थिति प्राप्त कर ली है, वोह जो शुद्ध बुद्धि का स्वामी है. शुद्ध बुद्धि का लक्षण यह है कि उसमें परमात्मा का आश्रय, भगवान् का भरोसा अक्षुण्य रूप से बना रहता है. शुद्ध बुद्धि जगत को न देख कर जगत के स्वामी को देखती है. उसे प्रपंच का आवरण ढक नहीं सकता, माया की मोहिनी उसे मुग्ध नहीं कर सकती, क्यों कि उसे परमात्मा का प्रकाश, मायापति का बल प्राप्त है. प्रपंच को बेध कर, ससीम को चीर कर शुद्ध बुद्धि की विशुभ्र किरणें अविच्छिन्न रूप से परमात्म पद में प्रवाहित होती रहतीं हैं. शुद्ध बुद्धि, हरि के सिवा किसी का वरण ही नहीं करती, किसी की ओर देखती ही नहीं, कुछ स्वीकार ही नहीं करती. शुद्ध बुद्धि का यह स्वाभाविक स्वरूप है.

बुद्धि की यह स्वाभाविकता तभी तक अक्षुण्य रहती है जब तक साधक सतत, सतर्क एवं सावधान हो कर, अहर्निश भीतर से जागरूक हो कर, प्रभु के स्मरण, चिंतन, ध्यान का सहारा ले कर सदा सदैव अपने उद्वेश का ध्यान रखता है और उस की प्राप्ति के लिए निरंतर तत्पर रहता है.

इसमें भेद और रहस्य है तो मात्र इतना कि इस स्थिति में बोधगम्यता का अभाव है न कि अभाव की बोधगम्यता.(इद्राक का अदम है न कि अदम का इद्राक).

सत्पुरुष की स्थिति में अक्षुण्यता और शाश्वतता दोनों हैं जिसे जिज्ञासु, अभ्यास के माध्यम से प्रात कर लेता है. अभ्यास के रहस्य को समझनें के लिए यह जान लेना अनिवार्य है कि दो तत्वों के मिलाप और सम्पर्क के लिए, एक तीसरे अभिकर्ता की आवश्यकता होती है. जिसको मनोयोग और सुरत या 'सुरति' कहते हैं.

सूफी संतमत की साधना-पद्यति में जिज्ञासुओं को इस "सुरति" शब्द को गहराई से समझ लेना चाहिए. व्याकरण के अनुसार 'रति' में 'सु' प्रत्यय लगा देने से (सु+रति) 'सुरति' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है, भोग-विलास, काम-केलि, सम्भोग, अनुराग, स्नेह.

अर्थ की इसी व्यापकता के तहत, कबीर-साधना के तात्विक स्वरूप का दर्शन निहित है -

"पियु परिचय तब जानिये, पियु से हिलमिल होय.
पियु की लाली मुख परै, परगट दीसै सोय."

"सब घट मेरा सांइया, सूनी सेज न कोय.
बलिहारी वा घट्ट की, जा घट परगट होय"

"नयनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय.
पलकों की चिक डारि के, पियु को लिया रिझाय"

"नयनों अंतर आंव नू, नयन झाँपि तेहि लेवि.
ना मैं देखौं और को, ना तोहि देखन देंव".

"ज्यों तिरिया पीहर बसै, सुरति रहै पिय माहिँ.
ऐसे जा जग में रहै, हरि को भूलत नाहिँ."

'सुरति', मूलतः 'स्मृति' का अपभ्रंश रूप है. नाथ सम्प्रदाय में शब्दोंन्मुख  चित्त को "सुचित" कहा गया है. सुरति के साथ यह अर्थ भी जुड़ गया है. इस प्रकार 'कबीर' में 'शब्दोंन्मुख' चित्त को भी 'सुरति' कहा गया है. लगभग सभी संतों ने 'सुरति' को जीवात्मा का प्रतीक मान लिया है और उसको जीवात्मा रूपी दुल्हन के रूप में भी देखा है. इसी से "सुरति-कमल" की कल्पना "सहस्त्रार-कमल" से भी ऊपर की गयी है. 'शब्द' सुरति-योग का अंतिम प्राप्तव्य है. 

हमारे शरीर के अन्दर कोई वस्तु है जो इसके सम्पूर्ण अंग, नस नाड़ियों को शक्ति देती है और हमको जीवित रखती है. हम केवल उसके कारण जीवित हैं और जीवित रह कर काम-काज करते हैं. यह वस्तु हमारी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बनावट की मूल बन कर सब में धार के रूप में फ़ैली हुयी है और रक्त मांस आदि को गति दे रही है. इसी का नाम 'सुरति' है.

इसी मनोयोग और सुरति के उतार-चढ़ाव के माध्यम से जीव और ब्रह्म अथवा माया और ब्रह्म का सम्बन्ध होता है. यहाँ साधक जिस क्षण लय अवस्था, अर्थात उसकी निजी सत्ता भी उस अपार आनंद राशि में लय हो जाती है, उस समय जो चेतना उसे, उस परमात्म-सत्ता की ओर उन्मुख और प्रेरित करती है, वही तीसरा अभिकर्ता जिसकी क्रिया और गति दोहरी होती है. इसी को पुनः समझने के लिए और सरल रूप में  रख सकते हैं.

#  अभिकर्ता, जो संकल्प शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके संपर्क स्थापित कराने की क्रिया करता है, उसे चैत्य-
    पुरुष कहते हैं.
#  जो इस दिव्य-सम्बन्ध की स्थापना के संकल्प का करता है, वोह अभ्यासी या साधक है.
#  जो समग्र श्रद्धा और दिव्य सम्बन्ध की स्थापना का केंद्र है, वोह समस्त चराचर का स्वामी, ईश्वर और
    परमात्मा है.

लय अवस्था की स्थिति में यही सुरत (सुरति) और संकल्प शक्ति की ऊर्जा, अपने चारो-ओर व्याप्त भगवान् से सम्बन्ध स्थापित कराती है. यह ह्रदय के अन्तःपुर की लीला है. यही एकांत आनंद है, यही एकांत मिलन है, यही हमारा हरि के साथ अपना अनोखा "रास" (रहस्य) है. अपने भीतर समा कर उस छवि को निरखते हुए, प्रभु के पद संचारण की मधुर प्रक्रिया के अनुसार ही, उसकी प्रतिध्वनि के रूप में, तब हमारे प्राण-प्राण "रुन-झुन, रुन-झुन की झंकार" में अपनी गति को मिला कर, उसके आलिंगन में बंध कर, नृत्य-सम्मोहन में तल्लीन हो जाते हैं.

अहर्निश का यह मधुर मिलन हृदय के रेशे-रेशे में ओत-प्रोत होता है. बाहर-भीतर केवल प्रीतम ही रह जाता है. आँखें मूँद कर भीतर के संसार में, आँखे खोल कर बाहर की दुनिया में जहां भी द्रष्टि जाती है, केवल हरि ही हरि रह जाते हैं. स्वम भक्त की निजी सत्ता भी उस अपार आनंद-राशि में लय हो जाती है. उसे अपनी भिन्न सत्ता का कभी बोध ही नहीं होता.

स्मरण और समर्पण 

निश्चेतन विश्व में अंतरात्मा एक ज्योतिर्मय बिंदु है. श्रद्धा अंतरात्मा की गति है.

सद्गुगुरु के चरणों की नख-द्युति हमारे कोटि-कोटि जन्मों की संस्कारगत वासना को नष्ट करके हमें सच्चे अध्यात्म-पथ में प्रेरित और अग्रसारित कर देती है. गुरु-चरणों का आश्रय लेना ही सर्वोच्च साधन है. शिष्य में अध्यात्मिक लगन और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए. इसी उच्चतर चेतना को उतारने के मिस, शिष्य सदगुरु  की महत्तर ज्योति में, सर्वांगपूर्ण आत्मसमर्पण और उस सत्ता के प्रति एकान्तिक अत्मोदघातन करता है, सत्संग करता है जो धर्म की भावनाओं व संवेदनों के सर्वथा अनुरूप है. श्री गुरु में निहित उस चिन्मय सत्ता का लाभ, शिष्य को चाहे आमने-सामने प्राप्त हो अथवा किसी अन्य आत्मिक माध्यम से हो,  इसी चैत्य सत्ता के कारण ही मिलता है. श्री गुरु की चैतन्यमयी शक्ति और संकल्पशक्ति के प्रताप से ही शिष्य की संसार की समग्र व्याधियां मिट जातीं हैं और हृदय में अथाह प्रेम उपजता है.

साधना का यह मार्ग सबसे सुगम एवं दोषरहित है, सहज और शीघ्र लाभकारी है. किन्तु प्रायः ऐसे तामसिक एवं निष्क्रिय व्यक्ति भी मिल सकते हैं जो गुरु की सत्ता में विश्वास नहीं रखते और बिना सहारे ही उस दिव्य सत्ता की स्थिति को प्राप्त कर लेना चाहते हैं. सूफी साधुओं का यह दृढ़ विश्वास है कि जिस व्यक्ति का कोई इष्ट या गुरु नहीं, उसका गुरु, शैतान होता है. अतः प्रत्येक जिज्ञासु को चाहिए कि समर्थ सदगुरु को ढूंढें. किन्तु इस खोज में बड़ी कठिनाई होती है. साधारण जिज्ञासु यह निश्चय करनें में अपने आप को सक्षम नहीं पाता कि गुरु, समर्थ सदगुरु  है या कोई ढोंगी. वोह उस पुरुष की चैत्य-सत्ता (साहिबे हिम्मत) से परिचित नहीं हो पाता. इस प्रकार अज्ञानता की स्थिति में सक्षम को अक्षम और अक्षम को सक्षम समझ कर दोनों ही स्थितियों में वोह जिज्ञासु अनिष्ट का ही भागीदार बनता है.

महामना समर्थगुरु सरफुद्दीन मनेरी (ईश्वर की उन पर दया हो) का इस विषय पर उपलब्ध एक सन्देश इस प्रकार है - "अंततः ईश्वर की निरंतर यह इच्छा रही है कि कोई भी काल और युग उसकी राह से परिचित आप्त -पुरुषों से न रिक्त रहा है और न भविष्य में रहेगा". अतः सच्चे जिज्ञासुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि जो भी सम-कालीन आप्त-पुरुष इस मार्ग पर अग्रसर हों और संतसदगुरु की प्रतिष्ठा से संपन्न हों, उनके पास निष्ठा-पूर्वक उपस्थित हों और उनकी आज्ञा और सानिध्य प्राप्त साधना में निर्विकार भाव से पर्याप्त काल तक चेष्टा-रत रहें. बीच-बीच में आत्मविश्लेषण भी करता रहे कि भांति भांति के भ्रम और अनेकानेक विचार हृदय को निरंतर ऊहापोह की स्थिति में बनाए रखते थे, वे कुछ कम हुए या नहीं अथवा आंतरिक स्थिति में कुछ परिवर्तन आया या ज्यों के त्यों अपनी पूर्व-वत स्थिति में ही हैं.

साधना का प्रधान धर्म है, ईश्वरोन्मुख होना. समग्र कर्म, सभी व्यापार, समस्त जीवन का प्रतिपल, हृदय का रेशा रेशा, शरीर का रोम रोम अपने इष्ट को अर्पण होना चाहिए.

श्रीगुरु तो स्वम भगवान् का स्वरूप हैं, उन्हें देखते ह्रदय उनका हो जाता है. जब अपने सत्य-स्वरूप का बोध हुआ तभी पियु को मैं अच्छी लगी. गुरु की दया से आत्मा अपने परम-पुरुष में मिल गयी. उस आनंद का क्या कहना? मुक्ति; मुक्ति तो वहां चेरी बन कर पानी भरती है. कर्मों का बंधन स्वम छिन्न-भिन्न हो जाता है. कर्मों का आश्रय तो अविद्या ही है. जब स्वम अविद्या ही मिट गयी, तो कर्मों का क्या पूछ्नाँ. वहां तो बस प्रेम ही प्रेम है. जब सच्चे प्रीतम को पा लिया तो आवागमन का झगड़ा कैसा.

भावनाओं और संवेदनों में जब इस प्रकार का विश्वास जड़ पकड़नें लगे और ऐसी अनुभूतियाँ बलवती जान पड़ें कि इस हाड़-मांस के पुतले को गुरु ने साधना-मार्ग में लगा कर कृतकृत्य कर दिया है तो ऐसे महापुरुष के प्रति जिनके लीला-विलास से यह परिवर्तन आया है, सारे मिथ्या तत्व का परित्याग करके उनके समक्ष सर्वांगपूर्ण आत्मसमर्पण करके अपने आप को धन्य कर लें.

और यदि, ईश्वर न करे, जिन महापुरुष को हमनें 'गुरु-रूप' में वरण किया है उनके सानिध्य में पर्याप्त काल तक सेवारत रहे, और इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी आंतरिक-स्थिति में लेश-मात्र भी परिवर्तन नहीं आया तो बिना किसी अन्यथा भाव और विचार के यह समझ लेना चाहिए कि हमारा भाग इस द्वार पर नहीं था और नतमस्तक हो, विदा ले कर अपनी खोज के मार्ग प़र अग्रसर, आगे बढ़ जाना चाहिए. अनुशासन की द्रष्टि से यहाँ विशेष अनुपालनीय तथ्य यह है कि इन पूर्व-लिखित महापुरुष के प्रति कोई अवज्ञा या दूषित विचार ले कर उनके द्वार से नहीं आना चाहिए क्यों कि ऐसा करना शालीनता के प्रतिकूल है.

सर्वांगीण  आत्मदान  (बै'अत)

जिह्वया और वाणी को बिना प्रयोग किये, प्रश्न करना परमार्थ का लक्षण है और बिना जिह्वया खोले उसका समाधान प्रस्तुत कर देना गुरु का विशेषण है. इस प्रक्रिया को द्रढ़ करने के लिए आवश्यक है कि शिष्य अपने अंतःकरण में समग्र संकल्प-शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके गुरु के प्रति आकर्षित होने की विवशता को प्राप्त करे. यह बिना दोनो पक्षों की और से सर्वांगीर्ण आत्मदान (बै'अत) के अम्भव नहीं हो पाता. यह एक अनिवार्य औपचारिकता (रस्म) है. गुरु की सेवा में दोनों ही प्रकार के जिज्ञासु - एक तो वे जो इस उपरोक्त औपचारिकता से संपन्न हैं और दुसरे वे जो साधारण जिज्ञासु उपस्थित होते हैं. इन सभी की आंतरिक भावनाओं का प्रतिबिम्ब गुरु के ह्रदय पर पड़ता है और उसी के अनुसार वे संतवर मुखरित हुआ करते हैं. गुरु की वाणी, शिष्य संस्कार  (बै'अत की रस्म) से संपन्न जिज्ञासुओं के लिए आचरण बन कर, वोह उच्चतर चेतना को उतारती चली जाती है, जब कि दुसरे अन्य साधारण जिज्ञासु के लिए वोह मात्र साधारण कथन ही होती है और वे उससे विशेष लाभान्वित नहीं हो पाते.

विचारों का प्रभाव, किसी भी लक्ष्य पर तीन प्रकार से पड़ा करता है - दर्शन, श्रवण और कथन. अध्यात्म क्षेत्र  में अग्रसर होने के लिए सर्वांगीर्ण आत्म दान की रस्म अनिवार्य घोषित करने की व्यवस्था इसी कारण की गयी है कि प्रत्येक अवस्था के दर्शन, श्रवण और कथन के समय सदैव साक्षी की उपस्थिति बनी रहे. साक्षी, तीन हैं - अपना मन, गुरु-लक्ष्य और मालिक का निज-रूप. निज-रूप ही सच्चा साक्षी है. गुरु उसी दृष्टि से उपदेश किया करता है किन्तु जिसका इन तीनों में से एक से भी सम्बन्ध नहीं होता वे उसको नहीं समझाया करते हैं, न उसका विश्वास ही कर पाते हैं क्यों कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से अपनी आंतरिक भावनाओं को कल्पना और भ्रम समझता आया है. निजस्वरूप की साक्षी का उसको न ज्ञान है न विश्वास. अतः उसे किसी ऐसे साक्षी की आवश्यकता होती है जो उसके शून्य और द्रश्य, दोनों के तात्विक स्वरूप को स्पष्ट कर सके. साक्षी ही शिष्य को बनाता है जो साक्षी को स्वीकार करे, वही हुतात्मा (शहीद) है. हुतात्मा वोह है जो ईश्वर की साक्षी, गुरु की साक्षी और अंतरात्मा की साक्षी को स्वीकार करे. यह तीनों ही अभ्यासी के संतोष के लिए आवश्यक हैं.

गुरु शाश्वत सांत्वना का उदगम है. शिष्य को उससे जोड़ने के लिए भावना रूप में एक संस्कार अपेक्षित है जिसे सर्वांगीण आत्मदान कहते हैं; इसमें होता है, समग्र आत्मदान - इस पिंडी-काया, मनोमय सत्ता और प्राणमय सत्ता का. शिष्य को चाहिए कि वोह श्री गुरु की ओर अपने को खोले रक्खे और उसके साथ पूर्ण एकत्व बनाए रक्खे. उनके संस्पर्श के प्रति अपने को सम्पूर्णरूप से नमनशील बनाए ताकि वे उससे शीघ्रता से बढ़ती हुई परिपूर्णता की ओर ले जा सके.

जब कोई सच्चा जिज्ञासु, किसी आप्त पुरुष (बुज़ुर्ग) के पास अभ्यास सीखने के निमित्त उपस्थित हो तो उस महामना को चाहिए की उसको, नित्य-प्रति, तीन दिन तक उपवास रखने का आदेश रखने का आदेश दे, यदि हो सके तो नितांत निराहार रक्खे, अन्यथा फल और दूध ग्रहण अकरने की अनुशंसा की जाती है. यदि इस्लाम धर्म का अनुयायी है तो एक सहस्त्र बार "ला इलाह इल्लिल्लाह" (कोई नहीं है बड़ा, सिवाय ईश्वर के), मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित मन्त्र का जाप करें, तत्पश्चात दुरूद शरीफ 'स्तुति और प्रणाम' -

"अल्ला हुम्मा स्वल्ले अला सैय्यदना मोहम्मदिन,
मादनिल-जूदे-वलक़रम व आलही व सल्लम"

के मन्त्र के जाप की संस्तुति करें. तीसरी रात्रि में स्नान करके और उपरुक्त प्रकार पवित्र हो कर के सदगुरु (शेख) की प्रतिष्ठा में उपस्थित हों उस समय उसको आदेश दें की वोह पवित्र-कुरान की प्रथम प्रार्थना(सूरे फातिअहः) -

"अऊजु बिल्लाहि मि नश शैत्वानिर्र रजीम !!
बिस्मिल्लाहिर्र रह मानिर्र रहीम !
अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन !
अर रह मानिर रहीम, मालिकि यौमिद्दीन !
ईयाक अबुदु व ईयाक नस्तयी न !
इह दि नस सिरातल मुस्तकीम !
सिरातल लज़ीन अन अम्त अलैहिम ;
गै रिल मगजूबे अलैहिम व लज्जु आल्लीन !!
आमीन!!"

(अनुवाद - पापात्मा शैतान से बचने के लिए मैं परमात्मा की शरण लेता हूँ. प्रथम  स्मरण करता हूँ अल्लाह का जो अत्यंत कृपालु व दयालु है. हर प्रकार की स्तुति भगवान् के ही योग्य है. 

वह परमपिता परमात्मा सम्पूर्ण विश्व का पालन-पोषण करने वाला, उद्धारक परम दयालु एवं परम कृपालु है. न्याय के दिन का वही मालिक है.

प्रभो! हम आप की ही आराधना करते हैं और आपकी ही शरण एवं सहायता के प्रार्थी हैं. हे दयानिधे! हमें उस प्रशस्त मार्ग पर ले चलिए जिस पर चल कर साधक आपकी कृपा, दया व प्रसन्नता के अधिकारी बने हैं, उस मार्ग पर नहीं जिस पर चल कर मनुष्य आपकी अप्रसन्नता और आपके दंड के भागी बने हैं अथवा जो भूले, भटके हुए हैं. ऐसा ही हो !!!)


तदोपरांत, 'शपथ लेने का मन्त्र' (oath of allegiance) और तन्मयता का मन्त्र (दोनों गोपनीय रक्खे गए हैं) इत्यादि गुरु द्वारा पढ़ी गयी इबारत को दोराएं (पढ़ें) और उनके श्री चरणों में शिष्य दोजानू बैठे. तब उसकी भावनाओं और संवेदनों से प्रभावित हो कर सदगुरु को चाहिए कि वोह परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता से सुसज्जित व चैतन्यमयी शक्ति के स्रोत से प्रवाहित वाणी में उच्चारण करे - "तूने सर्वांगीण आत्मदान किया मुझ वयोगत (ज़ईफ़) के हाथ पर और मेरे गुरुजनों के हाथ पर 'हज़रत पैगम्बर' (ईश्वर की उन पर दयालुता और पूर्णता हो) और उस देवता के हाथ पर जो सब को पवित्रता और प्रतिष्ठा देने वाला है, तू यह प्रण कर कि शरीर में रक्त की अंतिम बूँद तक सतत और सम्पूर्ण रूप से दिव्य सत्य का वरण और मित्थ्या का परित्याग करेगा". स्वम अपनी ओर से शुद्धतर प्रेम व समग्र श्रृद्धा उस परमेश्वर के प्रति समर्पित करेगा. इस क्रिया में गुरु अपना दाहिना हाथ शिष्य के दाहिने हाथ पर रक्खे रहे. इसके उपरान्त शिष्य को चाहिए कि वोह सम्पूर्ण संकल्प शक्ति और ऊर्जा को एकाग्र करके इस प्रकार उच्चारण करे - "मैंने सर्वांगीण आत्मदान किया और स्वीकार किया कि धर्म के सिद्धांत और मार्ग पर निरंतर अग्रसर रहूँगा और अपने चारों ओर व्याप्त भगवान्, व उस भागवत प्रभाव के प्रति और उसके अक्षर प्रेम के प्रति अपना ह्रदय देता हूँ". इसके बाद गुरु अपनी गुदड़ी (खिर्कः) से शिष्य को धन्य करे (उसे पहना दे). तत्पश्चात शिष्य को एकांत में बिठा कर गुरु मन्त्र दे जो उसके संस्कारों और प्रवृत्ति के अनुकूल हो. इसे गुरु-प्रदत्त नाम भी कहते हैं. 

गुरुमुख से प्राप्त नाम ही साधक का सर्वस्व है. नाम के रस में साधक सदैव छका रहता है. नाम एक विचित्र चिन्गारी है. आगे आगे यह संसार के सघन बन को जलाती जाती है और पीछे से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की वाटिका हरी-भरी होती जाती है.

यह एक ऐसा रहस्य-वादी आन्दोलन है जहां इश्वर से व्यक्तिगत संपर्क की पद्यति पर आधारित भक्ति, श्रद्धा,प्रार्थना और अध्यात्मिक-जीवन पर बल दिया जाता है. यहाँ सिलसिले को प्रमुख साधन मानते हैं. 'सिलसिले' से आशय है - 'सम्बन्ध', 'कड़ी'; एक गुरु के माध्यम से क्रमवार ऊपर चढ़ते हुए, उनके गुरु, उनके गुरु. पुनः उनके गुरु, इस प्रकार जो परम गुरु या आदिगुरू, स्वम परमेश्वरी सत्ता है, उससे सम्बन्ध स्थापित हो जाता है. अधुना गुरु अपना सम्बन्ध अपने गुरु एवं दादा-गुरुओं से स्थापित करा देता है अपनी शक्ति, क्षमता तथा साधन-सम्पन्नता के लिए अपने सिलसिले के इन आप्त-पुरुषों के प्रति दृष्टि लगाए रहता है. इस प्रकार वोह 'गुरुडम' और 'गद्दीवाद' से उत्पन्न अहंकार से बचा रहता है. जो कुछ उसके माध्यम से दुआ, आरोग्य, या अन्य चमत्कार आदि होते हैं, उसे वोह अपनें गुरु एवं दादा-गुरुओं (hierarchy) की शक्ति एवं कृतित्व मानता है. अपने आप को तो केवल निमित्तमात्र समझता है. इस प्रकार उसका अहंकार उसके आड़े नहीं आता. दूसरी ओर वोह अपने गुरु, दादा-गुरु के गुण-गान करते हुए और उनके नाम को उजागर करते हुए, सिलसिले का निःसंकोच प्रचार-प्रसार करता है.

पूर्ववर्ती विधा के अनुसार इस्लाम के सिद्धांतों को स्वीकार करने जा रहे जिज्ञासु की श्रृद्धांजलि अधुना गुरु के माध्यम से सीधे 'प्रतिष्ठित ईशदूत' (हज़रत पैगम्बर) के हाथ पर स्वीकार की जाती थी. इतना ही नहीं सर्वांगीण आत्मदान (बयत) की स्वीकृति के लिए गुरु को परम्परा के आप्तजनों से स्वप्न अथवा दिव्य-चेतना में उसकी आज्ञा भी प्राप्त करनी होती थी. इस सत्य को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेने में तनिक भी अविश्वास नहीं करना चाहिए क्यों कि इस नक्श्बंदिया सिसिले का पूर्ववर्ती नाम ही "ओवैसी', जिसका अर्थ-साधक अभिप्राय है - 'सिलसिले के आप्तजनों की मुक्त-आत्माओं से आध्यात्मिक-रूप से लाभान्वित होना'. हज़रत  ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंद (ईश्वर की दया उन पर हो ) स्वम हज़रत ख्वाजा अब्दुलखालिक गुज्दवानी (उनसे ईश्वर प्रसन्न हों) के उवैसी थे.

श्रुति सर्ग

जाप

ब्रह्मज्ञानी (सूफी) के अनेकानेक कर्म और वचन, जिनमें याद, चेतना, और ज्ञान का संचार हो, जाप (ज़िक्र) के अंतर्गत आते है; जाप के समक्षणिक ध्यान जारी रहना चाहिए, केवल 'जाप' या कोरे-जाप से कोई लाभ नहीं होता. जाप करते समय जिस 'शब्द' का जाप करते हैं, उसके अर्थ का ध्यान रहना चाहिए और यह ध्यान भी करना चाहिए क़ि गुरुदेव सम्मुख बैठे हैं, आदि, आदि. जहां ऐसा न हो, उस कर्मकांड को 'जाप' की संज्ञा देना उचित नहीं. जाप और शब्द में विस्मृति और सुध (भूल और गफलत) का अभाव होता ही नहीं और न इसमें 'लक्ष्य-भृष्टता' (निसियाँ) ही की संभावना होती है. 'जाप' की अपनी एक विशेष ही शक्ति है,  जिसे हम कह सकते  हैं - यथार्थ और पूर्णवाक् द्वारा विचार में सत्य का अंतर्दर्शन. कहना तो यही उचित होगा क़ि साधना के चरम लक्ष्य (असल नतीज़ा) को पाने का मात्र यही एक उत्कृष्ट माध्यम है. ऐसा निश्चित मार्ग पा लेने पर, उस पर अग्रसर होना ही वास्तविक अर्थों में उपासना है, यह उपासना चाहे दैहिक अथवा शरीर-संबंधी हो, स्थूल या सूक्ष्म हो, नाम की हो या नामी की हो, अथवा इसके अतिरिक्त और कुछ भी हो, किन्तु इसके विपरीत जिस साधन से लक्ष्य की विस्मृति हो जाय, भूल जाय, उस साधन-पथ पर अग्रसर होना अथवा उस और आकृष्ट होना, 'पथ-भृष्टता' है, अनाचार है.

चूँकि मूल प्रकृति सब की अलग- अलग होती है. इस लिए जाप करनें वाले अभ्यासिओं की भिन्न विशेषताओं के कारण जाप की भी भिन्न अवस्थाएं द्रष्टिगोचर होतीं हैं. उदाहरण स्वरुप, कुछेक साधकों को शब्द के संचार का आभास कभी होता है, कभी नहीं होता; कुछ की स्थिति इसके विपरीत होती है. ऐसा भी देखने में आया है कि शब्द संचार की अनुभूति अंत तक नहीं हुयी, किन्तु अनायास ही अंत समय में ऐसा स्रोत फूटा, मानों स्वतः प्रवाहित ज्वाला का आवेग (भभूका) ही हो. इस सन्दर्भ में  एक ही सत्य है कि अभ्यासियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हम जाप करने वाले (जाकिर) हैं और जाप करते रहते हैं. यह भी चेतना बनी रहे कि हमारे और उसके, जिसका कि हम ध्यान करते हैं; जाप आवश्यक है.


सबसे उत्तम श्रेणी का जाप यह है का नामो-निशान भी मिट जाय और जिसका कि जाप किया जा रहा है, मात्र वह ही द्रष्टिगत रहे. धीरे-धीरे बाद में जाप से उत्पन्न आनंद भी जाता रहे. और उसकी अनुभूति भी शेष न रहे.


"जाप मरे, अजपा मरे, अनहद भी मर जाय!
सूरत समानी शब्द में, ताहि काल नाहिं खाय!!"


वह क्या है, कहनें में नहीं आता. जो है, वह है, उससे अधिक कहा नहीं जाता और न कुछ कहा जा सकता है, क्यों कि वहाँ विचार नहीं जाता.


जाप के अनुशासन 
जाप के अनुशासन से आशय है, वे सहायक संकेत जो उसे सरल व सहज बनाने में में सहयोगी होते हैं और वांछनीय फल की प्राप्ति के द्योतक होते हैं. इस अनुशासन के पालन न करनें से विभिन्न प्रकार की कठिनाईयाँ मार्ग के मध्य आतीं हैं.

अनुशासन के अंतर्गत बीस नियम आते हैं-
- पांच, वे हैं वे हैं, जिनका पालन जाप प्रारम्भ करने से पूर्व करनें हैं.
- बारह नियम वे हैं जिनका ध्यान, जाप के मध्य (अंतराल) में रखना है.
- अंतिम तीन नियमों का निर्वाह, जाप की समाप्ति पर काना है.


जाप प्रारम्भ करने से पूर्व के नियम इस प्रकार हैं;


(०१) तौबा या पशाताप करना; अब तक जो किया सो किया, अब भविष्य के लिए, सदा और सर्वदा के लिए यह वादा (प्रतिश्रुति) निवेदन करना वे सभी कर्म और विकर्म जो धर्म-विरुद्ध हैं, अब न होंगे.
(०२) ह्रदय सभी द्वंद्वो से परे और शांत स्थिति में रखना.
(०३) पवित्रता; अर्थात शौच, नहा-धो कर स्वच्छ वस्त्र पहनना और स्वच्छ स्थान पर ही बैठना.
(०४) अपने गुरुदेव से सहायता लेना.
(०५) इस तथ्य का निरंतर बोध होना किगुरुदेव से सहायता लेना ठीक वैसा जैसा कि इष्ट देव से.


जाप के मध्य जिन नियमों का निर्वाह करना है, वे इस प्रकार हैं-


(०१) उपयुक्त आसन के साथ बैठना. "आसनेन रुजं हंति" (योग चूडामणि उपनिषद - १०९) हाथ-पैर आदि की स्थिर स्थिति का नाम 'आसन' है. आसन सिद्ध होने पर चित्त की एकाग्रता होती है. चित्त एकाग्र होने पर संसार का अस्तित्व शून्य हो जाता है. आसन रोगनाशक भी माने गए हैं. यह अपनी सुविधा की बात है कि 'दोजानू', जैसे नमाज़ में बैठते हैं, या किसी दूसरे आसन पर, किन्तु सबसे अच्छा सिद्धासन प्रतीत होता है. सिद्धासन गुदा तथा उपस्थ के बीच के स्थान पर लगाया जाता है. इस स्थान के नीचे बाएँ पैर की एड़ी लगाएं और सीधे पैर की एड़ी को उपस्थ के ऊपर रक्खें. इस स्थिति में दोनों पैर की एड़ियाँ नीचे-ऊपर हो जातें हैं. दोनों पैर के अंगूठे जंघाओं के बीच में आ जाते हैं. वक्षस्थल में ठोडी जमा कर मन को एकाग्र कर, द्रष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर करने पर सिद्धासन होता है. यह आसन मोक्ष-कपाट को खोलता है.
(०२) स्थान, जहां बैठना है उसको सुगन्धित करना. धूप और लोबान आदि सुलगा कर अथवा यज्य करके, सुगन्धित ताज़ा फूल रख लिया करें. 
(०३) स्वच्छ वस्त्र धारण करना, और पूजा-गृह (जो आकार में एक छोटे प्रकोष्ठ या कोठरी से अधिक न हो) को अन्धेरा कर लें.
(०४) दोनों आँखों और दोनों कानों को बंद कर लेना. (हमारे यहाँ अँधेरे प्रकोष्ठ और कानों को बंद करने की अनिवार्यता नहीं है).
(०५) सदगुरुदेव की प्रतिष्ठा और सानिध्य को ह्रदय में विद्यमान रखना.
(०६) व्यक्त और अव्यक्त, सत्यनिष्ठा और निष्कपटता से आचरण करते हुए एकेश्वरवाद के मूल मन्त्र  को स्वीकार (ज़ाहिर-बातिन सच्चाई और ख़ुलूस ... ... ... कल्मये तौहीद इख्तियार ) करना चाहिए.
[हमारे यहाँ जाप के मध्य इसकी आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया गया है. मात्र शब्द सुननें पर ध्यान देते हैं. यों गुरुदेव की छवि, उनकी प्रतिष्ठा और सानिध्य, ह्रदय में स्थापित करनें तथा एकेश्वर-वाद के मूल-मन्त्र के अर्थों को अंतःकरण में च्त्रित करने के प्रति आग्रह स्वीकरण का मुख्य कारण यह है की इनमें इच्छाओं की पूर्ती में पर्याप्त सहायता मिलती है.]
(०७) अपने चित्त, अंतःकरण में ऐसे संस्कार और प्रवृत्ति जगाएं कि अनेक सांसारिक भोग-विलास के सामान  हमें अभोग्य और उनकी उपस्थिति व उपलब्धि अप्रिय लगे, घुटन जैसी हो.
(०८) जब जब अबोध मन संसार की किसी भी भोग-विलास की वस्तु की इच्छा करे, उन दृश्यों को चलचित्र की भाँति अवलोकन करना, एक-एक करके उन सभी पर विवेक-पूर्ण विश्लेषण करना और उन्हें अपनें कष्टों का कारण समझना. इसी बात को अपने चित्त में उतारते हुए पछतावा करना चाहिए.
(०९) जापक ज्यों ज्यों इस स्थिति में प्रवेश करेगा, उसका अन्तःकरण वैसे ही वैसे स्वच्छ और निर्मल होता जाएगा और जिन विभिन्न प्रकार के रजोगुणी संकल्प विकल्पों के लिए वोह बाध्य था, उसे उनसे धीरे-धीरे मुक्ति मिल जायेगी. यही स्थिति आगे जारी रहने पर उसे ऐसा भी लगेगा कि अब प्राण गये, अब प्राण गए   इत्यादि. इस स्थिति के उत्पन्न होने पर साधक को चाहिए कि वोह उपासना के अनुकूल संकल्प करे; शास्त्रों में जिसे शिव-संकल्प की संज्ञा दी गयी है.
(१०) जापक को यह भी चाहिए कि अब तक पराभक्ति से जपनिष्ट रहते हुए प्रारब्ध-वश, देहाभिमान रूपी सागर की भीषणत़ा पर मालिक से इसके बंधन छूटने के लिए विनय, प्रार्थना करें और मोह, अहंकार आदि मानस-रोगों के आक्रमणों से बचने के लिए गिड़गिड़ाएँ. 
(११) अपने प्रभु से गिडगिडाते समय जापक को चाहिए कि वोह उससे अति-सामीप्यता की उष्णता को अनुभव करे और अपने प्रभु की दिव्य-सेवा की मानसिक भावना करे. यह भी अनुभव करे कि अपने स्वामी की अंकपाश में स्थित इस दीन-हीन के ह्रदय में स्थित जो भी इच्छाएं हैं वे समूल नष्ट हो रहीं हैं और उनके स्थान पर प्रभु-प्रेम और दिव्य-प्रकाश भरता जा रहा है.
(१२) जापक को चाहिए कि धीरे-धीरे अपने प्रभु से अनुराग की स्थिति प्राप्त हो जाने पर सहज भाव से यह विचारे कि हे भगवान्! तू ही तू है! न मैं हूँ न यह संसार, केवल तो ही है. इसी विचार में अपने आप को विलीन करें.


इसी अनुक्रम में वे नियम, जिनका कि पालन जाप के उपरान्त करना है, इस प्रकार हैं -

(०१) जाप के उपरान्त कुछ समय तक उसी मुद्रा में शांत बैठे रहना चाहिए.
(०२) तृष्णा या प्यास को रोके रखना चाहिए. शीत हवा और शीत जल से ह्रदय की उष्णता जाती रहती है और त्वचा के छिद्र-मुख यकायक खुल जाने से 'सर्दी' हो जाने का भय रहता है. 
(०३) यदि एकेश्वर-वाद के मूलमंत्र का जाप - "कल्मए-तौहीद" (जो कि परमपिता परमात्मा के श्री चरणों में अलौकिक प्रीति का परिचायक है) किया है और प्रभु से लगाव पैदा होने के संकेत द्रष्टिगोचर नहीं हुए, तो यह इस परिणाम का सूचक है कि जाप का अभ्यास विधि-विधान-पूर्वक नहीं किया गया है और मध्य में कहीं न कहीं कोई त्रुटि आ गयी है अतः उसे निर्दिष्ट विधि पूर्वक पुनः आरम्भ कर देना चाहिए.


जाप में प्रयुक्त नाम व शब्द 


जाप में कुछ नामों का प्रयोग करते हैं या कुछ नामों के सहारे जाप करते हैं. ये नाम सूफी सिलसिले में अरबी भाषा के शब्द होते हैं. हज़रत शाह हकीमुल्लाह साहेब जहानाबादी एक असाधारण संत हुए हैं उनका मत है कि जाप में प्रयोग करनें के लिए सभी को अरबी शब्द प्रस्तावित करना अनिवार्य नहीं है. उनके अनुसार, जो अभ्यासी हिन्दू हों, उन्हें हिंदी के नाम (ॐ, राम, शिव आदि) बतलावें. इसी प्रकार जो ईरानी हों  उन्हें फारसी के,
जो बंगाली हों उन्हें बँगला के और जो अँगरेज़ हों उन्हें अंग्रेज़ी के शब्द बताने चाहिए.


नामी से नाम की पहचान हुआ करती है. नाम दो प्रकार के हैं - पहला साकार और दूसरा निराकार. साकार नाम में, नामी के गुण, बीज-रूप में सम्मिलित रहते हैं. निराकार नाम में नामी के गुण, शाख, टहनी और फल-फूल के सद्रश्य प्रत्यक्ष और प्रकट रूप में स्थिर रहते हैं. यहाँ पर थोड़ा रुक कार विषयगत संकल्पना को स्पष्ट कर लें कि नामी के बीज-रूप गुणों का ज्ञान किया जाता है और उसके सार-तत्व अथवा गूदे का साक्षात्कार करना होता है. दिव्य पवित्र और शुद्ध सारतत्व और गूदे का अनुशीलन से तात्पर्य है कि 'ॐ' नाम से संलग्नता स्थापित होते ही सर्जन करने वाला, पालन-करता और संघारक अर्थात उस परम सत्य के भंडारण में पुनः वापस ले जाने वाले की स्मृति आ जावे. इसी प्रकार शब्द 'अल्लाह' की संलग्नता स्थापित होते ही वैसी ही पुनरावृत्ति हो; मात्र भाषा का अंतर रहे - सृजक, पालक और संघारक के स्थान पर, 'खालिक', 'रब्ब' और 'मालिक-मौम्मिद्दीन' की स्मृति का मूल भी वही है.


जाप की चार स्थितियां 


हज़रत शेख सरफुद्दीन यहिमुनेरी (परमात्मा की उन पर दया  हो) का कथन है की जाप की चार रूप-रेखाएं हैं -

(०१) ईश्वर के नाम का जाप, जिसके मूल और गूढ़ तत्व एवं सत के भण्डार विश्लेषण हैं, जिह्वा से तो होता है किन्तु हृदयंगमता की स्थिति नहीं हो पाती, ह्रदय बेसुध और असावधान रहता है. 
(०२) जिह्वा जाप कर रही है, ह्रदय भी उसी में लगा है, उसके अनुकूल है किन्तु ह्रदय बीच-बीच में बेसुध और असावधान हो जाता है, यों तब भी जिह्वा का जाप चलता रहता है.
(०३) तीसरी स्थिति में जिह्वा ह्रदय के साथ और ह्रदय जिह्वा के साथ और दोनों एक-दुसरे के अनुकूल होते हैं किन्तु बीच-बीच में दोनों ही बेसुध और असावधान हो जाते हैं.
(०४) चतुर्थ स्थिति यह होती है कि जिह्वा बेसुध और क्रिया-हीन होती है किन्तु ह्रदय, उपस्थित, सावधान और जाप में निरंतर तल्लीन रहता है. यह उत्तम जाप की स्थिति का द्योतक है. इस समय करता की भूमिका का निर्वाह, विद्यमानता और चेतना करती है.


ह्रदय का निरंतर अपने कार्य पर उपस्थित व सावधान रहना और यह जानकारी रहना कि जाप चल रहा है, विद्यमानता (हुजूरी) कहलाता है. चेतना (आगाही), जानकारी और ज्ञान का दूसरा नाम है. यही जाप की सत्ता है. जाप करने वाले को इस अवस्थान (मुकाम) में भी यह प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है कि वोह अपनें ह्रदय के शब्द को सुनता है और जाप करने वाले के अतिरिक्त कोई दूसरा उस ध्वनि को नहीं सुन सकता.


जाप का वर्गीकरण 


जाप के अनेक वर्ग एवं प्रकार हैं. यों तो जाप करने के लिए कोई भी जाप किया जा सकता है, किन्तु अनुभव से यह स्पष्ट हुआ है कि एक प्रकार का जाप, दूसरे से अच्छा हो सकता है या अधिक लाभदायक फल का द्योतक हो सकता है. अनेक संतों ने जाप की क्रिया और उसके विधान को अपनें-अपनें ढंग से बताया है. इसी क्रम में एक अच्छा और प्रभावी विवरण, श्रीमन अबू अब्दुल रहमान (ईश्वर उन्हें चिरायु और अपनी कृपा दें) का द्रष्टिगत हुआ है. वह कहते हैं कि जाप अनेक प्रकार के हैं, उनमें एक जिह्वा का जाप है, जिसको सब जानते हैं. दूसरा जाप ह्रदय का है, जो मानसिक है. यह जाप निकृष्ट विचारों, दुविधा और भ्रमों को दूर करनें वाला है और इसके मालिक के नाम के जाप में हृदयगमता आती है.


इसके अतिरिक्त एक और प्रकार का जाप है, जिसे 'शेष-जाप' कहते हैं. इस जाप को करने से अंतःकरण में कुछ ऐसी भावना का संचार होता है कि यदि किसी कुविचार या भय के ह्रदय में आनें की संभावना भी हो तो कदाचित वह फलीभूत न हो सके. इससे स्पष्ट होता है कि 'शेष जाप' (ज़िक्रे-सिर्र) ह्रदय के जाप का प्रतिफल है. 'शेष' (सिर्र) एक चक्र या अवस्थान का नाम है, जो ह्रदय-चक्र के ठीक ऊपर स्थित है. स्थिरता व द्रढ़ता, इसी 'शेष-चक्र' के कारण आती है. एकटक चैत्य सत्ता की आवेग-मई स्थिति (तवज्जो: का लग जाना) हो जाना और उस एक चरम लक्ष्य के अतिरिक्त, कोई आकर्षण शेष न रह जाना, सारे भाव और विचारों का मिट जाना, इसी 'शेष चक्र' की विशेष उपलब्धि है. जब तक यह चक्र पूर्ण-रूप से नहीं खुलता, उस समय तक ऐसी स्थिति नहीं आती कि स्वम को ऐसे भूल जायं कि कुछ याद न रहे, सिवाय इसके कि उस चरम लक्ष्य की ओर द्रष्टि लगाए बैठे हैं. 


ह्रदय चक्र पर किये जाप में निरंतर और हर समय उलट-फेर और चक्कर लगा रहता है जिसका कारण यह है कि इसमें स्थिरता व दृडता (हुज़ूरे दायमी) नहीं हो पाती.

एक और चौथे प्रकार का जाप है, जिसको आत्मा का जाप (ज़िक्रे रूह) कहते हैं. इस जाप में जाप करने वाले की अपनी लाक्षणिकता (सिफत) मिट जाती है, तात्पर्य यह है कि जाप करने वाले का यह भाव मिट जाता है कि जाप का करना मेरा कार्य है अथवा मैं जाप कर रहा हूँ, क्योंकि जब उसके सामने सिवाय एक लक्ष्य, जिसको कि ईश्वर कहते हैं शेष सभी वस्तुएं द्रष्टि से हट जाती हैं, और अन्य कुछ शेष नहीं रहा, तो जाप करने वाले का यह ध्यान बंध जाता है कि परमात्मा स्वम ही जाप कर रहा है. जब ऐसी मनोदशा हो जाती है, तो जाप करने वाले का न जाप शेष रह जाता है, न अवस्था न विवरण, न उसका गुण और न उसकी कैफियत ही शेष रह जाती है.

"जाप मिटै, अजपा मिटै, अनहद भी मिट जाय !
सुरति समानी शब्द में, ताहि काल नाहिं खाय!!"


यह मनोंदशा, सत्संग में प्रायः हो जाया करती है कि सत्संग प्रारम्भ करते समय तो ह्रदय जाप करता हुआ मालूम होता है किन्तु कुछ समय पश्चात, शब्द इत्यादि की अनुभूति नहीं होती जिसकी शिकायत प्रायः लोग अपनी अनिभिज्ञता के कारण किया करते  हैं और इसको दोष या हानि की संज्ञा भी देते हैं. 


जिह्वा-जाप, अर्थात जो जाप जिह्वा से किये जाते हैं ये निःस्वर भी होते हैं और ऊंचे स्वर से भी. इसको स्वर-मूलक जाप (ज़िक्र लिसानी) कहते हैं. ये जाप, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त और प्रगट, अर्थात प्रत्येक चक्र पर किये जा सकते हैं और शब्द के माध्यम से संपन्न होते हैं. इसमें अक्षरों को मूर्त रूप दिया जाता है और यह भी होता है कि कभी एक अक्षर के पहले उच्चारण करते हैं और कभी उसी अक्षर के बाद में. इसे अतीत और अनागत कहते हैं. शब्द में अक्षरों के उच्चारण करते समय जो तरंग और ठहराव इत्यादि होता है, यह पूर्ण रूप से व्यवस्थाबद्ध है. यदि इन अक्षरों का ध्वनि से संसाधित करते हुए उच्चारण करें तो ये शब्द ध्वनित (जिहर) कहलाते हैं और यदि इनका उच्चारण ध्वनि-रहित, निःशब्द रूप से, अर्थात स्वं के अतिरिक्त कोई दूसरा न सुन सके उन शब्दों को 'गुप्त' (ख़फी) की संज्ञा दी जा सकती है. यहाँ पर गुप्त उस शब्द का विशेषण है जिसकी कि व्याख्या ऊपर की जा चुकी है, अर्थात, शब्द जो दिया हुआ, न कि किसी चक्र-विशेष का नाम.


ह्रदय का जाप और मानसिक जाप में शब्द के आकार को बार बार याद करना होता है या उस नाम के नामी को अंतःकरण में अपने सामनें आभास करना होता है; इसकी साधारण क्रिया यह है कि अक्षर के आगे और पीछे अर्थात अतीत और अनागत का कुछ विचार न किया जाय प्रत्युत एक बार उस नाम के अक्षरों एवं उसकी तरंगों व ठहराव को अपनी धारणा शक्ति से समाविष्ट कर लें.


'आत्मा का जाप' की क्रिया का सार यह है कि उस नाम को ही भूल जाय जिसका कि जाप किया जाता है किन्तु उस नाम के नामी (स्वामी) को धारणा शक्ति में प्रतिष्ठित और प्रकाशित करें. इसका उदाहरण यह है कि अक्षर इत्यादि जिनसे कि उस नाम की रचना हुयी है, स्मरण नहीं रहते, प्रत्युत ईश्वर की स्मृति शेष रह जाती है.

कतिपय ब्रह्मज्ञानी अपनी अभिशंसा इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जिह्वा का जाप के माध्यम से, स्वतः ही 'ह्रदय का  जाप' कि स्थिति को प्राप्त कर लेता है; अर्थात उसके 'ह्रदय का चक्र' जाग्रत हो जाता है. किन्तु यह तभी संभव है जब जिह्वा और ह्रदय दोनों 'एकनिष्ट' हो जायं और तब कोई संदेह नहीं कि जाप धीरे-धीरे अपने अभीष्ट को न प्राप्त कर ले. 

नक्श्बंदिया सिलसिले में आत्म-शक्ति आत्मसात (जज्बेबातिन) भाव से 'ह्रदय का जाप' पर भरोसा करते हैं. प्रारम्भिक अभ्यासी अपनी यात्रा, जाप की उस उच्च अवस्था से प्रारम्भ करते हैं, जिससे कि हमारे यहाँ के साधू, भली भांति परिचित हैं. इस सिलसिले के नवशिक्षित और प्रारम्भिक अभ्यासी ही ह्रदय का जाप यानि, मानसिक जाप के माध्यम से विराट-रूप और देश से उनका सम्बन्ध हो जाता है, जब कि दूसरे सिलसिलों के पराकाष्ठा को प्राप्त अभ्यासी ह्रदय का जाप में उसी स्थिति को प्राप्त हो पाते हैं. 


कुछ जापों का विवरण 


यहाँ कुछ जापों का विधान दिया जाता है. यह आवश्यक नहीं कि असंख्य प्रकार के जापों का विवरण दिया जाय, या ध्यान एवं समाधि की भांति-भांति की विधाएं और उनकी विवेचना लिख दी जाय, क्यों कि इस पुस्तक को लिखनें का मात्र यह प्रयोजन नहीं है; प्रतुत बस इतना ही प्रयोजन है कि अनेकों में से कुछेक वे जाप जो सार-रूप हैं और अवधान (मुराकिबः) की उन युक्तिओं को, जो कि सर्वहितकारी, उपयोगितामूलक और चरित्र-निर्माण में हर प्रकार से सहायक हों, लिख दी जायं; क्यों कि जब कोई आध्यात्मिक स्वर्ग की ओर चढ़ती हुई उच्चतर चेतना का अनुभव करेगा तो नीचे की सीढ़ियों - क्रमशः प्राण, मन और अधिमन की स्थितियों को वोह सहज और स्वतः ही प्राप्त कर लेगा. 

तुम्हे जिस वस्तु की आवश्यकता है; वोह है चेतना, सदैव अधिकाधिक चेतना, शुद्ध, सरल और ज्योतिर्मय चेतना. इस प्रकार की पूर्णत्व को प्राप्त चेतना के प्रकाश में तुम्हे वस्तुएं अपने वास्तविक स्वरूप में द्रष्टिगोचर होंगी;  न कि जैसी वे अपने को दिखाना चाहें. यह प्रकाश एक चित्रपट की भांति होता है जो सामने से आती-जाती हुई वस्तुओं को ज्यों का त्यों दिखा देता है. वहां तुम देख पाते हो कि कौन सी वस्तु ज्योतिर्मय है और कौन सी अंधकारमयी, इत्यादि इत्यादि. तुम्हारी चेतना एक चित्रपट या दर्पण बन जाती है; पर यह तब होता है जब तुम चिंतन-मनन (ज़िक्र और फ़िक्र) की अवस्था में केवल द्रष्टा मात्र रहते हो: जब तुम सक्रिय हो तो यह चेतना खोज-बत्ती (search light) की जैसी हो जाती है. यदि तुम्हे किसी वस्तु को स्पष्ट और निर्दोष देखना हो और उसकी तात्विक विवेचना (जांच पड़ताल) करनी हो तो बस इस खोज-बत्ती को उस वस्तु की ओर कर दो.

इस प्रकार की पूर्ण चेतना को प्राप्त करने का उपाय है, अपनी वास्तविक चेतना को उसके वर्तमान घेरे और सीमा से बाहर निकाल कर विशाल बनाना, उसे शिक्षित करना, उसे भागवत-ज्योति की ओर खोलना और उसमें भागवत-ज्योति को स्वतंत्र और स्वछन्द रूप से कार्यान्वित होने देना. परन्तु ज्योति अपना पूरा-पूरा और अवाधित कार्य तभी कर सकती है, जब तुम समस्त भय और लालसाओं से मुक्त हो जाओ, जब तुम्हारे अन्दर कोई भी मानसिक पक्षपात न हो, कोई प्राणमय रूचि न हो, कोई भौतिक आकांक्षा या आकर्षण न हो जो तुम्हे तम्साछन्न करे या बंधन में बांधे.


यह जान लेना नितांत आवश्यक है कि शंका या भ्रम जो मन-मानस को अपने निज-रूप में स्थापित नहीं होने देते, वे चार प्रकार के होते हैं - अर्थात ये भ्रम तुम्हे चार प्रकार से दुविधा में डाल सकते हैं, उससे उभरने नहीं देते - (१) वोह तमोगुणी शक्ति है जो हमें अनेक प्रकार से बहकाया करती है तथा जो अहंकार, क्रोध, वैर-भाव, प्रशंसा ईर्षा इत्यादि गुणों की जननी व पोषक है, (२) दूसरा भ्रम विषय-वासना संबंधी है; जो इच्छा, काम-वासना, परिग्रह, अह्मंय्ता जैसे अनेक दुखों के कारण का पोषक है, (३) तीसरा भ्रम; दैविक (मलकी) है; जिसका सम्बन्ध देवताओं से है, इससे सदाचरण संबंधी विचार उत्पन्न होते हैं; जैसे पूजा-पाठ, व्रत-उपवास इत्यादि अनुष्ठानों के संकल्प-विकल्प, (४) चौथा भ्रम ईश्वर संबंधी (रहमानी) है, इससे निश्छलता आती है, अर्थात अन्दर-बाहर एक जैसा हो जाना, प्रेम और लगाव होना और परमात्मा के मिलने की इच्छा तीव्र होना.


बाएं घुटने की ओर तमोगुणी शक्ति (शैतानी खतरे) जो हमें बहकाया करती है, उसकी आशंका को दूर करने की यद्र्च्छा (मौक़ा) है, क्यों कि यहाँ पर उसके निवास का स्थान है और दाहिने घुटने के स्थान पर विषय-वासना  (इच्छा या नफसानी) संबंधी विचारों का निवास है, अतः यहीं से इनका विकर्षण करते हैं. 

आदमी को बहकाने और उसे सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होने से हटा देने तथा विघ्न उपस्थित करने में विषय-वासना (इच्छा) और तमोगुणी शक्ति दोनों का बराबर का साझा रहता है. दाहिना कंधा (इच्छा और तमोगुणी शक्ति के लिए) देवी आशंका के दूर करने की यद्रच्छा (मौक़ा) और स्थान है जहां अन्यथा दाहिना फ़रिश्ता और देवता अच्छे संस्कार बनाने को रहता है. इसी प्रकार ह्रदय का आकाश, दैवी आशंका के रहने का स्थान है. यही कारण है कि चौमुखा-जाप उपयुक्त समझा गया है. इसका क्रिया-विधान इस प्रकार है -  

- एक छोटी कोठरी हो, जिसमें अन्धेरा हो. सिद्धासन पर बैठें और पीठ सीधी रक्खें, आँखों को बंद कर लें, दोनों हाथों को दोनों जाँघों पर रक्खें. दाहिने पाँव के अंगूठे और उसकी उंगली (जो उससे मिली हुई है)से बांये पाँव की रग के मॉस की ओर से पकड़ें, ताकि क़ल्ब (दिल) को कुछ ऊष्मा का भास् हो. ऐसा करने से जहां एक ओर स्पष्टता या सफाई (cleaning) के भाव जाग्रत होते हैं, वहीं दूसरी ओर उस चढ़े हुए अनेक भ्रम और द्वन्द्वावस्था जैसे आवरण छट जाते हैं. उसके बाद मनोमय सत्ता और प्राणमय सत्ता को एकाकार करके, जैसा समय हो, ध्वनिक अथवा निर्वाक (जैसी रूचि और आदत हो) जाप में लग जाँय. जाप के मध्य निम्नलिखित युक्तियों का पालन करें -
(१) गुरदेव का एकनिष्ठ सानिध्य;
(२) ईश्वर का आश्रय; 
(३) उसके गुणों को स्मरण रखना अर्थात सजीवता, ज्ञान, शक्ति, संकल्प, जो कि सुनने, देखने, और बोलने वाले देवताओं के प्रतीक हैं, उनको ध्यान में रखना और 
(४) प्रग्याघात (ज़रब या ठोकर लगाना).

इसका अनुक्रम (तरकीब) यह है कि "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर, बाएं घुटनें से प्रारम्भ करते हुए, इसे आवेग के साथ ऊर्ध्वगामी गति दें; इसी आवेग के प्रवाह को "इलाह" (पूजा के योग्य) कहते हुए दाहिने कंधे तक और पुनः यहाँ से प्राणमयी सत्ता के आवेग को "इललिल्लाह" (सिवाय उस परमात्मा के) कहते हुए समग्र श्रद्धा को ओज को ह्रदय पर उतारें. इसका नाम "चौमुखा-जाप" (विकर्षण चतुष्ठय) या "नफी अस्बात ज़िक्र-चहार-ज़र्बी" है.

किन्तु हमारे गुरुदेव ने हम लोगों को इसे करने का इस प्रकार निर्देश दिया है कि - निर्दिष्ट स्थान पर विधि-पूर्वक आसन ग्रहण करके जिह्वा को निष्प्रभावी करके, और दोनों आँखों को बंद करके, पुनः चित्त को एकाग्र करके "ला" (नहीं है कुछ) को ध्यान में भर कर इसे नाभि के स्थान से ऊर्ध्व-गति देते हुए ऊपर उठावें और मनोमय-सत्ता के चरम बिंदु तक ले जा कर, पुनः "इलाह" (कोई पूजा के योग्य) कहते हुए इसी प्रवाह को दाहिनें कंधे की ओर ले जायं, पुनः "लिल्लिल्लाह" (सिवाय उस ईश्वर के) कहते हुए प्रवाह को, बाईं ओर ह्रदय पर प्राणिक आवेग के साथ छोड़ दें. साथ ही उनका यह भी आदेश था कि "नहीं है कुछ" के भावावेग को मनोमयी सत्ता की प्रतिष्ठा में संप्रेषित करते समय इस भावना को आकार दें कि जो कुछ भी दृष्टिगोचर है, अस्तित्व-हीन है, कुछ नहीं है; "न मैं हूँ न यह संसार". और दाहिनें कंधे की ओर "इलाह" के भावावेग को ले जाते समय इस भावना को आकार दें कि - "हाँ यदि कुछ सत्य और उसका अस्तित्व है, तो वोह परमात्मा है", केवल परमात्मा. इसी क्रिया का ऐसा अटूट भाव (तातां बाँध दें) प्रवाहित होने दें कि बेसुध हो जायं.

जिक्र दो-ज़रबी (दोमुखा या द्विक जाप) का अनुष्ठान यह है; कि प्राण की प्रत्येक गति (हर सांस) के साथ दाहिने कंधे पर "ला इलाह" (नहीं है कुछ) का एक आवेग, और ह्रदय के ऊपर "इल्लिल्लाह" (सिवाय परमात्मा के) का दूसरा आवेग प्रवाहित करें. जब तीन, पांच या नौ क्रम पूरे हो जाँय तो एक बार इसी आवेग के प्रवाह को "मोहम्मद रसूलिल्लाह" (परमात्मा के अग्रदूत) को समर्पित कर दें. "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति", महा मन्त्र का ही यह संभवतः क्रियान्वित स्वरूप है; अर्थात न मै हूँ, न यह संसार; सभी कुछ नाशवान है, जो अंत में शेष रह जायगा वोह केवल परमात्मा रहेगा. अस्तु इस संसार में कुछ नहीं है सिवाय मेरे "माबूद" (पूज्यनीय) के अर्थात जिस के आगे मैं नतमस्तक हुआ हूँ, जिसकी उपासना की है, वोह तू है. पुनः जो कुछ दिखाई देता है, वोह सब नाशवान है, सिवाय उस "मक़सूद" (परम लक्ष्य) के अर्थात, मेरी प्राणिक इच्छा का केंद्र तू ही है. इसके बाद कुछ शेष नहीं रह जायगा, सिवाय तेरे जो तू उपस्थित और वर्तमान है, जो कुछ शेष रहेगा वोह तू है.

प्रभु के दो स्वरूप माने गए हैं - साकार और निराकार. निराकार; नाम, रूप, रस, रंग, गंध से परे है, जब कि साकार इन सभी गुणों से युक्त है. निराकार का कोई निश्चित स्वरुप नहीं होता और स्वम अपना आधार है. साकार नाम, रूप और गुण के विशेषणों से युक्त है. वोह नाम, रूप और गुण; रज, तम और सत; ब्रह्मा, विष्णु, महेश के माध्यम से अभिज्ञेय है. परा-प्रकृति और अपरा-प्रकृति मय, आत्मा के मिलौनी से जीवात्मा का अभिधान होता है. महततत्व, प्रथम उद्भव है. इसमें समस्त गुण विद्यमान हैं. वस्तुतः बुज़ुर्ग (प्रतिष्ठित) मुसलमान, इसको हज़रत मोहम्मद (श्रद्धा के विद्यमान प्रतीक) जो कि रसूल्लिल्लाह (ईशदूत) हैं, यह भावना करके कि उनपर ईश्वर की दयालुता और कुशलता हो; वे अपनी पूजा के एक निश्चित स्वरुप की स्थापना करते हैं. इसी सिद्धांत के अंतर्गत, इस जाप के पूर्व चरण में शुद्ध निराकार का जाप निर्दिष्ट करनें के उपरान्त अंत में  किसी साकार का एक बार जाप बतलाते हैं; जिसका उद्येश्य यह है कि पहले निराकार है बाद में साकार. यह क्रम नीचे ऊपर की ओर जाता है इसी क्रमानुसार पहला चरण, दुनियाँ और तब प्रकृति है जिसका आधार महततत्व है. सांख्य के अनुसार प्रकृति का प्रथम कृत्य अहंकार (की उत्पत्ति) है. इसका तर्क यह है कि जीव और शरीर दोनों का अस्तित्व परस्पर एक-दूसरे पर आधारित है; भूमि और स्वामी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, स्वामी-हीन भूमि, भूमि की श्रेणी में नहीं आती. जाप में भी में भी इसी सिद्धांत के अनुसार, निराकार और साकार, दोनों का ही समावेश समीचीन समझा गया है. यही कारण है कि "दो-मुखा जाप"और "चौमुखाजाप" की तुलना में है "दो-मुखा जाप" अधिक उपयोगी है  क्यों कि इसके अनुष्ठान में बाधाएं और विघ्न आढ़े नहीं आते और न ही चित्त उचाट खाता है, समचित्तता बनी रहती है; प्रत्युत दूसरे जाप के अनुष्ठान-विस्तार में निर्दिष्ट मानसिक स्थिति बनाए रखने में कठिनाई होती है.

जिह्वा का जाप - (ज़िक्रे-लकलकः) का अनुष्ठान बहुत ही सीधा-सादा है; वोह इस प्रकार है कि - "अल्लाह"  या "ॐ" शब्द का उच्चारण, धीरे-धीरे, बहुत थोड़ा मुँह खोल कर, अथवा अधरों को सटा कर फुस्फुसाएं. कुछ लोग इसकी क्रिया के मध्य प्राणवायु को रोक लेने की सलाह देते हैं, जब कि अन्य लोग ऐसा आवश्यक नहीं समझते.


"ज़िक्क्र सह्पाया" या "त्रिपदी जाप" - अर्थात तीन चरणों में जाप; इसकी तुलना तिपाही से की जा सकती है, जिसमें तीन टांगें हों; तीन में से यदि एक टांग भी न रहे तो यह खड़ी नहीं रह सकेगी, गिर जाएगी. ठीक यही  सिद्धांत  इन तीन चरणों की उपयोगिता का है और इसी आधार पर इसका नामकरण किया गया है, अस्तु जाप के तीन चरणों में से एक में भी शिथिलता आने पर अनुष्ठान अधूरा रह जाएगा. 
- प्रथम चरण में प्रभु का वोह नाम जो त्रिगुणातीत है, उसका जाप करें; अखंड ज्योतिमय ब्रह्म जो कि शाश्वत सांत्वना का उद्गम है, उस परम तेजस्वी मंडल का मनन करें. (इस्मे-ज़ात)
- द्वितीय चरण में उस नाम का मनन करें जो तीनों का स्वामी है अर्थात वोह ज्ञानी, सुननें वाला, देखनें वाला है; जाप के मध्य उसके गुणों पर चैत्य (अपने मानस) को केन्द्रित करें. (इस्मे-सिफात)
- तीसरे का सम्बन्ध पूर्ववर्ती दोनों चरणों के मध्य का है. इसमें गुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य को चैत्य में केन्द्रित करना होता है.(बरज़ख) इस जाप की साधना सात-सूत्री है; सभी सगुनात्मक हैं और इसमें जिज्ञासु में निरंतर रसानुभूति और अभीप्सा पनपती रहती है.
(१) सदगुरुदेव का एकनिष्ठ-सानिध्य, यह सम्बन्ध साधने का उत्तम मार्ग है.
(२) "अल्लाहू" या "ॐ" का जाप करना.
(३) 'अलीम', 'समीअ', 'वसीर'; अर्थात "वोह समस्त जगत को जाननें वाला, सुननें वाला, देखनें वाला है" इन भावनाओं, संवेदनों का मनन करना.
(४) "अल्लाह" के 'अलिफ़' को अथवा "ॐ" के 'ओ' (अ + उ) की पर्याप्त ऊंची अलाप लें और उसे प्राण की क्रिया-पद्यति से चैत्य की उच्चतर चेतनां में केन्द्रित व स्थापित करें.
(५) "ॐ" शब्द की स्वनिक संरचना में स्थित हमजा (बलाघात) को संकल्प-शक्ति और ऊर्जा से एकाग्र करके नाभि-चक्र से प्रारम्भ करना.
(६) "ॐ" शब्द की अलाप के अंतिम चरण को ले जा कर मानसिक मंडल में स्थापित करना.
(७) "ॐ" शब्द के उच्चारण की आवृत्ति को गति देना.


उपरोक्त कुल अनुष्ठान को, और उसके उक्तियों को अपने गुरुदेव से व्यक्तिगत रूप से समझ लेना चाहिए व उनकी आज्ञा के बिना कदापि नहीं करना चाहिए, क्यों कि मात्र पुस्तकों और लेखों के सहारे धारणा का निर्माण और उसकी पुष्टि संभव नहीं होती, अतः अत्यंत सावधानी की आवश्यकता रहती है.

"ॐ" शब्द में स्थित स्वानिक बलाघात को कल्पनाशक्ति और प्राणिक ऊर्जा से एकाग्र करके, नाभि-चक्र के स्थान से, ऊर्ध्व गति देते हुए, बक्ष-स्थल पर केन्द्रित करें और शब्द (ॐ) का मानसिक भावना से उच्चारण करें, साथ में भावना करें कि वोह ही श्रोता है; पनाह पूर्व बतायी गयी क्रिया दोहराते समय भावना करें कि वोह ही द्रष्टा है, इसी प्रकार क्रिया की तीसरी बार पुनरावृत्ति करें और भावना करें कि वोह ही ज्ञाता है. यह उत्कर्ष साधना (चढ़ाव) कहलाती है.


इसके पश्चात पूर्व-लिखित क्रिया को पुनः दोहरायें किन्तु क्रम उलटा कर दें, अर्थात 'ॐ' के स्वनिक जाप के मध्य अलग-अलग की जाने वाली भावना के क्रम - श्रोता, द्रष्टा, ज्ञाता के स्थान पर ज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता के उच्चारण और अर्थ के सहित करें. यह अधः स्वस्तिक (उतार) साधना है.

पूर्वलिखित क्रिया के दोनों क्रम अर्थात उत्कर्ष-साधना और अवकर्ष स्वस्तिक साधना की बार-बार पुनरावृत्ति प्राणायाम के मध्य करें. ऐसा बार-बार करें और करते जायं; बढ़ाते-बढ़ाते इसकी संख्या, यदि कर सकें तो ढाई सौ तक ले जायं, क्यों की आशय यह है कि चैत्य में इतनी पर्याप्त ऊष्मा और ऊर्जा का संचार हो जाय कि उठने वाले सभी संकल्प-विकल्प उसके ताप से प्रभावित हो कर दग्ध एवं भस्म हो जायं, धीरे-धीरे समचित्तता आ जायेगी. 


अधःस्वस्ति और उत्कर्ष (उतार-चढ़ाव) साधनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति परिलक्षित करना अपने आप में में विशेष महत्व रखता है और उसका रहस्य यह है कि सुनने का मंडल, देखने के मंडल से कम है और देखने का मंडल, जानने के मंडल से कम है. यही कारण है कि अभ्यासी प्रथम प्रतिश्रुति में बुद्धि और साक्षी-भाव की प्रतिष्ठा में स्थित होता है; जो कि दूसरी प्रतिष्ठाओं की अपेक्षा अधिक संकीर्ण है और स्थूल का द्योतक है इसके बाद जब वोह अपनी श्रवण-शक्ति को गति देगा तो इससे बढ़ कर सूक्ष्म अवस्था को पहुंचेगा, जो कि पूर्व स्थिति से उच्चतर प्रतिष्ठा का द्योतक है. तीसरा क्रम द्रष्टि की क्रिया-शक्ति का है, जिसकी कि प्रतिश्रुति, कारण अवस्था में प्रतिष्ठित कराती है. इसी प्रकार विज्ञ-केंद्र की परिधि (जाननें का दायरा) का विस्तार करें और पनः बार-बार इसी क्रम को दोहराएँ (उलट-पलट करता चले). इसमें विशेष सावधानी की आवश्यकता है कि सद्गुरु देव के आदेश के बिना यह अभ्यास न करें; जब उनकी दया होगी तभी इस जाप के रहस्य का उदघाटन होगा अन्यथा मात्र पुस्तकीय-ज्ञान से यह संभव नहीं है .


इस उलट-फेर के सारांश को समझनें के लिए देखें कि किस प्रकार गीता में आत्म-रूप दर्शन और विराट-रूप दर्शन का भाव समझाया गया है; कि एक ओर तो आत्मा का मंडल सब तत्वों के ऊपर है और पुनः दूसरी ओर  से आत्मा का मंडल सब तत्वों के नीचे है.

इसकी व्याख्या नक्श्बंदिया-सूफी संतों ने अपनी शब्दावली के माध्यम से इस प्रकार की है कि, "मर्तब:इमकान", जिसे संभावना की प्रतिष्ठा या संभावना-मंडल कह सकते हैं, यह दो भागों में विभक्त है; एक भाग अर्श-मजीद (प्रतिष्ठित आकाश) के ऊपर और एक भाग उससे नीचे है. ऊपर वाले भाग का नाम "आलमे-अम्र" (कर्म-लोक) है और नीचे वाले भाग का नाम "आलमे-ख़ल्क़" (उत्पत्ति-लोक) है. कर्म-लोक केवल ईश्वरीय आदेश से यकायक उत्पन्न हो गया 'उत्पत्ति-लोक', शनैः शनैः अपनी स्थिति व आकार में आया. कर्म-लोक केवल, "लतीफ़ व नूरानी" (पवित्र व उज्वल) है और उत्पत्ति-लोक मलिन व तिमिर है. परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को सारे प्राणी-वर्ग में सबसे श्रेष्ठ और कुल श्रष्टि उसमे प्रकट और प्रतिबिंबित कर दी; वोह इस प्रकार कि दस विभिन्न-तत्व जो इन दोनों लोकों में हैं, उन सब का प्राकट्य इसमें (मनुष्य) स्थित कर दिया. इनमें पांच तत्व (चक्र) अर्थात, ह्रदय, आत्मा, शेष, गुप्त, प्रकट, कर्म-मोह के और पांच तत्व अर्थात इच्छा (काम) मृतिका (मिट्टी), जल, पवन, अग्नि, उत्पत्ति-लोक के हैं. सूफी संतों की भाषा में इन्हें "लतीफा" कहते हैं. ईश्वर की यह परम अद्भुत लीला है कि उसने कर्म-लोक के भी पवित्र व उज्वल तत्वों को मनुष्य के तिमिर ढाँचे में स्थित कर उन्हें शारीरिक मनो-विनोद व स्वाद का ऐसा आसक्त किया कि वोह अपने परमार्थ और परात्परा-सत्ता के स्पर्श-सुख से विस्मृत हो गए. अपने उदगम की ओर उनका कोई ध्यान या स्मृति ही शेष नहीं रह गयी.

अब शब्द (जप) की जाग्रति व ध्यान और सदगुरुदेव का संपर्क और संस्पर्श, इत्यादि से आशय यही है कि ये चक्र जो निश्चेष्ट पड़ें हैं, जाग्रत हो जायं, अपनी सत्यता से परिचित हो जायं, और अपने उद्गम की ओर आकृष्ठ हों और समुन्नत हो कर तादातम्य के द्वारा सत्य के दर्शन करें. 

ये दसो चक्र और उनका अस्तित्व संभावना-मंडल में स्थित है. उसकी स्थिति इस प्रकार समझना चाहिए कि नक्शबंदिया गुरुजनों ने जो अपनी प्रज्ञा द्रष्टि से इस परात्परासत्ता के इक्कीस बिंदु अभिग्यप्त किये  उनमें से प्रत्येक बिंदु को मंडल कहते हैं, जिनमे संभावना-मंडल सर्वप्रथम है.


इन "लातायफ़-खम्सः" (पाँचों चक्रों) को क्रमशः बेधना और उसके पश्चात "लतीफा-नफस की सैर" (मनोमय-सत्ता की यात्रा) करना और तब "लाताय्फ़-ए-अर्बा" (चतुर्चक्र) "अनासिर" (पंचभूत - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) पर यात्रा करना जिसको "सुल्तानुल अज्कार" (कुल जापों का राजा) कहते हैं. यह श्रीमन मुज़द्दिद अल्फ्सानी (परमात्मा उन पर प्रसन्न हों) का यह अनुशीलन है. आपके पुत्रों और उत्तराधिकारियों नें संक्षिप्तीकरण के आशय से "लतीफा क़ल्ब" (ह्रदय चक्र) के "लतीफ़ नफस" (शुद्ध मनोमय सत्ता) की यात्रा को स्थिर रक्खा और आदेश दिया कि शेष (बाकी) चक्र इसके गर्भ में परिपक्व हो जाते हैं.

जिसने ब्रह्म-विद्या तत्व और सांख्य-शास्त्र का पर्याप्त चिंतन और मनन किया है वोह ही इसके तत्व-ज्ञान को समझ सकता है. हम देखते हैं कि संध्या करते समय "ॐ" का शब्द पहले कह कर, पुनः "चक्षु-चक्षु"; "ॐ नाभि-नाभि"; "ॐ श्रोत्रम-श्रोत्रम" कहा जाता है. 


नाभि-चक्र के स्थान से प्रारम्भ करने से होने वाली (संभावित) हानियों से बचाव के हेतु विशेष ध्यान इस बात पर दें कि जाप प्रतिदिन और बिना नागा करें और खान-पान की ओर विशेष ध्यान दें. यदि व्रत ठीक प्रकार से साध लिया जाय तो हानि की संभावनाओं से बड़ी सीमा तक बचा जा सकता है.

सूफिओं का एक सिलसिला, "सत्तारिया" कहलाता है. इस परम्परा में 'सतनाम' का पाठ निर्वाक भाव से करते हैं और गुण सहित नामों को अपनें ध्यान में स्थापित करते हैं. गुण सहित नाम से तात्पर्य है कि "वोह सुनाने वाला है", "वो देखनें वाला है" और "वोह जानने वाला है". इसके मध्य सदगुरुदेव का एकनिष्ठ सानिध्य नितांत आवश्यक है. "सतनाम" के जाप को 'नाभि' से ऊर्ध्व-गति देते हुए सिर के तालू तक ले जा कर वहां केन्द्रित करते हैं. इसकी दो स्थितियां है. प्रथम स्थिति यह है कि इस जाप को एक 'श्वासोच्छ्वास' के साथ एक बार करते हैं. द्वितीय स्थिति यह है कि इसको श्वासोच्छ्वास की अवधि में एक-सौ बार करते हैं. इस साधना के चढ़ाव और उतार की गतियों की क्रमवार पुनरावृत्ति करें; जैसा कि पूर्वनिर्दिष्ट विधान है. "जुमले कबीर" (परवर्ती) स्थिति का अनुष्ठान जब करें तो ध्यान रक्खें कि सदगुरुदेव के एकनिष्ठ सानिध्य के मध्य, प्राणवायु रोक कर जाप करें और इस जाप की क्रिया का उस सीमा तक विस्तार करें कि 'चित्तभूमि' की पंचम स्थिति अपनी निरुद्ध अवस्था को प्राप्त कर ले. (योग में चित्तभूमि की पांच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र  और निरुद्ध अर्थात वह अवस्था जिसमें वोह अपनी कारणीभूत प्रकृति को प्राप्त हो कर निश्चेष्ट हो जाता है) जो अभ्यासी अपने सयम के द्वारा निद्रा और क्षुधा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं उनके लिए इस जाप के अनुष्ठान की सिद्धि अति सरल एवं निश्चित है।

ज़िक्र हद्दादी (लोहारी) - "ला इलाह" (नहीं है कुछ पूजा के योग्य) को खींच कर गुरुदेव की शक्ल का ध्यान बाँध कर बाएं तरफ से प्रारम्भ करें और दोनों घुटनों के बल खड़े हो जायं और फिर इल्लिल्लाह (सिवाय उस परमात्मा के) के लफ्ज़ (शब्द-भाव) को खूब जोर से दिल की फिजा (मानस पटल) पर ठोकर लगा कर बैठ जायं. इस क्रिया की उपमा एक क्रिया-शील लोहार की मुद्रा से दी जाती है; जिस प्रकार वह दोनों हाथों से हथौढ़े का प्रयोग लोहे पर भर-शक्ति करता है. इस जाप के आयाम का विस्तार इस सीमा तक करें कि लगाव और आनंद की लहरों में डूबनें लगें. यह एक श्रम-साध्य क्रिया है।

पास-अनफास - जाप - इसकी रीति यह है कि "नहीं है कोई पूजा के योग्य" की  शब्दावली  प्राणिक-प्रवाह की गति पर बाहर निकालें  और शब्दावली - "सिवाय उस परमात्मा के" में लय प्राण-वायु को ऊर्ध्व - गति  ऊष्मा   दें और प्रत्येक  श्वास - प्रश्वास के साथ ऐसा ही करें और इसका तार बाँध देवें तथा आंतरिक-दृष्टि अपनी नाभि पर केन्द्रित करें। इस जाप के  आयाम का इस सीमा तक विस्तार करें कि 'सोते-जागते निरंतर यह जाप चलता रहे। इस जाप के अभ्यासी की आयु दो-गुनी हो जाती है।

ज़िक्र - अर्रा, 'पास-अनफास' जाप की दूसरी विधि का नाम है। इसकी रीति यह है कि "ॐ"शब्द की स्वनिक संरचना के बलाघात को ऊर्ध्व-गति देते हुए निर्वाक-जाप 'हरी-ॐ' का करें, और प्राण को इस जाप का आधार बनाएं वोह इस प्रकार की - प्रश्वास की गति पर 'हरि' और श्वास पर 'ॐ' का उच्चारण करें। ऐसा करनें में हृदय की जिव्ह्या को यंत्र बनाएं। इसके तार को टूटनें न दें। इस क्रिया में पर्याप्त का निर्माण होता है अतः बादाम-तेल का प्रयोग करें। इस जाप की सर्वांग -पूर्णता (कमाल) जागृत करें, चित्त की निरुद्ध स्थिति में जाप होता रहे।












क्रमशः ... ... ...